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इस्मत चुगताई की कहानी ‘लिहाफ़’ एक सामाजिक सच्चाई है…

पर्दे पर उतरी हुई इस्मत चुगताई की सबसे अधिक बहस में रही कहानी 'लिहाफ़' इसे एक दफ़ा फिर से पढ़ने की ज़रूरत को पुख़्ता ज़रूर कर देती है।

पर्दे पर उतरी हुई इस्मत चुगताई की सबसे अधिक बहस में रही कहानी ‘लिहाफ़’ इसे एक दफ़ा फिर से पढ़ने की ज़रूरत को पुख़्ता ज़रूर कर देती है।

उर्दू अदब में मशहूर अफ़सानानिगार इस्मत चुगताई की तमाम कहानियों में सबसे अधिक बहस में रही कहानी ‘लिहाफ़’ को राहत काज़मी साहब ने फिल्म में रूपांतरित किया है। तनिष्ठा चटर्जी, सोनल सहगल और अनुष्का सेन के अभिनय के साथ ओटीटी प्लेटफार्म पर स्ट्रीम हुई है।

यह कहना थोड़ा जल्दी होगी कि रूपांतरित फिल्म ‘लिहाफ़’ की कहानी पढ़ने के रोमांच को दोगुना या कम कर देती है। पर्दे पर उतरी हुई कहानी ‘लिहाफ़’ को एक दफ़ा फिर से पढ़ने की ज़रूरत को पुख़्ता ज़रूर कर देती है।

गोया वह इसलिए, क्योंकि एक ख़ुद मुख़्तार मुल्क में ‘लिहाफ़’ की कहानी में जो सामाजिक सच्चाई है उसको अधिकार की शक्ल अख़्तियार करने में कमोबेश 70 साल से ऊपर लग गए।

सनद रहे, इस्मत चुगताई अविभाजित हिंदुस्तान की पहली महिला लेखिका है जिनकी रचनाओं पर अश्लीलता का मुकदमा चलाया गया। उसके पहले महिला लेखिकाओं के रचनाओं पर अश्लीलता का ठप्पा लगाकर उसको खारिज़ कर पब्लिक स्पीयर(लोकदायरे या लोकवृत्त) में आने ही नहीं दिया जाता था।

क्या है कहानी फिल्म ‘लिहाफ़’ की

राहत काज़मी साहब ने ‘लिहाफ़’ की कहानी को फिल्म में उतारने के लिए खुद इस्मत (तनिष्का चटर्जी) को ही दास्तानगोह के रूप में चुना है। यानी फिल्म दो समांतर ट्रैक पर चलती है।

इसे एक अश्लील कहानी मानकर इस्मत चुगताई पर ‘लिहाफ़’ को लिखने के लिए लाहौर कोर्ट से सम्मन जारी हुआ था। मुकदमें में इस्मत की पेशी और उनकी कहानी ‘लिहाफ़’ की दास्तानगोई साथ-साथ चलती है।

पहले ट्रैक में इस्मत अपने पति असलम (राहत काज़मी) और मंटो (शोएब निकश शाह) लहौर अदालत में पेश होते हैं। इस्मत के भाई के दोस्त असलम (वीरेन्द्र सक्सेना) का कहना है कि “सेक्स के बारे में लिखना कोई समस्या नहीं है, समस्या यह कि इसे एक महिला ने लिखा है।”

इस्मत के ससुर ख़त लिखकर कहते है कि “अच्छे मुस्लिम परिवारों की शिक्षित महिलाओं को उन चीज़ों के बारे में नहीं लिखना चाहिए क्योंकि यह छवि और पारिवारिक प्रतिष्ठा के लिए अच्छा नहीं है।”

यहां तक की इस्मत को ‘लिहाफ़’ लिखने के लिए धमकी भरे ख़त तक मिलते हैं। पर लहौर अदालत में जज को भी इस्मत की कहानी फ़हश यानी अश्लील नहीं लगती है।

दूसरे ट्रैक में इस्मत (अनुष्का) एक किशोरी हैं जो बेगम जान (सोनल सहगल) की सुंदरता पर लट्टू थीं। उन दिनों से ही, जब उनका निकाह नवाब साहब (मीर सरवर) के साथ हो रहा था। नवाब साहब की बेगम के साथ किसी तरह के संबंध नहीं बन सके और बेगम जान बीमार रहने लगीं।

