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सिर्फ तुम नहीं, मैं भी तो अलग हूँ…

मुझे याद है उनके आने के पहले लड़कों में भगदड़ सी मच जाती। कुछ बाथरूम में छिपने दौड़ते, कुछ उपर वाली सीट पर सोने का बहाना करते...

मुझे याद है उनके आने के पहले लड़कों में भगदड़ सी मच जाती। कुछ बाथरूम में छिपने दौड़ते, कुछ उपर वाली सीट पर सोने का बहाना करते…

हमें बचपन से भेद करना सिखाया जाता है। हम उसी भाव को सीख बड़े होते हैं और उसी को सत्य मान जीने लगते हैं। अब इन सबसे कुछ अलग दिखें तो ‘अजीब-अप्राकृतिक-अलग‘ वाली टिप्पणी दें अनदेखा कर देते हैं।

मैंने भी यही सीखा था, यह लड़का है और यह लड़की… और इसके आगे और कुछ नहीं। और जो अगर दिखे इसके बाद, तो वह सब ग़लत है।

आप जिसे सत्य मान बचपन से युवा होते हैं, अचानक कुछ लोग कहे कि स्त्री-पुरुष के भेद से आगे भी दुनिया है…ऐसे तनिक लोगों की बातों को मैंने भी झटक दिया था आप सब की तरह।

“मुझे सब पता है!” कह शायद आंखें घुमा चल देती थी मैं भी।

आते-जाते ट्रैफिक सिग्नल पर जो गाड़ी रुक जाए, मैं गिनती गिनने लगती। और जो ‘उनके’ पास आने से पहले गाड़ी निकल ले, ‘बाल-बाल’ बची वाला एहसास होता।

कभी एक-आध बार रात के अंधियारे में सोचती जरूर थी, ‘वो सच में अलग है, है तो कैसे’, और ‘जो जीवन उन्होंने खुद नहीं चुना उसके लिए उनसे ऐसा नीच बर्ताव क्यों?’

भोर होते ही रात की जिज्ञासू मैं, डरपोक मैं में वापस ढल जाती।

उनसे बात करने कि इच्छा तो कई दफ़ा हुई, पर ‘लोग क्या कहेंगे’ इससे ज्यादा डरती थी। बस दूर-दूर से उन्हें निहारती थी।

कई यादों में से ये दो किस्से हैं जिसने मेरी सोच पर दस्तक दी थी जिससे ‘समान है सब’ सहज स्वीकार करने का हौसला मिला।

तो इंजिनियरिंग के दिनों में जब हम छुट्टी में घर को आते तो टोलियां बनती। हम सब एक शहर-राज्य वाले छात्र-छात्राएं एक ही ट्रेन की टिकट बनवाते। मध्य रास्ते के बाद एक खास स्टेशन पर बड़ी संख्या में किन्नर आते, हर डब्बे में चढ़ते और पैसे मांगते।

मुझे याद है उनके आने के पहले लड़कों में भगदड़ सी मच जाती। कुछ बाथरूम में छिपने दौड़ते, कुछ उपर वाली सीट पर सोने का बहाना करते, और कुछ हमारे बगल में बैठ जाते।

बिडंबना लगती मुझे कि जिन लड़कियों को आमतौर पर पुरुष-लड़को से डर लगता उन्हीं के बगल में उस वक्त वह आश्रय ढ़ूढते। कहते हैं किन्नर लड़कियों को तंग नहीं करती क्योंकि वो‌ उनसे अपनत्व की आशा रखतीं हैं। उन्हें अपने जैसा मानती है।

तो उसी एक यात्रा के दौरान एक किन्नर मेरे सामने आ खड़ी हुई और मेरे बगल में बैठे लड़के से पैसे मांगने लगी। उसकी तालियों की थपकी तेज हो रही थी। मैंने आवेग में बैग से जो नोट हाथ लगा निकाल कर उसकी तरफ बढ़ा दिया। एक दस का नोट था। तब दस रुपए बहुत होते थे। फिर भी ज्यादा न सोच मैंने हड़बड़ी में नोट उसे दे दिया।

