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पुस्तक आलोचना का स्त्री पक्ष की लेखिका सुजाता के साथ एक गुफ़्तगू

"2020 में भी हम स्त्रीवादी साहित्य आलोचना दृष्टि पर नहीं लिखेंगे तो फिर कब?" कहती हैं पुस्तक आलोचना का स्त्री पक्ष की लेखिका सुजाता...

“2020 में भी हम स्त्रीवादी साहित्य आलोचना दृष्टि पर नहीं लिखेंगे तो फिर कब?” कहती हैं पुस्तक आलोचना का स्त्री पक्ष की लेखिका सुजाता… 

चोखेरे बाली (हिंदी का पहला सामुदायिक स्त्रीवादी ब्लॉग), के साथ-साथ एक बट्टा दो (उपन्यास), अंतिम मौन के बीच (कविता संग्रह), स्त्री निर्मिति(विमर्श) किताब के बाद दिल्ली विश्वविद्यायल में अध्यापन करने वाली सुजाता ने आलोचना का स्त्री पक्ष – परंपरा, पद्धति और पाठ के माध्यम से स्त्री विमर्श के वैचारकी पर नई दस्तक दी है।

हिंदी में स्त्रीवादी आलोचना पर बेहद गिनी-चुनी ही किताबें हैं, इस नज़रिये से इस किताब का आना रिक्त स्थान को भरने के जैसा है। सूचनाओं और कन्टेंट के स्तर पर बेहद समॄद्ध किताब हैं रेंफरेंस से भरपूर जो अस्मिता विमर्श के प्रतिनिधि के रूप में सामने आती हैं।

भारतीय साहित्य में स्त्री-भाषा की समझ विकसित करने के लिए आवश्यक सैद्धान्तिक उपकरण के रूप में आलोचना का स्त्री पक्ष लंबे समय तक याद रखी जाएगी। स्त्री विमर्श के छात्रों और स्त्री विषयों पर संवेदनशील पाठकों के बीच यह किताब धीरे-धीरे अपनी जगह बना रही है और नई समझदारी विकसित कर रही हैं।

आलोचना का स्त्री पक्ष किताब पढ़ने के बाद सुजाता जी से फोन पर बातचीत की जो साक्षात्कार के शक्ल में पाठकों के लिए प्रस्तुत है-

सवाल : आलोचना का स्त्री पक्ष- परंपरा, पद्धति और पाठ किताब ‘स्त्रीवाद क्या है?’ के सवाल से शुरू होती है और अपने साथ लेखन परंपरा, पद्धति और पाठ के कई आयामों को छूती है, उसमें जोरदार बहस खड़ा करती है।

सबसे पहला सवाल यही उठता है कि इस किताब की जरूरत आपने कब और कैसे महसूस की। क्यों लगा कि आलोचना के स्त्री पक्ष पर अपनी बात कहनी चाहिए?

जवाब : स्त्री कविता या कहिए स्त्री लेखन के पाठ के लिए पारम्परिक तरीक़े अपर्याप्त हैं, पूर्वग्रह ग्रस्त हैं। आलोचकों की लिखित/अलिखित स्त्री-द्वेषी टिप्पणियों को पढ़ते हुए यह सवाल बार-बार मन में आता था कि स्त्री-विमर्श और स्त्रीवाद को इस तरह ख़ारिज किए जाने के पीछे हिंदी के आलोचकों की आख़िर मंशा क्या है?

ऐसा क्यों है कि मनोविश्लेषण, मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, उत्तर-आधुनिकता, संरचनावाद जैसी तमाम वैचारिकियों के आधार पर साहित्य को परखा गया लेकिन स्त्रीवाद को नकार कर या ख़ारिज करके काम चला लिया गया। किताब का एक पूरा अध्याय स्त्रीवादी आलोचना की ज़रूरत पर ही केंद्रित है।

अगर हम कविता, कहानी, उपन्यास लिख रहे हैं, तो आलोचना भी करनी होगी। स्त्री-लेखन का वैचारिक आधार क्या है, चुनैतियाँ क्या हैं, यह स्त्री-रचनाकारों स्पष्टता से बताना होगा।

यह किताब इसी दिशा में एक ईमानदार कोशिश है जो साहित्य के ‘इनसाइडर’ की तरह, पाठक, लेखक, कवि, शोधार्थी की तरह स्त्री-साहित्य और स्त्रीवादी साहित्यालोचन पद्धति को देखती हैं।

2020 में भी हम स्त्रीवादी साहित्य आलोचना दृष्टि पर नहीं लिखेंगे तो फिर कब?

सवाल : आपकी किताब स्त्री भाषा, स्त्री पाठ क्या है? जैसे सवालों पर कई प्रबुद्ध विचारकों के संदर्भ के साथ, तो स्त्री भाषा और स्त्री पाठ को कैसे समझा जाए? क्या तरीका हो किसी टेक्ट को पढ़ने का और  स्त्री भाषा को महिलाओं की समाजिकता कैसे प्रभावित करती है?

