कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

मेरी बेटी को मैंने नहीं उसके पिता ने पाला है…

मेरे पति उसकी माँ बनकर उसके साथ रहते थे। स्कूल में उसका एडमिशन भी करवा दिया, उसे स्कूल छोड़ना, लाना, खिलाना, साथ में सुलाना सारा काम करते।

मेरे पति उसकी माँ बनकर उसके साथ रहते थे। स्कूल में उसका एडमिशन भी करवा दिया, उसे स्कूल छोड़ना, लाना, खिलाना, साथ में सुलाना सारा काम करते।

मेरी बेटी सिजेरियन हुई है। जब वह पैदा हुई तो 6 महीने की मेटरनिटी लीव मिली थी। पर जब छः महीने की हो गई तो मुझे पुनः विद्यालय जॉइन करना पड़ा।

शुरू में दो-चार दिन तो एक घण्टे में  घर आ जाती थी, फिर दुबारा फीड कराकर जाती थी। पर मेरे घर और विद्यालय की दूरी पैदल 15 मिनट की थी। मैं पैदल ही विद्यालय जाती थी। तो बार- बार आना- जाना परेशानी होने लगी।

छः महीने बाद बेटी को दाल की पानी, खिचड़ी गलाकर आदि दो चार चम्मच देने लगी थी। पर दो- तीन घण्टे बाद फीडिंग, माँ और बच्चा दोंनो की जरूरत हो जाती है। इसलिए 15 दिन बाद लंच टाइम में आने लगी। फिर विद्यालय चली जाती थी। फिर चार बजे के बाद घर आती थी। घर में मैं मेरी बेटी और मेरे पति बस तीन लोग रहते थे।

पति प्राइवेट कैफे में काम करते थे, पर मेरी डिलीवरी के लिए उन्हें काम छोड़ना पड़ा। और घर में मैं  बिटिया को छोड़ कर जाती, तो वो देखभाल करते थे। फिर विद्यालय के प्रधनाध्यपक के द्वारा इस तरह आने जाने की मनाही कर दी गई। तब मैं बेटी को लेकर ही विद्यालय जाने लगी। उसे स्कूल लेकर जाती ऑफिस में सुला देती थी, और क्लास करती। जब जगती तो साथ में उसके लिए हलवा आदि बना कर ले जाती उसको खिलाती थी।

बिटिया को खाना खिलाना ही सबसे बड़ी समस्या थे। पूरी तरह गोद में दबाकर जबरदस्ती खिलाना पड़ता था। घर में तो पति हेल्प करते थे पकड़ने में, खिलाते समय, पर स्कूल में कभी-कभी जब परेशान हो जाती थी तो स्टूडेंट्स को कहना  पड़ता पकड़ने के लिए। ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में टीचर और स्टूडेंट्स का रिश्ता ही अलग होता है।

मैं पैदल बेटी को लेकर  स्कूल आती और पैदल ही घर जाती  थी। बेटी के साथ, उसके खाने, पीने डाइपर आदि साथ ले जाना पड़ता था। मैं अकेले विद्यालय, और बच्चों में पूरी तरह बिजी रहती थी।

मेरी बेटी जब पैदा हुई थी तो उसे कुछ समस्या थी सांस लेने में पांच घण्टा ऑक्सीजन में रखना पड़ा था, इसलिए वो ज्यादातर बीमार भी रहती थी। और ग्रामीण क्षेत्र में अच्छे बाल रोग विशेषज्ञ भी नहीं थे तो बस फोना पर डॉक्टरों से कन्सल्ट कर दवाई देती थी। घर के कामों में पति हेल्प करते थे।  मैं जब बेटी को लेकर स्कूल जाने लगी तो, उन्होंने  फिर से काम जॉइन कर लिया।

जून से नवम्बर तक तो  स्कूल ले जाती बिटिया को पर दिसम्बर में ठंड ज्यादा होने लगी, उसे सर्दी- खांसी निमोनिया हो गया। अब तो मुंह समझ न आरहा था क्या करूँ? तो पति ने कहा इसे घर में छोड़ दिया करो, मैं देखूंगा, बेटी 11 महीने की हो गई थी। मैं 9 बजे सुबह उसे खिलाकर जाती और मेरे पति ने फिर से अपना काम छोड़ दिया, और घर में उसकी देखभाल करने लगे।

