कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
बातें हुई, उनकी गहराई से पता चला कि उनकी इच्छाएं, शौक़, परेशानियां कहीं सतह से बहुत नीचे दबी हैं, हम सब ने मिल कर दफ्न कर दिया था उनके मन को।
अकेले रहते वक्त हजार बातें ज़हन में उठती हैं। मतलब-बेमतलब! एक पल कुछ पुरानी बातों का जी विश्लेषण करता है, कुछ आने वाले दिनों को मस्तिष्क में बुनता है। बेवजह, निरर्थक! दूजे पल सत्य तीर की तरह मन भेद कर देता है, आईना दिखाता कि सब मन के ख्वाब हैं। किन्तु मन के वेग की लगाम है कि छूटती ही रहती थी। आप संवेदना की ऊंचाईयों को छू कर निर्ममता की पराकाष्ठा देखते भी हैं और इसे महसूस करते हैं।
तो ऐसे ही एक रोज मैंने इंटरनेट पर एक तस्वीर वाइरल होती देखी। आपने भी देखी होगी! एक मां आक्सीजन लगा किचन में खड़ी हो खाना पका रही थी। इस तस्वीर के दो पहलू घूम रहे थे, एक पक्ष जिसमे मां की महिमा और कर्तव्यों का बखान हो रहा था और दूसरा स्त्री/मां पर इसे उत्पीड़न कहा जा रहा था। और ऐसे मूर्खों का हुजूम भी देखा जो मां का गुणगान करते नहीं थक रहे थे।
मेरा दिन व्यथित रहा। कदाचित यह अनैतिक, निर्मम, और अधर्म था। ख़ैर जो यह सोशल मीडिया से मन उचाट हुआ तो सब से दूर स्वयं के समीप पहुंची।
हम सब भी तो मां के त्याग का गुणगान करते नहीं थकते। उसकी कार्य कुशलता और तत्परता के कसीदे पढ़ते हैं। महिमामय कर कविताएं गढ़ते हैं। और जो मदर्स डे जैसे अवसर हो तो मार्मिक पोस्ट्स की बाढ़ से कलेजा बह जाए। मातृत्व की डोर अपनी ही सबसे स्पेशल होती/लगती है, हो न हो यह अलग पहलू है।
मैं अपने बारे में बात करती हूं। मैं भी कमोबेश कुछ ऐसी ही थी। अब क्या खास बदलाव आ गया है…वैसे तो कोई इन्कलाब नहीं लाई हूं, बस इतना ही कि न मैं अब उसकी परछाई हूं न वो मेरी छाया है।
कुछ छ: साल पहले जब घर गई थी तो अपनी फरमाइशों का पिटारा हमेशा की तरह मां के सामने खोल कर रख दिया। मां भी लग गई, मेरे अरमानों को पूरा करने में।
जब हम रात को खाने बैठे, बस मां की थाली सूनी सी थी। पता चला मां को लैक्टोज़ एलर्जी होने लगी है। और मैंने अपनी थाली देखी। भरी हुई!
उस दिन खाना संग ग्लानि और लज्जा दोनों चखा था। कुछ हो गया उस रोज़। उसको मैंने मां से ज्यादा एक इंसान जैसा देखा। अब इस मां के अंदर के औरत को और जानना था। फिर शुरू किया हमने बातों का सिलसिला। और जितनी बातें हुई उतनी गहराई से पता चला उसकी इच्छाएं, शौक़, उलझन, परेशानियां कहीं सतह से बहुत नीचे दबी हैं। बेमुरव्वत, हम सब ने मिल कर दफ्न कर दिया था उसके मन को। और वो हम सब की इच्छा को आत्मसात कर उसे ही अपना कहती थी/है।
कुछ करना था मुझे।
शुरूआत की उससे कुरेद-कुरेद कर पूछने की। मन का थाह लेने की। फिर बंद किया अपना राय परोसना।
“तुमको जो ठीक लगे देखो”, मेरी इस लाइन पर मां खीझती, पर जानना तो था कि उसे क्या पसंद है। क्या पहनूं, गिफ्ट क्या दूं, कैश तू रख/जमा कर दें..इन सब से पल्ला झाड़ने लगी।
फिर मैंने एक कदम और बढ़ाया, “मां मेन्यू तुम बनाओ, खाना हम सब बनाएंगे!”
इस बात से शुरू हुआ सफर आज किताब, आस्था, श्रृंगार, कहीं आने-जाने तब पहुंचा है। सफर अभी लंबा हैं, मीलों के फासले बाकी है और सुधार की गुंजाइश अपार है।
शुरुआत में मुश्किल होता था उसके लिए यह सब। अब तक सब ने उसके लिए फैसले लिए, उसे क्या पकाना है से लेकर कैसी साड़ी उस पर फबेगी। उसे तो शुरू में लगा कि उसका साथ ही मैंने छोड़ दिया, पर आज शायद उसे महसूस हो कि मैं एक जरिया बनना चाहती थीं, स्वयं के लिए प्यार जगा पाने का। और इस राह में मेरी चाह भी स्वयं के लिए बढ़ने लगी। कहते हैं न अच्छा सिखाने के लिए खुद भी सिखना ज़रुरी होता है। तो बस, सीख रहे हैं दोनों।
माँ, तुम माँ के अलावा एक इंसान भी हो!
तो मेरे लिए मां अब हम सब की तरह एक इंसान है। अच्छे, बेढब व्यवहार विचार रखने वाली हम-आप जैसी एक महिला। तजुर्बेकार। कोई ख्वाहिश पूरी करने का पिटारा नहीं।
तो मांओ को ग्लोरिफाई करना आप भी बंद करें, और जो न हो सकें तो खुद से पूछें कि आप उनके पसंद-नापसंद को कितना जानते हैं। उत्तर न सही तो अंदाजा हो ही जाएगा।
मूल चित्र : Still from Short Film Maa/Besurae ,YouTube
A researcher, an advocate of equal rights, homemaker, a mother, blogger and an avid reader. I write to acknowledge my feelings. I am enjoying these roles. read more...
Women's Web is an open platform that publishes a diversity of views, individual posts do not necessarily represent the platform's views and opinions at all times.
Please enter your email address