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आज से मैं खुद को तुम्हारी पत्नी नहीं मानती…

बात बात पर गुस्सा करने वाले और उसी गुस्से की वजह से दीवार पर अपना सिर पटकने वाले पति सुरेश के साथ उसकी जिंदगी मुश्किल के साथ ही कटेगी।

बात बात पर गुस्सा करने वाले और उसी गुस्से की वजह से दीवार पर अपना सिर पटकने वाले पति सुरेश के साथ उसकी जिंदगी मुश्किल के साथ ही कटेगी।

ट्रिगर वार्निंग : इस लेख में आत्महत्या का विवरण है जो ट्रिगर साबित हो सकता है  

ननद नंदोई के जाने के बाद अब रश्मि और दोनों बच्चे घर में अकेले रह गए। कितने दिनों की भागदौड़, तनाव, रोना और ना जाने कितने ही लोगों की कभी क्रोध और कभी व्यंग्य भरी निगाहों से छलनी हो चुके।

टूटे हुए मन के साथ रश्मि बालकनी में बैठी सूनी आंखों से शून्य में देख रही थी। सोच रही थी कि न जाने किन पापों का दंड मिला है कि पति ने आत्महत्या कर उसे अकेला कर दिया और कलंक का टीका भी माथे पर लग गया। उसका क्या कसूर था जो विधाता ने उसे यह सजा दी?

शादी के बाद से ही उसने देख लिया था कि बात बात पर गुस्सा करने वाले और उसी गुस्से की वजह से दीवार पर अपना सिर पटकने वाले पति सुरेश के साथ उसकी जिंदगी मुश्किल के साथ ही कटेगी।

कहने को तो सुरेश की दुकान थी पर जैसी उनकी हालत थी दुकान कभी अच्छी नहीं चली। ग्राहकों से भी गुस्से में बड़बड़ा कर बात करना, लाभ हानि ना समझना, कभी-कभी दुकान ना खोलना यह सब देख कर कोई भी समझ सकता था कि दुकान से घर का खर्च नहीं चल सकता। अनेक बार अपना सारा गुस्सा रश्मि पर उतारने के बाद सुरेश कभी-कभी गुमसुम होकर बैठ जाते थे।

रश्मि को उन पर दया भी आती और वह उनसे जानना चाहती कि वह ऐसा क्यों करते हैं परंतु उनसे किसी बात का जवाब मिलना मुश्किल था। उनके माता-पिता भी साथ में रहना नहीं चाहते थे। भाई बहन जब कभी मिलने आ जाते थे पर कोई रुकता नहीं था।

ऐसे ही रश्मि की गृहस्थी की गाड़ी चलती रही और वह दो बच्चों की माँ भी बन गई। जब तक माँ थी किसी तरह से पैसा देकर मदद करती रहती थी। बेटी छोटी थी जब उसका एडमिशन कराने उसी स्कूल में गई जहां बेटा पढ़ता था, तब उसकी गणितविषय की योग्यता देखकर प्रिंसिपल ने उससे अध्यापिका बनने के लिए कहा।

उसे पैसे की आवश्यकता भी थी क्योंकि दुकान से तो बस काम भर चलता था इसलिए खुशी के साथ हामी भर दी। उसके नौकरी करने के बाद कम से कम बच्चे हर चीज के लिए तरसते नहीं थे। उसके साथ ही स्कूल जाते और लौट आते थे। शाम को वह ट्यूशन लेती थी और उसी समय अपने बच्चों को भी पढ़ाती थी।

सुरेश ने अपने आप को बहुत अकेला समझना शुरू कर दिया। रश्मि चाहती थी कि उन्हें अधिक से अधिक समय दे सके पर अपने कामों के कारण ऐसा नहीं कर पाती थी और फिर वह कौन सा अपने खुद के लिए काम कर रही थी? एक तरह से उसकी कमाई से ही परिवार चल रहा था।

