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मेरे पति मुझे पागल साबित करना चाहते हैं…

दरवाज़े पर मोहिनी जी खड़ी नज़र आईं।मेरे दिमाग़ ने मुझे एक बार चेताया कि मैं दरवाज़ा न खोलूँ परन्तु फिर मुझे तुरन्त ही पतिदेव की बात याद आ गई।

दरवाज़े पर मोहिनी जी खड़ी नज़र आईं। मेरे दिमाग़ ने मुझे एक बार चेताया कि मैं दरवाज़ा न खोलूँ परन्तु फिर मुझे तुरन्त ही पतिदेव की बात याद आ गई।

यह उन दिनों की बात है जब मेरी नई नई शादी हुई थी। उस समय मेरी उम्र कम थी तो आस पास रहने वाली पडोसनें मुझे आंटी टाइप की लगती थीं। उनकी बातें भी वैसी ही हुआ करती थीं, मसलन कामवालियों के चर्चे, बच्चों की शरारतें या फिर दूसरी औरतों की चुग़लियाँ। चूँकि मुझे इन बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए मैं उनसे भरसक दूर रहने का प्रयास ही करती थी ।

इन्हीं पड़ोसनों में से एक थीं हमारे घर की सड़क के दूसरे छोर पर रहने वाली मोहिनी जी। उनके पति चिकित्सालय में मनोचिकित्सक (जिन्हें उन दिनों पागलों का डॉक्टर कहा जाता था) थे। मोहल्ले में सभी लोग मोहिनी जी को डक्टराइन कहा करते थे क्योंकि उनके पति डॉक्टर थे। 

एक दिन जब मैं कुछ सामान लेकर लौट रही थी तो मेरे घर के सामने रहने वाली पड़ोसन ने मुझे सावधान करते हुए कहा, “देखो, वो जो डक्टराइन हैं न…वो पूरी पागल हैं। वो अपने पति के अस्पताल चले जाने के बाद किसी के भी घर में घुस जाती हैं और फिर वापस जाने का नाम ही नहीं लेतीं। इतनी उल्टी सीधी बिना सिर पैर के बातें करतीं हैं कि पूछो मत।

यदि उन्हें अपने घर से जाने के लिए कहो तो नाराज़ हो जाती हैं और फिर ग़ुस्से में तोड़ फोड़ करने लगती हैं, कभी भी किसी को भी मारने पीटने लगती हैं। हम सब तो उनका स्वभाव जानते हैं इसलिए उनके आने पर हम घर का दरवाज़ा ही नहीं खोलते। अब तुम यहाँ नई आई हो, इसलिए तुम्हें सावधान कर रही हूँ।”

“पर उनके पति तो डॉक्टर हैं, क्या वे उनका इलाज नहीं करते?” मैंने अपनी उत्सुकता में सवाल किया। 

“इलाज तो चल ही रहा होगा। परन्तु मोहिनी जी ऐसी ही हैं। तुम्हें सावधान करना मेरा काम था, सो मैंने किया। तुम नई आई हो न, देखना वे ज़रूर किसी दिन तुम्हारे घर पर धावा बोलेंगी”, पड़ोसन ने बेरुख़ी से जवाब दिया और अपने घर के भीतर जाकर दरवाज़ा ज़ोर से मेरे मुँह पर ही बंद कर दिया। 

मेरी पड़ोसन ने मोहिनी जी के बारे में ऐसा ख़ाका खींचा था कि मेरे मन में एक अनजाना सा डर बैठ गया। शाम को जब मेरे पतिदेव ऑफ़िस से आए तो मैंने उन्हें डक्टराइन के बारे में बताया।

पतिदेव ने मुझे समझाते हुए कहा, “दूसरों की बातों में आकर कभी भी किसी के बारे में कोई राय बनाना ठीक नहीं, बताओ तुम डर भी रही हो तो किससे, किसी औरत से? क्या तुम डरपोक हो? एक मनोचिकित्सक की पत्नी क्या ऐसी दिमाग़ी मरीज़ हो सकती है? ख़ुद ही सोचो।” 

मुझे भी पतिदेव की बात में दम लगा और मन के कोने में दुबका अनजाना सा डर काफ़ूर हो गया। 

मुश्किल से चार पाँच दिन ही बीते होंगे कि मेरे घर की डोरबेल बजी । मैंने आई होल से देखा तो सामने डाक्टरनी यानी कि मोहिनी जी खड़ी नज़र आईं। मेरे दिमाग़ ने मुझे एक बार चेताया कि मैं दरवाज़ा न खोलूँ परन्तु फिर मुझे तुरन्त ही पतिदेव की बात याद आ गई। 

