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बहु, मैं जुबां की तीखी ज़रूर हूँ लेकिन…

पहले ही घर का काम क्या कम होता था, जो अब ये नए चोंचले? सारा दिन तेरे बेटे को संभालो, घर के काम देखो, बुढ़ापे में मैं क्या क्या करूँ?

पहले ही घर का काम क्या कम होता था, जो अब ये नए चोंचले? सारा दिन तेरे बेटे को संभालो, घर के काम देखो, बुढ़ापे में मैं क्या क्या करूँ?

“अगले मरीज़ को बुलाइये।”

“जी आपकी प्रेगनेंसी नॉर्मल है, आप घबराइए नहीं।”

“अभी थोड़ा समय लगेगा, आप बाहर वेट कर लीजिए।”

“आपकी जांच की रिपोर्ट कल तक आ जाएँगी, फिर आकर दिखा दीजिएगा।”

“आज मरीज़ ज़्यादा हैं तो, थोड़ा अधिक समय रुकना पड़ेगा।”

यह दिनचर्या है, एक प्राइवेट हस्पताल में काम करने वाली रूपा की। कभी सीनियर स्टाफ की डांट तो कभी मरीजों की नाराज़गी, कभी ओवरटाइम तो कभी इमरजेंसी केस। जल्दी जल्दी सब काम ख़त्म करके घर पहुँची तो 6 साल का बेटा आकर लिपट गया।

“कैसा है तू? दादी को ज़्यादा तंग तो नहीं किया।”

“तंग क्यों नहीं करेगा? तुझपे ही तो गया है।” शांति जी ने तंज कसा।

अपनी सास को जवाब देने की रूपा की आदत नहीं थी, सो चुपचाप रात के खाने की तैयारी में लग गई। सब खाना खाने बैठे ही थे कि टीवी पर खबर नज़र आई लॉकडाउन की। रूपा का निवाला तो हाथ में ही रह गया। सोचने लगी इसका मतलब बीमारी बहुत फ़ैल गई है। क्योंकि मुलभूत सुविधाएं जारी थीं, तो रूपा का काम तो वैसे ही चलना था। लेकिन अपने छोटे बच्चे और बुज़ुर्ग सास ससुर को लेकर उसे चिंता होने लगी।

खैर, जैसे तैसे नए माहौल में ढलने की कोशिश होने लगी। हस्पताल से आते ही सीधे गुसलखाने में जाती और पहले स्नान करती। बाहर से आने वाली हर चीज़ को पहले अच्छे से धोया जाता और फिर प्रयोग में लाया जाता। हस्पताल में भी सारी सावधानियां बरतनी होती। गर्मी बढ़ती जा रही थी और पी.पी.ई. किट में दिन भर काम करना बहुत थकाने वाला होता था।

शांति जी भी चिड़चिड़ी रहने लगी, “पहले ही घर का काम क्या कम होता था, जो अब ये नए चोंचले। तू तो निकल जाती है सुबह सुबह, सारा दिन तेरे बेटे को संभालो, घर के काम देखो, बुढ़ापे में मैं क्या क्या करूँ?”

कुछ दिन इसी तरह बीत गए और सबको नए तरीके से काम करने की थोड़ी आदत हो गई। एक शाम जब रूपा घर पहुँची तो वहाँ के हालात देखकर उसके होश उड़ गए। आधे से ज़्यादा सामान बाहर पड़ा हुआ था। शांति जी पोते को अपनी बाँहों में जकड़े, हतप्रभ खड़ी थी। और ससुर दीनकांत जी ज़मीन पर बदहवास बैठे थे। रूपा को कुछ समझ नहीं आया, नज़दीक आई तो शांति जी ने सारा वृतांत सुनाया।

“थोड़ी देर पहले मकान मालिक आया था। कहने लगा तुम्हारी बहु हस्पताल में काम करती है, सारी कॉलोनी में बीमारी फैला देगी। हम नहीं रखेंगे तुम्हें अपने मकान में, निकलो यहाँ से। हमने थोड़ा विरोध जताया तो सामान उठाकर बाहर फेंक दिया और हमें भी धक्के दे दिए।”

रूपा तुरंत जाकर कॉलोनी के सेक्रेटरी और मकान मालिक को बुला लाई और कहा, “हमें चार साल हो गए यहाँ रहते हुए, हर महीने किराया समय पर देते हैं। बीमारी के लिए मैं हर ज़रूरी बचाव कर रही हूँ। आप ऐसा नहीं कर सकते।”

सेक्रेटरी ने असमर्थता जताई कि उनका मकान है तो वो फैसला ले सकते हैं। लेकिन रूपा हार मानने वालों में से नहीं थी। पूरी दृढ़ता से बोली, “कानून नाम की भी कोई चीज़ होती है। अगर मकान खाली करवाना ही है तो कम से कम एक महीने का अग्रिम नोटिस दीजिये। आपने क्या सोच कर हमारा सामान बाहर फेंक दिया? बुज़ुर्ग और बच्चे तक का लिहाज़ भूल गए आप। मैं अभी पुलिस को फ़ोन करती हूँ।”

