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मैं यह बात बिल्कुल ही नहीं जानता था कि अरूणिमा मैम के. शारदामणि की बेटी हैं जिनकी किताबों के संदर्भ मैं नोट्स के बतौर लिखा करता था।
पत्रकारिता से एम.ए. करने के दौरान जब पेशेवर पत्रकारिता के गुण सीख और समझ रहा था, जब कभी हमारी क्लास नहीं होती थी तो मैं अक्सर जेंडर स्टडीज़ की क्लास में बैठ जाता। एम.ए. खत्म करने के बाद मैंने जेंडर स्टडीज से एम.फिल करने का मन बनाया।
तब सबसे पहली सलाह मुझे सीनियरों ने यही दिया कि भारतीय स्त्री विमर्श के सामाजिक गहराई को समझने के लिए पांच महिला विदुषीयों से शुरुआत करो। अगर सही शुरुआत करनी है तो- लीला दूबे, नीरा देसाई, लतिका सरकार, रामेश्र्वरी वर्मा और के. शारदामणि जैसी विदुषी महिलाओं ने मिलकर भारतीय स्त्री विमर्श को गंभीर अकादमिक धरातल प्रदान किया उसको पढ़ो, जिसका आधार गंभीर समाजशास्त्रीय अध्यन होने के साथ-साथ एन्थोपॉलिजिकल भी था।
इसके बाद लाईब्रेरियों में किताबें छांटते वक्त या किसी लेख को पढ़ते वक्त इन विदुषियों के रिफ्रेंस तलाश करके नोट करना और किताबों की तलाश करना मेरी पसंदीदा शगल बन गया।
पिछले दिनों इन महिला विदुषियों में के.शारदामणि (1928-2021) के मृत्यु की सूचना मिली, वह 26 मई एक भरपूर और कई मामलों में सार्थक जीवन जीकर चली गई। मेरे ज़हन में के. शारदामणि के तमाम रिफरेंस ताजा होने लगे जिनकों मैं पता नहीं किन-किन किताबों से जमा किया करता था। जिनको जमा करते-करते पीएचडी करने जेएनयू पहुंचा और मेरी सुपरवाइज़र बनीं के. शारदामणि के बेटी जी, अरूणिमा।
मैं यह बात बिल्कुल ही नहीं जानता था कि अरूणिमा मैम उनकी बेटी हैं जिनकी किताबों के संदर्भ में नोट्स के बतौर लिखा करता था। IAWS कान्फ्रेस के दौरान एक मित्र ने बताया कि “तुम्हारे गाइड की माँ के. शारदामणि भी आई हुई हैं, तुम मिले हो उनसे?”
जेएनयू में मेरी सहपाठी रही हमीदा के साथ मैं उनसे मिलने पहुंचा और अपना परिचय दिया। उन्होंने बगल में बैठने को कहा और फिर हम किस विषय पर काम कर रहे है विषय के प्रति हमारा नज़रिया क्या है क्या-क्या पढ़ा है, रिसर्च करने की योजनाओं के बारे में पूछा और बताती रही किन-किन चीजों का ध्यान रखना जरूरी है जिसके बारे में हम पहले सोचते नहीं है।
के. शारदामणि से उस मुलाकात के बाद मैंने उनकी किताबों की तलाश शुरू कर दी जिनका मिलना दिल्ली के लाईब्रेरी में मुश्किल नहीं था। सबले पहले मैंने उनकी चर्चित किताब “होमो हायरार्किकस” की तलाश की जिसको उन्होंने लुई डुमों के शोध निर्देशन में लिखा था। उनका यह काम पुलाया जाति के लोगों के सामाजिक स्थिति पर था जो “इमरजेंस आंफ ए स्लेव कास्ट: पुलायाज ऑफ़ केरला” शीर्षक से सबसे पहले प्रकाशित हुआ था।
उसके बाद उनकी अन्य किताबें “मैट्रिलिनी ट्रांसफार्म्ड: फैमली”, “लां एंड आइडियोलांजी इन ट्वेटीएथ सेंचुरी केरला”, “फिलिग र राइस बांल:वीमन इन पैडी कल्टीवेशन”, “डिवाइटेड पुअर: ए स्टडी आंफ केरला विलेज” के बारे में भी जानकारी मिली। उनकी सारी किताबें अभी तक मैं नहीं पढ़ पाया हूँ।
परंतु, जितना मैंने उनको पढ़ा है उस आधार पर यह कह सकता हूँ कि अगर केरल के समाज में महिलाओं खासकर दलित महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थिति के बारे में जानना-समझना है तो के. शारदामणि के किताबें मील का पत्थर है।
केरल में जमीनों पर अधिकार और जमीनों के साथ जातियों के संबंध के तमाम उतार-चढ़ाव का मूल्यांकन उनके शोधों में मिलता है। उनके काम जमीन, जाति और श्रम के साथ महिलाओं के संबंध का विश्लेषणात्मक रोशनी ही नहीं डालते हैं बल्कि महिलाओं पर इसके प्रभाव की व्याख्या भी प्रस्तुत करते हैं।
“फिलिंग द राइस बाउल: वीमन इन पैडी कल्टीवेशन” यह किताब मुझे लाईब्रेरी में जब भी मिलती मैं एक कोने में लेकर पढ़ने बैठ जाता, यह किताब जितना भी पढ़ सका (क्योंकि एक दिन में यह किताब खत्म नहीं हो सकती है और हर बार लाईब्रेरी में यह किताब हाथ नहीं लग पाती थी।)
उससे लगता है कि के. शारदामणि इस किताब को लिखते समय महिलाओं के कृषि कार्य को मान्यता, उसके स्वास्थ्य और राज्य का महिलाओं के प्रति कल्याणकारी व्यवहार के प्रति बहुत गहराई तक सोच रही थी। साथ ही साथ खेती-बाड़ी में नए प्रयोगों से महिलाओं के आजीविका पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में।
अरुणिमा मैम से जब भी के. शारदामणि के बारे में पूछता तो वह उनके बढ़ते उम्र और उसके साथ जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में बात करती। बढ़ती उम्र के बाद भी उनके पढ़ने और काम करने की इच्छा के बारे में बताती और वो हम लोगों याद करती हैं, इसके बारे में बताती।
के. शारदामणि के व्यक्तिगत जीवन के बारे में उनकी शिक्षा-दीक्षा या वो किन संस्थानों में काम करती रहीं, यह जानने की इच्छा मेरे मन में हुई ही नहीं। उनके लिखे कामों का संसार मेरे सामने इतना बड़ा रहा कि इस पक्ष के बारे में सोचने का मौका मुझे मिला ही नहीं। वो अपने लेखकीय कर्म से हमेशा मेरे सामने एक मार्गदर्शक के तरह खड़ी रहीं।
आज उनके जाने के बाद महिलाओं के जीवन में बेहतरी के उम्मीद में उनके अकादमिक काम, लेखकीय कर्म और सामाजिक जीवन देखता हूँ। तो लगता है एक खुदमुख्तार मूल्क में महिलाओं के लिए नई उम्मीदों का सपना देखने के लिए जिस सामाजिक सच्चाई को जानना बेहद जरूरी था वह काम के. शारदामणि ने किया।
भारत में महिलाओं का जीवन जाति, लिंग, श्रम और परिवारों में किन-किन कारणों से प्रभावित होता रहा है इसके बारे में उनका अध्ययन हमेशा याद किया जाता रहेगा। उनका जाना हम जैसे रिसर्चरों के लिए व्यक्तिगत है पर उनका काम हमलोगों के लिए सही मार्गदर्शन हमेशा रहेगा।
मूल चित्र: By author
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