दोपहर में अकेले ही वे किसी तरह उसे थोड़ा बहुत खिला पाते थे। और जिस दिन कुछ भी न खाती थी, तो मुझे फोन करते थे मैं इमरजेंसी में आकर उसे खिलाती थी। फिर बेटी का पहला जन्मदिन मनाया, वह अपने पापा के बेहद करीब हो गई थी। जैसे माँ बच्चे की हर एहसास को समझ लेती हैं, वैसे ही मेरे पति बिटिया की माँ बन चुके थे।

दिनचर्या वही मैं स्कूल जाती फिर चार बजे आती। तब तक घर में बेटी को खाना खिलाना, बीच में पॉटी शुशु करे धोना, आदि वही करते थे। ज्यादातर उसकी तबियत खराब रहती, मैं विद्यालय में परेशान, मेरे पति घर में परेशान।

दरअसल मैं जॉब छोड़ भी न सकती थी क्योंकि स्थायी आमदनी का  एकमात्र जरिया मेरी जॉब थी।  फिर करीब वह जब 15 महीने की हुई तो गांव में स्कूल के पास ही डेरा ले लिया। ताकि मैं हमेशा आस-पास रह सकूँ। अब मेरे घर और विद्यालय की दूरी बस एक दीवार, तो मैं बार-बार उसको देखने, दवाई देने, खिलाने आ जाती थी। पर अकेले हम दोंनो, जब वह बीमार पड़ती, या अन्य कोई परेशानी होती तो घबरा जाते थे।

इसी परेशानी और दुविधा में समय के साथ मेरी बेटी दो साल की हो गई। दूसरे जन्मदिन पर उसकी नानी आई तो कहा, इसे मेरे पास छोड़ दो। वहाँ डॉक्टर  की भी अच्छी सुविधा है और तुम्हें भी विद्यालय में परेशानी न होगी।

पर मेरा दिल न मान रहा था। मेरी मम्मी ग़ाज़ियाबाद में रहती है। सो पति ने कहा तुम परेशान मत हो मैं वहीं रहूंगा बिटिया के साथ, डॉक्टर भी दिखा देंगे, औऱ वहां परिवार में भी रहेगी, साथ ही तुम फ्री होकर अपनी ड्यूटी कर पाओगी। फिर स्कूल से एक सप्ताह की छुट्टी लेकर मैं मम्मी और पति के साथ बेटी को लेकर ग़ाज़ियाबाद चली गई। और एक सप्ताह बाद उसे वहीं छोड़ मैं बिहार आ गई।

1200 किलोमीटर दूर दो साल की बच्ची को छोड़ कर  मुझे जो महसूस हो रहा था, उसे शब्दों में क्या बयाँ करूँ? बेटी भी 15 दिन तक मेरे लिए रोती रही। पर 24सों घण्टा उसके पापा उसके साथ अपने स्वाभिमान, अपनी नौकरी को छोड़ मेरी माँ के पास, अपने ससुराल में रहे। डॉक्टर को भी दिखाया उसे, वह अब स्वस्थ रहने लगी थी।

मेरे पति उसकी माँ बनकर उसके साथ रहते थे। वहीं प्ले स्कूल में उसका एड्मिसन भी करवा दिया, उसे स्कूल छोड़ना, लाना, खिलाना, साथ में सुलाना सारा काम करते।

मेरी मम्मी भी ख्याल रखती थी उसका, पर वह पापा के बहुत करीब है। मुझे जब छुट्टी मिलती तो मैं ग़ाज़ियाबाद मिलने चली जाती थी।  इस तरह माँ बनकर मेरे पति ने मेरी बेटी को पाला है, ताकि मैं अपने ड्यूटी के साथ न्याय कर सकूँ। ससमय विद्यालय जा सकूँ। अपने कर्तव्य निभा सकूँ।

मेरी बेटी के बिना कहे सब बात समझ जाते हैं उसके पापा आखिर  माँ के तरह पाला है। धन्यवाद मेरी बेटी को पालने के लिए और मेरा हर पल साथ देने के लिए।

कोरोना के कारण बेटी का विद्यालय बन्द है, और मेरे स्कूल में भी वैसा कोई दवाब नहीं है तो अभी बेटी साथ ही है और उसके पापा भी। बेटी पांच की हो गई है। पापा की दुलारी और पापा की जिम्मेदारी, बहुत नटखट, बहुत होशियार, और पापा की जान है।

आखिर मुश्किलों से जीत ही गये हम दोनों।

मूल चित्र : Still from #PenguinDad/Flipkart, YouTube

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

23 Posts | 61,214 Views
All Categories