कुछ पड़ोसियों ने भी रूपा का साथ दिया और पुलिस के नाम से मकान मालिक सकपका गया। उसने अपनी गलती स्वीकार कर ली। पड़ोसियों की मदद से रूपा ने अपना सामान वापस अंदर रखा, सबको खाना खिलाया और बेटे को सुलाया। लेकिन उसकी खुद की आँखों से आज नींद गायब थी।

आठ साल पहले उसकी शादी नरेन से हुई थी। नरेन एक बड़े हस्पताल में मैनेजर था और दीनकांत जी का अपना व्यवसाय। सासु माँ शांति जी अपने नाम के विपरीत बहुत तेज़ ज़ुबान की थी। गरीब परिवार और बिन भाई की होने के कारण वे हमेशा ही रूपा को ताने मारती। थोड़े से भी पैसे खर्च होने पर या नरेन के साथ कहीं बाहर जाने पर वे क्लेश कर देतीं। पर रूपा हमेशा बात को समझदारी से ख़त्म करतीं। वो परिवार को बनाये रखने में विश्वास रखती। और फिर दीनकांत जी तो हमेशा बहु की तरफदारी ही करते।

यादों में खोए हुए रूपा को वो चार साल पहले का  दर्दनाक दिन याद आ गया जिसने उसकी हँसती खेलती ज़िन्दगी को एक कड़े संघर्ष में बदल दिया था। नरेन और दीनकांत जी किसी रिश्तेदार के यहाँ से लौट रहे थे। कार का भयंकर एक्सीडेंट हुआ। नरेन तो वहीं मृत्यु को प्राप्त हो गया और दीनकांत जी को घायल अवस्था में हस्पताल लाया गया। इलाज में सारी जमापूंजी ख़त्म हो गई। उनकी जान तो बच गई लेकिन बाकी ज़िन्दगी के लिए व्हील चेयर के अधीन हो गए।

दो साल का बच्चा गोद में, रूपा का तो पूरा संसार ही उजड़ गया था। अपाहिज हो जाने पर ससुर जी का व्यवसाय भी डूब गया। आजीविका का कोई साधन नहीं बचा था। कुछ दिन बाद अस्पताल वालों ने नौकरी देने की पेशकश की। रूपा को अस्पताल में ही एक नौकरी ही मिल गयी थी। जो मकान नरेन बनवा रहा था, वो भी पैसों की कमी के कारण अधूरा ही पड़ा था। अब पूरा परिवार इस छोटे से किराये के मकान में रह रहा था। बेटे की पढ़ाई, घर खर्च और मकान का किराया, सब रूपा की छोटी सी तनख्वाह से चलता था।

किसी ने सिर पर प्यार से हाथ फेरा तो रूपा वर्तमान में लौट आई। शांति जी सामने खड़ी थी, “सोई नहीं अब तक? सुबह जल्दी उठकर काम पर भी तो जाना है। मैं जानती हूँ आज की घटना से तू आहत है। पर समय एक सा नहीं रहता। अच्छा समय नहीं रहा तो बुरा भी नहीं रहेगा। तू तो एक योद्धा है, नरेन के जाने के बाद तूने ही तो इस घर को संभाला है। अपने सुख से पहले परिवार के हित और ज़िम्मेदारी को सर्वोपरि रखा है। हाँ! मैं स्वभाव की थोड़ी तीखी हूँ पर क्या मुझे तेरी मेहनत दिखाई नहीं देती। अब ज़्यादा तनाव मत ले और सो जा।”

“नहीं अम्मा! असली योद्धा तो आप हैं। आप न होती तो मैं कुछ नहीं कर पाती। बेटे को खोने का ग़म और पति की ऐसी हालत, उस पर पूरा दिन पोते का भी ख़याल रखना। इस उम्र में जहाँ आपको आराम करना चाहिए, आपने घर की ज़िम्मेदारी को अपने कंधों पर उठाया हुआ है। आप ही तो मेरी प्रेरणा हैं।”

“ठीक है। ठीक है, अब ज़्यादा मस्का मत लगा।” घर की दोनों महिलाएं सो गईं, सुबह उठकर फिर ज़िन्दगी की एक नई जंग लड़ने के लिए।

नोट : मेरे पड़ोस में रहने वाली एक सफाई कर्मचारी के जीवन से प्रेरित है मेरी कहानी। इस महामारी के दौर में हम सभी ने बहुत कुछ खोया। डॉक्टर से लेकर सफाई कर्मचारी तक, पुलिस से लेकर टीचर तक, किराना दुकानदार से लेकर डिलीवरी बॉय तक, सब अपने अपने हिस्से की लड़ाई लड़ रहे हैं।

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मूल चित्र : Still from short film Aaichi Jai, YouTube

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DrNeeru Mittal

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