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भाभी, मेरी सोने की चूड़ियां आप पहनेंगी…

"अभी का समय इन बातों का नहीं है, अभी ये चूड़ियां डाल देते हैं, जल्दी सोने की चूड़ियां बनवा देंगे", सुंनदा की भाभी ने मामला निपटाना चाहा।

“अभी का समय इन बातों का नहीं है, अभी ये चूड़ियां डाल देते हैं, जल्दी सोने की चूड़ियां बनवा देंगे”, सुंनदा की भाभी ने मामला निपटाना चाहा।

“बगिया” में सुबह से कोहराम मचा था, बच्चों को स्कूल छोड़ने गए बलराम गए तो सदेह थे, पर लौटे मात्र एक निर्जीव शरीर बने। बच्चों को छोड़कर लौटने में घर के करीब ही एक तेज गति से आते ट्रक ने उनकी बाइक को इतनी जोरदार टक्कर मारी की मौके पर ही वो…

पुश्तैनी घर “बगिया” में बलभद्र जी और उनके तीनों बेटे, बहुएं और बच्चे रहते थे। बलराम का अपना व्यापार था, दो बच्चे थे। बलराज को एक बेटी थी और सबसे छोटे बलीश की शादी हुए साल भी ना लगा था।

पूरा घर सकते में था। बलराम की पत्नी सुनंदा का कहना ना होगा क्या हाल था… दोनों देवरानियां दीपा और निशा दुखी थीं, पर सबसे छोटी निशा से जेठानी का क्रंदन देखा नहीं जा रहा था। पहला कारण था कि सुनंदा ने हमेशा उसे अपनी छोटी बहन सा प्यार दिया और दूसरा उसने अपनी मां के साथ यही सब होता देखा था। उसे अपना वही समय याद आ जाता और वह व्याकुल हो जाती।

खैर विधि के विधान पर किसका जोर है, ‘जो आया है जाएगा’ और ‘समय सब दुखों की दवा है’ के मूलमंत्र का स्मरण कर समाज, मित्र, परिवार सब जुट गए थे।

अंतिम यात्रा निकलने के बाद बड़ी-बूढ़ियों ने ज्यों ही सुनंदा की चूड़ियां तोड़नी चाहीं, सुंनदा इतने जोर से चीत्कारी कि जमीन से आसमान तक गूंज उठा।

“मैं ऐसा नहीं होने दूंगी… उन्हें मेरी भरी कलाई सबसे ज़्यादा पसंद थी, मैं इन्हें मरते दम तक ना उतारूंगी…!” सुंनदा चिल्लाई।

लाख समझाने पर भी सुंनदा टस से मस ना हुई तो निशा ने समझाने का जिम्मा लेते हुए बड़ों को ज्यादा जोर ना देने को कहा।

सुनंदा को अंततः निशा ने इस बात पर राज़ी किया कि बारहवीं की रस्म के बाद भी उनकी कलाई सूनी नहीं रहेगी चाहे जो हो जाए। तब तक उसकी सूनी कलाईयों पर निशा ने कपड़ा बांध दिया।

ये बड़ी बुरी व्यवस्था है हमारे पौराणिक विचारधारा में कि सौ वर्ष का वृद्ध हो या बीस साल का युवा “कर्मकांड” एक जैसे और बड़े विस्तार में होते हैं, जो ना केवल कष्टदाई होते हैं परन्तु कदम-कदम पर दु:ख की याद भी दिलाते हैं।

दोनों देवर-देवरानियां सुनंदा को बार-बार समझाते, बूढ़े ससुर अपनी पीड़ा परे रख सुनंदा को धैर्य रखने कहते, बच्चे आकर आंसू पोंछते..पर ये दुख ही इतना बड़ा था कि ना जीने देता ना मरने।

निशा को सबसे पता चला कि कांच की नहीं धातु की चूड़ियां बारहवीं के दिन पहनाई जाती हैं और रिवाज के अनुसार वो चूड़ियां मायके से ही आती हैं। बलभद्र जी की इकलौती बेटी भी आ गई थी। उसी ने सुनंदा के मायके फोन करके पता किया, तो पता चला वो लोग चूड़ियां लेकर आ रहे हैं।

बारहवीं की रस्म होने के बाद सुनंदा की दोनों भाभियां काठ बनी सुनंदा के पास गईं। एक ने सुनंदा के हाथ का कपड़ा खोला और दूसरी ने चूड़ियों वाली पीली पन्नी।

अभी चुड़ियां हाथ में डालने ही वाली थीं कि ननद ने पूछा, “चूड़ियां सोने की तो हैं ना?”