जब कभी ससुराल पक्ष के लोग आते थे तो रश्मि को सुना कर जाते थे कि वह सुरेश का ध्यान नहीं रखती। रश्मि की मजबूरी को कोई नहीं समझता था कि उसके पास तो खुद का ध्यान रखने का भी समय नहीं है घर और बाहर का काम साथ में ट्यूशन उसे बुरी तरह थका डालता था।

एक दिन सुरेश दुकान बंद करके लौटे ही नहीं। रश्मि बहुत परेशान हुई। उनके दोस्त तो वैसे ही नहीं थे, बस कुछ जानने वाले थे। उनसे पूछा तो वे कोई जानकारी नहीं दे सके। रात भर वह बहुत परेशान रही।

सुबह पुलिस ने आकर बताया कि सुरेश ने शहर से निकलने वाली ट्रेन के सामने कूदकर आत्महत्या कर ली है। रश्मि की आंखों के सामने अंधेरा छा गया। किसी तरह से सब को फोन किया और फिर तो ना जाने क्या-क्या सहना पड़ा। पुलिस की पूछताछ, ससुराल वालों के अपशब्द, सहेलियों द्वारा बात जानने की कोशिश, पड़ोसियों की व्यंग्य भरी निगाहें। यहां तक कि दूध वाले ,सब्जी वाले और काम वालों को भी अपने घर के बारे में बात करते सुना।

ईश्वर की यही मेहरबानी रही कि पुलिस ने खोजबीन करके जान लिया कि सुरेश ने मानसिक परेशानियों की वजह से आत्महत्या की है, इसमें रश्मि का कोई दोष नहीं है। पुलिस तो संतुष्ट हो गई पर घरवाले, मित्र और पड़ोसी संतुष्ट नहीं हुए। किसी ने यह नहीं सोचा कि रश्मि पैसा कमाती या सुरेश की परिचारिका बनी रहती?

सास ससुर  चाहते तो साथ में रहते और सुरेश की देखभाल करते, जिससे रश्मि स्कूल जा सके। भाई बहन भी सुरेश से बातचीत कर सकते थे जिससे वह अकेलापन ना महसूस करें? उस समय सबके अपने काम थे। सबको लगता था कि यह जिम्मेदारी रश्मि की ही है। रश्मि की मजबूरियों पर किसी का ध्यान नहीं गया।

सुरेश के अंतिम संस्कार के बाद होने वाले सभी कार्यक्रमों के बाद सास ससुर ने रश्मि से कहा, “अब तुम्हारा क्या कार्यक्रम है?”

रश्मि जवाब देती उसके पहले ही देवरानी बोली, “मायके चले जाना ही सही रहेगा क्यों कि गांव चलेंगी तो मां बाबूजी आप को माफ नहीं कर पाएंगे। आपकी वजह से उनका बेटा जो चला गया।”

देवर भी मुंह फुला कर बोला, “क्या जानता था कि भैया को अपनी स्थिति के कारण जान दे देनी पड़ेगी।”

रश्मि का भाई कुछ गुस्से में आकर बोला, “जो स्थितियां थी उनमें जान तो रश्मि को देनी थी पर उसने जिम्मेदारी संभाली।”

बात को बढ़ती देख कर रश्मि की भाभी सामने आई और कहने लगी, “अब इन बातों से कोई लाभ नहीं है, रश्मि दीदी जिम्मेदारी तो इन्हीं लोगों की है।”

रश्मि समझ गई थी भाभी को डर है कि कहीं मैं मायके चलने के लिए तैयार ना हो जाऊं। वह बोली, “मैं कहीं नहीं जाऊंगी। जैसे पहले कमाकर घर चलाती थी, उसी तरह से अब भी घर चलाऊंगी।”

रश्मि के भाई भाभी ने चैन की सांस ली और ससुराल पक्ष को लगा कि रस्सी जल गई पर ऐंठ नहीं गई।