जिनकी तीमारदारी के लिए रब्बो (नमिता लाल), एक मालिश करने वाली लगा दी गई और बेगम जान निखरने लगीं। इस्मत की मां जब आगरा जातीं तो इस्मत को बेगम जान के पास छोड़ जाती।

बेगम के कमरे में बगल के बिस्तर पर सोते हुए इस्मत को डर लगता क्योंकि रात में बेगम का लिहाफ़ (रजाई) अजीब-अजीब आकार लेता, कभी हाथी कभी बकरी कभी शेर और इस्मत डर जाती।

कैसी है राहत काज़मी साहब की ‘लिहाफ़’

कहानी सुनाने के लिए निर्देशक राहत काज़मी साहब ने जो प्रयोग किया है उसमें कहानियाँ एक-दूसरे के साथ-साथ ही चलती हैं। पर इस्मत के कहानियों को पढ़ने का जो मज़ा है उसको तमाम कोशिशों के बाद भी दुगुना नहीं कर पाती हैं।

बेशक फिल्म के हर किरदार ने अपने अभिनय को बहुत संतुलित रखा है और हर किरदार की संवाद अदायगी भी बेमिसाल है। बेगम जान और रब्बो के किरदार में सोनल सहगल और नमिता लाल का भावनात्मक और अंतरंग दृश्य उम्दा फिल्माया गया है।

परंतु, पर्दे पर स्त्रीत्व और महिलाओं की आज़ादी के सवाल जिस तरह पहले ट्रैक में निखर कर आते है दूसरे ट्रैक में जैसे कैद होकर रह जाते हैं। यकीनन पहला ट्रैक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और एक मुल्क के ख़ुद मुख़्तार हो जाने के बाद लोगों के दिमागी रूप से आज़ाद ख़्याल होने की मुखाल्फ़त करता है।

परंतु दूसरा ट्रैक अपनी कहानी में महिलाओं के लिए जिस आज़ादी की तलाश कर रहा है, वह भटक सा जाता है। दूसरे शब्दों का सहारा लूं तो महिला यौनिकता और विषमलिंगता पर जो बहस ‘लिहाफ़’ की कहानी रखती है, उसका अंश भर भी फिल्मी रूपांतरण लाने में कामयाब नहीं हो पाया है।

क्यों ज़रूरी है इस्मत चुगताई की ‘लिहाफ़’ को पढ़ना

ब्रिटिश हुकुमत की गुलामी के जिस दौर में इस्मत ने ‘लिहाफ़’ की कहानी लिखी थी, उस वक्त एक ही जेंडर के दो लोगों के संबंध या समलैंगिकता जैसी बातों पर चर्चा तो दूर की बात थी। यह सब कुछ पर्दे में रहता था।

इस्मत ने उस पर्देदारी को खत्म करने की कोशिश अपनी कहानी से की। आज समलैंगिकता और यौनिकता पर बहस तो होती है पर उसको स्वीकार करने का साहस सबमें नहीं है। समाज को उससे परहेज़ है।

इस्मत कैसे उस दौर में इसको स्वीकार्य करती है और उस पर अफसाना लिखती हैं ‘लिहाफ़’ को पढ़ते वक्त यह देखना-समझना ज़रूरी है। ज़ाहिर है इस्मत अपने वक़्त से बहुत आगे देख रहीं थी।

वह यह देख रहीं थी कि पर्दे के पीछे छिपी इस सच्चाई को पहले सर के बल खड़ा करना होगा तब जाकर लोग उसको समझ सकेंगे और धीरे-धीरे संगठित होकर समलैंगिक अधिकार और विषमलैंगिक यौनिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर सकेंगे।

परिवार और समाज में छुपी हुई जिस सच्चाई को इस्मत ने ‘लिहाफ़’ में दर्शाया है, वो आज एक हकीकत है, सच्चाई है जिसको पहले न्यायालय ने फिर और सरकार/समाज ने धीरे-धीरे स्वीकार कर लिया है।

मूल चित्र: a still from official trailer of movie ‘Lihaf’ via YouTube

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