“जीजी, आर्डर तो सोने का ही किया था पर फिर ध्यान आया कि अब बलराम जी का सारा काम सुनंदा जीजी को ही संभालना होगा ना? तो मंहगी चूड़ियाँ उनके जीवन का जंजाल ना बन जाएँ  कहीं। तो बुरे जमाने के हिसाब किताब को सोचकर चांदी पर सोने की परत चढ़वा कर लाएं हैं”, बड़ी भाभी ने सकपका कर कहा।

“ये कौन सी बात हुई भाभी? आपने जो इतने झुमके, चेन, नेकलेस और अंगूठियां डाल रखीं हैं, क्या आपके लिए खतरा नहीं है? और मेरी भाभी सोने की चूड़ियां डालेगी तो उनकी जान को खतरा हो जाएगा?” ननद ने तमतमा कर कहा।

“देखिए अभी का समय इन बातों के लिए नहीं है, अभी हम ये चूड़ियां डाल देते हैं, जल्दी ही सोने की चूड़ियां भी बनवा देंगे”, सुंनदा की छोटी भाभी ने मामला निपटाना चाहा।

“बिल्कुल नहीं! चूड़ियां डलेंगी तो सोने की वरना नहीं। मैं अभी जाकर ले आऊंगी, पर आपको कहना होगा आपकी सोने के चूड़ियां लाने की औकात नहीं थी।” ननद भी अड़ गई।

कैसा माहौल और कैसा विवाद। निशा शर्मा से गड़ती जा रही थी। कभी जिंदा लाश बनी अपनी जेठानी को देखती तो कभी इस अहं की लड़ाई को।

वह चुपचाप अपने कमरे में आई और अपनी अलमारी खोली। सालगिरह के तोहफे के लिए बलीश ने बहुत कतर ब्योंत कर रूपये जमाकर निशा के लिए चार चूड़ियां बनाई थीं और छुपाकर अपने कपड़ों के नीचे रखी थीं। निशा ने कपड़े लगाने के क्रम में देख तो लिया था पर सरप्राइज मानकर फिर वहीं रख दिया कि सालगिरह के दिन बलीश खुद अपने हाथों से देंगे तो वो उन्हें ही पहनाने कहेगी।

मन में निश्चय कर निशा आंगन में आई। विवाद परवान पर था। चुपचाप जेठानी के पास जाकर बैठी और उनके हाथों में चूड़ियां डाल दीं। पूरा माहौल स्तब्ध हो गया। शांति तो ऐसी की सूई भी गिरे तो धमाका हो।

“ये तो तुम्हारे शादी की सालगिरह का तोहफ़ा था ना निशा?” निशा की राजदार सुनंदा के मुंह से बारह दिन बाद कोई वाक्य निकला था।

“जीज्जी, ये चूड़ियां तो बस सोने की थीं। जिसके पास पारस जैसे रिश्ते और लोग हों, उसके लिए सोने का क्या महत्व? वादा तो मैंने ही किया था ना आपसे कि बारहवीं के बाद आपकी कलाई सूनी नहीं रहेगी? ये सब ना होता तो मैं अपना वादा कैसे पूरा कर पाती?

जीज्जी, मेरी चूड़ियां फिर बन जाएंगी, पर ऐसे विकट समय में ऐसे बात बतव्वल अभी शोभा नहीं देते। जेठजी गए हैं, लेकिन जीज्जी का पूरा परिवार अभी जिंदा है। आप लोग कृपया हमारे दु:ख को समझें और सम्मान दें”, कहकर बिलख उठी निशा ने हाथ जोड़ लिए सबके आगे।

सब सर झुका कर इधर उधर हो लिए। सुनंदा निशा के गले लगकर फिर जोरों से रो पड़ी, पर ये आंसू राहत और चैन के थे कि बलराज जी उसे अकेला छोड़कर नहीं गए हैं, एक परिवार देकर गए हैं…

मूल चित्र : Still from Short Film Gaajar Ka Halwa/Ruma Mondal, YouTube

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