मैंने दरवाज़ा खोल दिया और मुस्कुराते हुए बोली, “नमस्ते! आइये, बैठिये।” 

लगभग पैंतीस चालीस की उम्र, गोरा रंग, और थोड़ी स्थूल सी काया। चेहरे पर अलग सी दिखती चिपटी सी नाक, चौड़े से माथे पर बड़ी सी बिंदी और बेतरतीब से बालों का जूड़ा। बड़े बड़े फूलों वाली सिंथेटिक साड़ी में किसी ग्रामीण महिला सा व्यक्तित्व। उनके साथ ही उनके बालों में लगे चमेली के तेल की सुगंध (या कहूँ दुर्गन्ध) का भभका भी घर के भीतर घुस आया। 

वे भीतर आकर सोफ़े पर धँसते हुए बोलीं, “हमरा नाम मोहिनी है। हम, वो आख़िरी वाले घर में रहती हूँ। हमरे साहब हियाँ हस्पताले में डागदर हैं। (यहाँ अस्पताल में डॉक्टर हैं)” 

“जी मुझे मालूम है।” मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया और मन ही मन सोचने लगी की अब इन आंटी से मैं क्या और किस विषय पर बातें करूँ? 

तभी उन्होंने मेरी तरफ़ एक अत्प्रत्याशित सा प्रश्न उछाला, “तुम्हरी नई नई सादी (शादी) है तो तुम्हरे पति तो बहुत पिरेम ( प्रेम) करते होइंगे? हमरे डागदर साहब तो हमसे पिरेम तो छोड़ो बात तक नहीं करते।”

मुझे कोई उत्तर न सूझा और मैं बस हल्के से मुस्कुरा दी। वे लगातार बोलती रहीं, “हमरे घर में कोई हमसे बात नहीं करता, बच्चे भी नहीं।नौकरानी से भी बदतर जिन्दगी है हमरा, कम से कम नौकरानी को तनख़्वाह तो मिलता है हमको तो वो भी नहीं। चूड़ी बिन्दी ख़रीदने के लिए भी केतना (कितना) जतन करना पड़ता है। कुछ भी बोलो तो डागदर साहब घर से निकाल देने का धमकी देते हैं।” 

“आपके बच्चे कुछ नहीं कहते? कितने बड़े हैं आपके बच्चे?” उनकी आँखों में झिलमिलाते आँसुओं को देख मैंने पूछा। 

“लड़का चौदह साल का और लड़की सात साल की। हमरा लड़का तो अपने पापा की ही भासा (भाषा) बोलता है। कहता है, मम्मी तुम पागल हो, गाँव की गँवार औरत हो, तुम्हारे पास दिमाग़ नाम की चीज़ नहीं है, तुमसे शादी करके पापा की जिन्दगी ख़राब हो गई है, तुम कहीं साथ ले जाने लायक़ नहीं हो। तुम्हीं बताओ, क्या हम पागल लगती हैं?” 

अब मुझे उनसे थोड़ी थोड़ी सहानुभूति होने लगी थी। मैंने उनके पास बैठते हुए कहा, “नहीं, आप पागल नहीं हैं। परन्तु यह बताइये, यहाँ सभी लोग आपको पागल क्यों समझते हैं?” 

“यह सब डागदर साहब की चाल है, वे ही हमको पागल साबित करना चाहते हैं।” उन्होंने आँसू पोंछते हुए कहा। 

“पर वे तो स्वयं दिमाग़ के डॉक्टर हैं, वे आपको पागल कहेंगे तो लोग कैसे विश्वास करेंगे? सभी को यही लगेगा कि जो अपनी पत्नी का इलाज नहीं कर पा रहा है वह दूसरों का इलाज कैसे करेगा? ऐसे तो उनकी स्वयं की विश्वसनीयता ख़त्म हो जायेगी।”

“यही तो मुश्किल है कि कोई हम पर भरोसा नहीं करता। डागदर साहब से हमरा लगन तब हुआ जब हम दस बरस की थीं और डागदर साहब पन्द्रह के। डागदरी तो वे बाद में पढ़े, हम अपने माँ पिता जी की इकलौती संतान हूँ इसलिए उनके मरने के बाद गाँव का सारा ज़मीन जायदाद हमरे नाम हो गया।