जवाब : अध्याय चार और पाँच पूरी तरह इस पर केंद्रित हैं कि स्त्री-पाठ कैसे पढ़ा-समझा जाए। इसका स्त्री-पाठ करने पर यही दिखता है कि सिर्फ़ मर्दाना लिंग ही स्वीकृत, समादृत है तमाम लैंगिकताओं में और वही संदर्भ का केंद्र है।

ऐसे में जब वह अपना प्रतिनिधित्व चाहती है, वह बोलती है, लिखती है, वह दर्ज होना चाहती है, तो घुसपैठिया हो जाती है! बाहरी! अपनी स्त्री-अस्मिता और लिंग चेतना के साथ आए तो आतंकी! हमलावर! भाषा का सारा बना-बनाया खेल छिन्न-भिन्न करनेवाली!

जैसे एक अधीन और दोयम अस्मिता के साथ हो सकता है कि वह अपने दैहिक भाव-भंगिमाओं में, हँसी और रुदन में बहुत मुखर नहीं होगी और कभी-कभी छद्म आचरण करेगी तो यह बात उसे ‘पढ़ा जाना’ मुश्किल बनाएगी। इसलिए स्त्री-पाठ और स्त्री-भाषा को पढ़ने के लिए कई तरह के संदर्भों में जाने की ज़रूरत पड़ती है। यही स्त्री-पाठ को खुला हुआ पाठ बनाते हैं। समझाने के लिए कविताओं के कई उदाहरण किताब में आते हैं।

स्त्री-भाषा स्त्री-देह की विशिष्टता, स्त्री की यौनिकता और स्त्री-अनुभवों से बनती है। इस पर किताब में विस्तार से बात की गई है। सिमोन द बुवा के प्रसिद्ध कथन ‘औरत पैदा नहीं होती बनाई जाती है’ के संदर्भों को सामने रखते हुए स्त्री क्या है पर भी किताब में चर्चा की गई है।

स्त्री-भाषा की ख़ूबसूरती और विशेषताओं को स्त्रीवादियों ने सामने रखा और वह स्त्रीवादी आलोचना के बेहद काम का है। लेकिन जिस क्षण वह अमूर्त होने की तरफ़ बढ़ता है वहाँ स्त्रीवादी आलोचक को सचेत रहने की ज़रूरत है।

अगर भाषा में हम बहुत अधिक अमूर्तन की तरफ़ बढ़ेंगे, जैसा जूलिया क्रिस्टेवा के यहाँ होता है और कुछ हद तक उत्तर-स्त्रीवादियों के यहाँ, तो स्त्री-अनुभव या अगर रोलाँ बार्थ की शब्दावली में कहें तो ‘लेखक की मृत्यु’ को मानना पड़ेगा। यह स्वीकार करते ही कि स्त्री-पाठ कोई भी लिख सकता है, लेखक का होना महत्वपूर्ण नहीं है। तब उन स्त्री-अनुभवों के लिए जगह नहीं रहेगी जो दलित, काली, आदिवासी स्त्री, और तमाम अंतरअनुभागीय अस्मिताओं (intersectional identities)की अभिव्यक्तियों में हैं, उनके शोषण, पीड़ा और ऐतिहासिक दमन को कैसे बयान करेंगे!

सवाल : स्त्रीवादी आलोचना की पद्धति  क्या है, इसकी कोई संरचना हमारे सामने है, अगर वो है तो वह क्या है?

जवाब : पूरी किताब इसी सवाल के जवाब का शोध और प्रस्तावना है। तीनों खंड- पद्ध्ति, परम्परा और पाठ इसी संरचना को सामने रखते हैं। स्त्री-भाषा, स्त्री के लेखकत्व और पाठकत्व पर बात किए बिना स्त्रीवादी आलोचना अधूरी है।

दलित और आदिवासी स्त्री कविता के लिए किम्बरले क्रेन्शॉ द्वारा प्रस्तावित अंतरअनुभागीय अध्ययन की पद्धति को मैं महत्वपूर्ण मानती हूँ और आख़िरी खंड में आख़िरी अध्याय इसी पर केंद्रित है।

फ्रांसीसी, अमरीकी स्त्रीवादी साहित्यिक आलोचना में जितना काम हुआ उसमें से बहुत से ज़रूरी तत्व लेते हुए मैंने मौलिक रूप से लैंगिक आस्वाद्यता की थियरी को ज्ञान की इस परम्परा में जोड़ा है। साहित्य के भीतर और बाहर इन सब पर बात करते हुए स्त्रीवादी कैनन में स्त्री-लेखक के अतीत को देखे जाने का प्रयास स्त्रीवादी आलोचना को करना होगा।

सवाल : लोकगीत, जिसकी उपस्थिति कमोबेश हर भाषा में है, वहां सस्कार गीत के साथ-साथ और भी कई गीत मौजूद हैं, जिसमें अभिव्यक्तियां हैं, प्रतिरोध भी हैं, अन्य कई सवाल भी हैं? पर्सनल इज पालिटिकल का व्यापक संदर्भ है, वहां फिर यह किन कारणों से हिंदी साहित्य के दायरे का हिस्सा नहीं बन सकी? इसको साहित्य की कौन सी धारा का हिस्सा माना जाए?

