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भारत में तलाक के समय महिला के अधिकार क्या हैं?

भारत में तलाक के समय महिला के अधिकार जानने ज़रूरी हैं क्यूंकि आज आवश्यक है कि महिलाएँ अपने सभी अधिकारों के प्रति सजग बनें...

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भारत में तलाक के समय महिला के अधिकार जानने ज़रूरी हैं क्यूंकि आज आवश्यक है कि महिलाएँ अपने सभी अधिकारों के प्रति सजग बनें…

कहते हैं शादियाँ और जोड़े स्वर्ग से तय होकर आते हैं। सच है या पता नहीं किसका बनाया हुआ झूठ है पर जो भी है शादी निभानी इसी दुनिया में होती है। शादी का रिश्ता जीवन को स्वर्ग बना देगा या असहनीय नर्क ये पहले से कहाँ किसी को पता होता है।

ज़ाहिर है कि स्वर्ग की इस मेकेनिस्म में गड़बड़ तो है। जहाँ जोड़े बनाते समय और उनकी शादियाँ तय करते समय उनके भविष्य को ठीक से जाँचा परखा नहीं जाता। वहाँ भी नीचे की तरह कोई सरकारी दफ़्तर है शायद। जहाँ कुछ बौखलाए और कान खुजाते कर्मचारी बैठे हैं जिन्हें बस प्रक्रिया पूरी करनी है। उनके सही और गलत से नीचे की दुनिया में उथल-पुथल हो जाती है उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है।

शादी के बंधन में बंधने से पहले तो कोई नहीं सोच पाता होगा कि जिस खुशनुमा जीवन की कल्पना लिए वो आगे बढ़ रहे हैं उसकी तस्वीर वैसी नहीं होगी जैसी होनी चाहिए। पर दुर्भाग्य से ‘तलाक’ की दहलीज़ पर पहुँच जाना एक डरावने सपने की तरह होता है।

भारत में आज भी तलाक को एक अभिशाप मानते हैं। क्योंकि यह सामाजिक नियमों के खिलाफ़ है। एक ऐसा फैसला जिसे समाज अपनी अनुमति नहीं देता। पर असल में यहाँ भी समाज का दोगलापन देखने को मिल जाता है।

तलाक अभिशाप तो है पर केवल औरत के लिए। एक ऐसा डरावना सपना जो शुरू हो जाता है तो ख़त्म होने का नाम नहीं लेता। एक बुरी और असंतुष्ट शादी से बाहर निकलने के लिए यही समाज पुरुष को संबल देता है और स्त्री को कमज़ोर बनाने की कोशिश करता है।

भारत में तलाक एक लंबी और मुश्किल प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया न केवल भावनाओं बल्कि कानूनी दाँव-पेंच की ऊहा-पोह से घिरी है। तलाक आपकी जिंदगी बदल देता है और इस बदलाव का चुनाव पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं के लिए अत्यंत कठिन होता है।

क्यों महिलाएँ झेलती रहती हैं एक बुरी शादी

अक्सर महिलाएँ बुरी और असंतुष्टि से भरी शादी बेमन से निभाती चली जाती हैं और आंसुओं में अपना जीवन काट देती हैं। जिसका प्रमुख कारण है उनका आत्मनिर्भर न होना और पति के संरक्षण के सिवा जीवन जीने के लिए कोई अन्य साधन न होना।

समाज और उनका खुद का परिवार भी उन्हें कई तरह की समस्याओं को झेलते हुए भी शादी में बने रहने को मजबूर करता है। क्योंकि उनके पास अपने और अपने बच्चों (यदि वे माँ हैं) के पालन-पोषण के लिए पर्याप्त साधन नहीं होते।

हालांकि आज ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएँ अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं पर अब भी महिलाओं की ऐसी बहुत बड़ी तादात है जो या तो पढ़ी-लिखी नहीं हैं, या आत्मनिर्भर नहीं है, या उन्होने शादी और बच्चों के बाद नौकरी छोड़ दी है या फिर उन्होंने अपनी मर्ज़ी से गृहणी होना ही चुना है।

इसी कारण अमूमन महिलाएँ घरेलू हिंसा (domestic violence), जारता (adultery), यौन असंतुष्टि (lack of intimacy and physical satisfaction) और यहाँ तक कि नपुंसकता (impotency) जैसी गंभीर समस्याओं से भी जूझती रहती हैं पर तलाक का निर्णय नहीं ले पातीं।

धर्म के हिसाब से बदल जाते हैं तलाक के नियम और प्रक्रिया   

भारतीय न्याय व्यवस्था के अंतर्गत तलाक की प्रक्रिया और नियम आपके धर्म के अनुसार बदल जाते हैं। तलाक की प्रक्रिया और महिलाओं के अधिकार निर्भर करते है कि आपने किस धर्म और रीति-रिवाज़ के अनुसार विवाह किया है। हिन्दू धर्म के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, मुस्लिम धर्म के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ और मुसलिम विवाह विघटन अधिनियम 1939, ईसाई धर्म के लिए भारतीय विवाह विच्छेद अधिनयम 1969 लागू होता है।

पर इस लेख में हम आज तलाक के लिए महिलाओं के उन अधिकारों के बारे में चर्चा करेंगे जो धर्म विशेष न होकर सभी के लिए समान हैं।