हाथ आगे, नजरें नीची। वो सामने आई, पैसे लिए और आशीर्वाद स्वरूप हाथ सर पर रख दिया। मैं सकपका गई। आंखें उठा उपर देखा तो उसने थैंक्यू कहकर मुस्कुरा दिया था।

मैं जो इन लोगों को हेय दृष्टि से देखती थी, उस दिन उसकी उस मुस्कान ने मन ग्लानि से भर दिया। शर्म सी आ गई थी खुद पर। बदलते वक्त के साथ पुरानी घिसी-पिटी पट्टी को उतारने का सिलसिला शुरू हुआ। अब ऐसा नहीं कहूंगी कि वो पल क्रांतिकारी था-और सब पलक झपकते बदल गया। मन बदल रहा था पर झिझक मिटी नहीं थी। पर इतना जरूर था, मैं बदल रही थी।

उसके कुछ साल बाद एक ट्रेनिंग के सिलसिले मैं मुंबई में थी। मलाड स्टेशन के बाहर खड़ी एक रिक्शे का इंतजार कर रही थी। शाम का वक्त और मुसलाधार बारिश। तभी बगल से एक ओटो जाता दिखा। हाथ देने पर भी नहीं रुका। सामने से गुजर ही रहा था ऑटो कि मेरी नज़र चक्के से सटते-हटते उस चंपई पल्लू पर गई। मैंने चीख कर कहा, “आपकी साड़ी, पल्लू चक्के में फंस जाएगा।”

वो झुकी, पल्लू समेटा और मुड़ कर चिल्लाई, “थैंक्यू जी”।

वो मुसकाई और बाय किया। ऑटो पानी में सरपट दौड़ती निकल गई। वो किन्नर और उसकी मुस्कान, दोनों बेहद खूबसूरत थी। उस रोज़ मैं देर घर शिकायती पुड़िया नहीं मुस्काती चिड़िया बन पहुंची थी।

अब आप सोचेंगे कि एकांतवास का इस बात से क्या लेना देना। तो उस रोज़ बदन दर्द से मन रोआसू हो गया था। लग रहा था, अब बस। तो उसका फोन आया। ये वही सखी है जिसने मुझे अपना सच बताने लायक समझा और साझा किया। यह भीषण अंतर्द्वंद्व है जब आपका बाह्य और अंतर्मन एकांकी नहीं होता। और इस तकलीफ में समाजिक तिरस्कार का अलग भय।

उससे बात कर बहुत हौसला मिला। कमाल की पौज़िटीव इंसा है वो। फोन रखते-रखते तकलीफ बादलों समान हल्की हो गई थी।

हम सब को उसी ऊपरवाले ने रचा है। हां ढांचा अलग-अलग रखा है। आप खुले मन से सबको समझें। अगर माता-पिता है तो प्रकृति की विविधता से अवगत कराएं अपने बच्चों को। क्या फायदा अगर ब्रह्मांड में केवल हम ही हो…दो जेन्डर्स (स्त्री-पुरुष)। खाना बदोश मन‌ को समझाएं और सबको अपनाने योग्य बनाएं।

और जहां तक अलग की बात है, तो अलग फिर हम भी तो हैं उनसे। बहुत बड़ा उदार मन रखने की जरूरत नहीं कि उनकी मदद करें उनके लिए लड़ें। यह उनकी लड़ाई है और वो अपना हक ले ही लेंगे। हमें तो बस बिना भेद किए समान और सम्मानिए समझना है। मन से, वक्तव्य से।

कुछ नफरत बांटने वाले रहेंगे
कुछ संशय करने वाले,
कुछ अविश्वासी भी मिलेंगे
कुछ हेय दृष्टि से परखने वाले,
और कुछ रह जाएंगे तुम्हारे-मेरे जैसे
इन सब को झुठलाने के लिए।

मूल चित्र: Aaj tak Short film ‘Others’ via YouTube 

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Shilpee Prasad

A space tech lover, engineer, researcher, an advocate of equal rights, homemaker, mother, blogger, writer and an avid reader. I write to acknowledge my feelings. read more...

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