जवाब : स्त्रियों के रचे लोकगीत और लोक कथाएँ जो स्त्री यौनिकता और अस्मिता के सवालों पर केंद्रित हैं वे स्त्री-साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

साहित्येतिहास लेखक तो कह देता है कि स्त्री-लेखक थे ही नहीं, थे तो बहुत कम थे, संदिग्ध थे, शायद उनके पति या प्रेमी उनके लिए लिख रहे थे। सच इसमें महज़ इतना है कि बहुत कम स्त्रियाँ कलम से लिख रही थीं, वह भी न जाने कितनी मुश्किलों से जूझते हुए लिखा और उसमें भी हम कितना कम ही जानते हैं, कितना कुछ नष्ट हो गया, सहेजा नहीं गया।

जब ज़बानों पर ताले थे, कलम उठाना असम्भव था, तब भी स्त्री रच रही थी। लोक गीत एक तरह से वे अनकहे शब्द हैं जिन्हें साहित्य इतिहास ने दर्ज नहीं किया। जिनके कह जाने से संरचनाएँ ढह जाती हैं। ज़िंदग़ी में भूचाल आ जाते हैं।

स्त्री को हमेशा सिखाया जाता है, “चुप रहो”, “छिपाओ”, “सहन कर लो” ताकि घर बचे रहें, झूठी शान बनी रहे। यह छिपाना उसे अकेलापन देता है जो उसके गीतों में अभिव्यक्त होता है।

गिरीश कार्नाड का प्रसिद्ध नाटक है नागमण्डल। उसकी बुढ़िया के पास ऐसे ही अनकहे गीत और कहानियाँ हैं, उन्हें दिल में समेटे समेटे ही वह बुढ़िया हो गई है। एक दिन सोते में उसका मुँह खुलता है और वे गीत, कहानियाँ भाग जाते हैं और फिर कैसे उसके वैवाहिक जीवन में भूचाल आता है!

स्त्री-अनुभव हों या स्त्री का सच और साहित्य उसे लोक में सृजित रचनाओं के बिना पूरा न समझा जा सकता है न इतिहास ही लिखा जा सकता है।

सवाल : मीरा के बारे में लिखा है कि वह एक तरफ काफी प्रखर है भी है और दूसरी तरफ जेंडर संरचना को स्वीकार्य भी करती है। इन तमाम महिला कवियत्रियों की रचनाओं में वह कौन से तत्व मौजूद थे जो उनको महिला मुक्ति के सूत्रधार के रूप में प्रस्तुत करते हुए दिखते हैं?

जवाब : मीरा के चुनाव बेहद मुश्किल थे। पितृसत्ता से जूझते हुए वे अपना रास्ता निकालती हैं। उनके काव्य को हमें संघर्ष के काव्य की तरह देखना चाहिए जो ‘कोई निंदे, कोई बिंदे’ की परवाह के बिना अपने प्रियतम कृष्ण की आराधना में लीन है। जिसे कुलनासी कहे जाने की परवाह नहीं।

थेरियाँ हों, ललद्यद या मीरा सभी के यहाँ मुक्ति के संघर्ष के स्वर हैं जो उन्हें एक सूत्र में पिरोते हैं और इस मुक्ति में ‘घर’ नाम की संरचना से मुक्ति एक अहम बिंदु है। इसलिए इस अध्याय का नाम ही है- कवि औरतें जिन्होंने घर छोड़े

घर पितृसत्ता की सबसे बड़ी लीला-भूमि है। इसे सफलता का काव्य इसलिए नहीं मान सकते कि इन संघर्षों की राह में घर की संरचना छूटती है तो धर्म की संरचना तक ले जाती है। संरचनाओं से, पितृसत्ता की सहयोगी संरचनाओं से मुक्ति की राह में स्त्रियों ने, स्त्री-कवियों ने बरसों संघर्ष किए हैं ये रचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं।

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किताब आलोचना का स्त्री पक्ष की लेखिका सुजाता कमोबेश उन सारी चीजों पर अपनी बात रखी है जो किताब का हिस्सा हैं।

उम्मीद है पुस्तक आलोचना का स्त्री पक्ष की लेखिका सुजाता के साथ यह बातचीत पाठकों को उनकी पुस्तक पढ़ने के लिए प्रोत्साहित जरूर करेगी जिससे वह आलोचना का एक महत्वपूर्ण पक्ष समझ सकें। पुस्तक खरीदें यहां 

मूल चित्र : by author 

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