किसी की इच्छा सुरेश के परिवार की जिम्मेदारी लेने की नहीं थी बस रश्मि को ही सुरेश की आत्महत्या का जिम्मेदार मान कर अपने व्यंग्य बाणों से बेधना था। एक-एक करके सब चले गए।  ननद नंदोई उसी शहर में रहते थे इसलिए वह सबसे अंत में गए।

रश्मि को एक ही भरोसा था उसके स्कूल की प्रिंसिपल और अध्यापिकाएं उसे गलत नहीं समझेंगी। यही हुआ पूरा स्टाफ उसके घर आया और उसे तसल्ली देकर गया कि हम तुम्हारे साथ हैं। रश्मि की आंखें भर आईं यह सोच कर कि पति ने ना जीवित रहते उसका साथ दिया और ना ही मृत्यु के बाद उसे किसी की सहानुभूति का पात्र होने दिया। सबकी निगाहों में वह अपराधी बन गई। बस इतनी ही तसल्ली थी कि अभी भी  वह कमाकर अपने बच्चों को पाल सकती थी।

रात हुई और घर में दोनों बच्चे और मां ही अकेले थे। रश्मि अकेले बालकनी में बैठी तारों को देख रही थी। देखने में शांत लग रही थी पर मन में बवंडर चल रहा था।

बेटा और बेटी दोनों आए और प्यार से उसे उठाकर सोने के लिए ले जाने लगे। अचानक वह फूट-फूट कर रोने लगी। बच्चे उसे चुप कराने का प्रयास करने लगे।

छोटी बच्ची की तरह से उनसे चिपक कर वह पूछने लगी, “तुम्हें भी मेरी गलती लगती है?”

बच्चे छोटे थे पर इतना जानते थे कि मां ने हमेशा कर्तव्य निभाया है। बेटा बोला, “आपने क्या गलती की है?”

बेटी ज्यादा समझदार थी वह मां के आंसू पोंछकर बोली, “मम्मी पापा के जाने का हमें बहुत दु:ख है पर इस बात का और भी ज्यादा दु:ख है कि जब वह थे तब भी उन्होंने हमारे लिए कोई जिम्मेदारी नहीं निभाई। आज आपकी वजह से ही हम कुछ बनने के लिए तैयार हो रहे हैं। आपकी कोई गलती नहीं है।”

रश्मि को अंधेरे में आशा की किरण दिखाई दे गई। बस अब उसे संसार की चिंता नहीं थी। वह अपने बच्चों की निगाह में गुनहगार नहीं थी। ससुराल वाले या पड़ोसी कुछ भी कहे उसे चिंता नहीं थी।

मन ही मन वह सुरेश से बोली, “निर्मोही तुमने मुझे अकेला भी किया और दोषी भी बना दिया। एक बार भी पति और पिता होने का फर्ज निभाने के संबंध में नहीं सोचा, परंतु मेरे बच्चों ने मुझे दुनिया की सबसे बड़ी खुशी दे दी। आज से मैं खुद को तुम्हारी पत्नी नहीं मानती अब मैं केवल माँ हूँ।”

दोनों बच्चों के साथ लेट कर ना जाने कितने दिन से जलती आंखों को बंद करके वह सोने का प्रयास करने लगी।

विशेष नोट : 

समाज में यह देखा गया है कि पत्नी द्वारा आत्महत्या किए जाने पर सब सोचते हैं कि बहुत जल्दी घबरा कर प्राण दे दिए और पति द्वारा आत्महत्या किए जाने पर ज़्यादातर सबको यही लगता है कि पत्नी के व्यवहार की वजह से आत्महत्या की। कोई पत्नी कभी नहीं चाहेगी कि पति आत्महत्या करे परंतु कुछ कारणों की वजह से कई पुरुष आत्महत्या कर लेते हैं और कहीं ना कहीं सब पत्नी को दोषी मान लेते हैं। आपका क्या सोचना है इस बारे में, मुझे कमैंट्स में ज़रूर बताएं।

मूल चित्र : Still from Short Film Anamika/Pocket Films,YouTube

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