अपराध दंड संहिता सेक्शन 125 (CRPC sec 125)

यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी, बच्चों या माता-पिता की देखभाल करने से मना करता है तो इस सेक्शन के अंतर्गत उसे उनके जीवन यापन के लिए अंतरिम भरण-पोषण (interim maintenance) देना होगा। तलाक के समय यदि महिला के पास जीवन यापन का कोई भी साधन नहीं है तो वह इस कानून के अंतर्गत, तलाक की कार्यवाही के दौरान अपने पति से भरण-पोषण के लिए दावा कर सकती है।

इस प्रकार तलाक की प्रक्रिया में लगने वाली लंबी अवधि के दौरान महिला न केवल अपनी देखभाल कर सकती है बल्कि कचहरी और वकील का खर्च भी उठा सकती है। हालांकि यह भरण-पोषण तब ही मिल सकता है जब पत्नी के पास जीवन जीने के अन्य कोई भी साधन न हो या उसे बिना किसी सहारे के घर से निकाल दिया गया हो।

तलाक के समय महिला के अधिकार: तलाक के बाद एलिमनी (alimony)/ गुज़ारा-भत्ता

अंतरिम भरण पोषण के लिए महिला तलाक की शुरुआत में दावा कर सकती है पर एलिमनी या गुज़ारा भत्ता पत्नी को तलाक के बाद मिलता है। यह भत्ता एक मुश्त राशि (one time settlement) हो सकती है या माहवार भी तय हो सकता है। गुज़ारा भत्ता पत्नी को किस रूप में मिलेगा यह निर्भर करता है कि पत्नी-पत्नी की आपसी सहमति या कोर्ट के आदेश पर।

एलिमनी कितनी होगी यह कोर्ट ही तय करता है। हालांकि इसे तय करते समय कई तथ्यों को मद्देनज़र रखा जाता है। जैसे पति की कुल आमदनी क्या है? पत्नी पढ़ी-लिखी है या नहीं। पत्नी विवाह से पूर्व नौकरी करती थी या नहीं आदि इत्यादि। माहवार तय किए गए गुज़ारे भत्ते में अमूमन पति को एक महीने की आमदनी में से 25% अपनी पत्नी को हर महीने देना होता है।

चाइल्ड सपोर्ट (बच्चों की परवरिश)

बच्चों की परवरिश के प्रति महिलाओं के पास अधिकार हैं। आमतौर पर पति और पत्नी दोनों ही बच्चों की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई पर खर्च करते हैं उनकी ज़रूरतों का ख़्याल रखते हैं। पर यदि पत्नी/माँ की अपनी कोई आमदनी नहीं है तो फिर बच्चे की परवरिश में होने वाला हर प्रकार का खर्च पति/पिता की ही ज़िम्मेदारी है।  

चाइल्ड सपोर्ट के अंतर्गत बच्चे की ट्यूशन, स्कूल फ़ीस, यूनिफ़ॉर्म, पाठ्येतर गतिवितिधियाँ (extra-curricular activities), छुट्टियों या जन्मदिन के खर्चे या किसी भी प्रकार का खर्चा जो एक बच्चे की परवरिश में आवश्यक है, शामिल होता है।

बच्चे के बड़े होने के साथ उसकी ज़रूरतें और पढ़ाई का खर्च भी बढ़ता जाता है। यदि पत्नी को गुज़ारा भत्ता माहवार मिलता है तो चाइल्ड सपोर्ट के अंतर्गत इस भत्ते की रकम समय और आवश्यकता से हिसाब से बढ़ाई जा सकती है।

तलाक के समय महिला के सम्पत्ति अधिकार: तलाक के समय पति की संपत्ति में नहीं है पत्नी को अधिकार

भारत की न्याय प्रणाली के अनुसार तलाक के दौरान पत्नी को पति की संपत्ति में अधिकार प्राप्त नहीं है। पर यदि पत्नी ने पति के साथ मिलजुल कर कोई संपत्ति खरीदी है, या पत्नी ने किसी संपत्ति में निवेश किया है, या कोई संपत्ति पति और पत्नी दोनों के नामपर है तो पत्नी को उसके हिस्से के अनुसार धनराशि प्राप्त हो सकती है।  

आवश्यकता है कि महिलाएँ न केवल अपने सभी अधिकारों के प्रति सजग बनें बल्कि अनेकानेक महिलाओं को भी सजग करती रहें। समय और दौर का परिवर्तन यही कहता है कि औरत अब अबला नहीं है। प्रत्येक औरत के अंदर एक सबल महिला है जिसे बस अपना अस्तित्व और अधिकारों को पहचान कर दृढ़ खड़ा होना है।

मैं ये बिलकुल नहीं कह रही हूँ कि तलाक ही हमेशा एक सही निर्णय हो सकता है या शादी को बचाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। पर उस कोशिश की एक सीमा निश्चित होनी चाहिए और अगर आप उस सीमा रेखा तक पहुँच गई हैं तो, शादी में रहना या नहीं ये पूरी तरह से  आपका अपना निर्णय होना चाहिए न कि समाज और भविष्य के डर से सहमकर लिया गया निर्णय।

मूल चित्र: Still from Short Film Chuski, YouTube (for representational purpose only)

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