अब डागदर साहब को गाँव का ज़मीन बेचकर अपने लिए पटना में क्लीनिक खोलना है। हम ज़मीन नहीं बेच रही, इसीलिए डागदर साहब हमको पागल घोषित कर दिये हैं। शायद ज़मीन बेचने में पागल लोग के साइन की ज़रूरत नहीं पड़ती है। हमको वो पता नहीं कौन सा दवा देते हैं कि कई बार हमको ख़ुद ही पता नहीं चलता कि हम क्या कर रही हैं”, बोलते बोलते उनका गला रुँध गया। 

“परन्तु लोग तो कहते हैं कि आप उनके घरों में जाकर तोड़ फोड़ करती हैं, मारपीट भी करती हैं, इसीलिए लोग आपसे डरते हैं।” मैंने भी उनके समक्ष अपने मन की बात रख दी। 

“हो सकता है कि कभी किसी के उकसावे में हमने ऐसा किया हो। दवाएँ खाने के बाद कई बार हमें कुछ याद नहीं रहता। घर पर रहते हैं तो डागदर साहब या बेटा ज़बरदस्ती दवा खिला देते हैं, इसीलिए मौक़ा मिलते ही हम घर से बाहर चली जाती हैं जिससे दवा खाने से बच जाएँ।”

अब सारा माज़रा आइने की तरह साफ़ हो चला था। मैंने मोहिनी जी के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा, “आप चिन्ता न करें, आपके साथ मैं चलूँगी और अस्पताल में डॉक्टर साहब के ख़िलाफ़ लिखित शिकायत दर्ज कराऊँगी। आप पागल नहीं हैं, आपकी ज़मीन आपके पास ही रहेगी।” 

मेरी बातें सुनकर एक पल को मोहिनी जी आँखों में चमक आई परन्तु अगले ही पल वह चमक पीड़ा में बदल गई। वे धीमी आवाज़ में बोलीं, “यदि हमने शिकायत दर्ज कराई तो डागदर साहब हमको घर से निकाल देँगे, फिर हमरी बेटी का क्या होगा? बेटा तो हाथ से निकल ही गया है, बेटी भी जाएगी। अभी तो हमको उम्मीद है कि बिटिया बड़ी होकर हमरा सहारा बनेगी।” 

“अरे आपके पास तो गाँव की ज़मीन है, उससे आपका गुज़ारा हो जाएगा। आप क्यों जान-बूझकर नर्क झेल रही हैं, ग़लत दवाएँ खा रही हैं, डॉक्टर साहब का अन्याय सह रही हैं?” मैंने युवा जोश में भरकर उन्हें सलाह दी। 

“अभी तुम्हारे बच्चे नहीं हैं न इसलिए तुम ऐसा कह पा रही हो, सोच पा रही हो। अच्छा अब हम चलती हैं, बिटिया स्कूल से आने वाली होगी।” उन्होंने हौले से मेरा हाथ सहलाया। 

“फिर आइयेगा! मुझे आपसे बातें करके अच्छा लगेगा”, मेरी आवाज़ भीग चली थी। मोहिनी जी उठकर चली गईं।

मेरे मन को अनेक प्रश्न बार बार मथते रहे की एक मनोचिकित्सक जिसके पास सभी की मानसिक ग्रंथियों का इलाज है। जो सभी के मन की गिरहें खोलता है, वो अपनी ही पत्नी के प्रति इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? उसे अपनी पत्नी का मानसिक संताप क्यों नहीं दिखता? 

एक औरत, जिसे मालूम है कि दवाएँ देकर उसका मानसिक संतुलन बिगाड़ने का प्रयास हो रहा है, वह घर छोड़ने को तैयार नहीं?

मुझे लगता है प्रश्न भले ही अनेक हों, परन्तु उत्तर सिर्फ़ एक है,  माँ होने की इतनी बड़ी क़ीमत शायद एक औरत ही चुका सकती है, कोई और नहीं। 

नोट : ये इस कहानी का पहला भाग है, मन-मोहिनी (भाग-1) 

कहानी के भाग पढ़ें यहां –

मन मोहिनी का भाग 1 पढ़ें यहां

मन मोहिनी  का भाग 2 पढ़ें यहां 

मन मोहिनी  का भाग 3 पढ़ें यहां 

मन मोहिनी  का भाग 4 पढ़ें यहां 

मन मोहिनी  का भाग 5पढ़ें यहां 

मन मोहिनी  का भाग 6 पढ़ें यहां 

 

 

मूल चित्र: Waghbakri via YouTube(only for representational purpose)

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