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ये घर सिर्फ उनका नहीं तुम्हारा भी है…

यदि उसे ससुराल की आवश्यकता है तो पति और सास को भी तो उसकी आवश्यकता है। उसके बिना भला घर का काम कैसे चलेगा?

यदि उसे ससुराल की आवश्यकता है तो पति और सास को भी तो उसकी आवश्यकता है। उसके बिना भला घर का काम कैसे चलेगा?

रश्मि के पति ऑफिस से लौटे तब उन्होंने देखा कि उनकी दोनों बेटियां खेलने से मैली हुई फ्रॉक पहने, चप्पल एक तरफ उतार कर नंगे पैर आसपास के बच्चों के साथ खेलने में मगन थीं।

उनका घर सरकारी कॉलोनी में था इसलिए हर पद के लोग वहां रहते थे। बच्चों के खेलने के लिए कॉलोनी के बीच में एक ही पार्क था। बड़े अफसरों के स्मार्ट और इंग्लिश बोलने वाले बच्चे तो उस पार्क में खेलने कम ही आते थे। वे तो उस समय किसी हॉबी क्लास में डांस, मयूजिक या खेल सीखने जाते थे।

पार्क में तो ज्यादातर छोटे पद वालों के बच्चे ही खेलते थे। अजय को यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आती थी। वैसे तो अजय एक ऑफिस में क्लर्क थे परंतु अपने घर का रख-रखाव बहुत अच्छी तरह से करना उन्हें अच्छा लगता था।

हमेशा रश्मि के पीछे पड़े रहते थे कि घर को साफ रखो और बच्चों को तमीजदार बनाओ। साफ-सुथरे कपड़े पहन कर अच्छी तरह बाल संवार कर ही बाहर जाएं और जोर-जोर से चीख कर बात करते हुए ना खेलें।

रश्मि पूरी कोशिश करती कि ऐसा ही करें किंतु घर के कामों की वजह से बच्चों पर उतना ध्यान नहीं दे पाती थी और बदले में हर वक्त अजय से कुछ न कुछ सुनती रहती थी।

बेटा बड़ा था उसके मैथ्स और साइंस के लिए कोचिंग लगानी भी जरूरी थी। कोचिंग की फीस जाने लगी तो घर खर्च में कटौती करनी पड़ी और पहली कटौती यही हुई कि कामवाली को हटा दिया गया।

एक बेटा और दो बेटियां थीं। बेटे से उन्हें बहुत आशाएं थी इसलिए उसे प्राइवेट स्कूल में पढ़ाया गया, जिसकी फीस भी ज्यादा थी और सहपाठियों का स्तर भी अच्छा था। बेटे को तो कुछ कीमती सामान दिलाना ही पड़ता था।

बेटियों को सरकारी स्कूल में ही पढ़ाया गया। वहां पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चों के पिता छोटे पद पर थे या अच्छे आर्थिक स्तर वाले नहीं थे। बच्चियां अपने सहपाठियों के साथ ही खेलती थी पर अजय को उन्हें देखकर बहुत गुस्सा आता था और यह गुस्सा रश्मि पर ही निकलता था।

घर में घुसते ही अजय जोर से बोले, “रश्मि अपनी बेटियों को मैं हजारों की भीड़ में भी पहचान सकता हूं क्योंकि यह दोनों सभी बच्चों में सबसे ज्यादा गंवार दिखती हैं।”

पिता को देखते ही दोनों लड़कियां भी डर करके घर में आ चुकी थीं। अजय की मां एक तरफ बैठी सब्जी काट रही थी। वह भी बोली, “बहु मैंने तुमसे दोपहर में ही कहा था कि लड़कियों के कपड़े देख लिया करो। एक की फ्रॉक के बटन  टूटे हैं और दूसरी की फ्रॉक की तुरपाई उधड़ी हुई है।”

अब तो अजय का पारा और ज्यादा चढ़ गया। जैसे तैसे हाथ मुंह धो कर टेबल पर आकर बैठे। रश्मि ने दाल की कचौड़ियां और चाय उनके सामने रख दीं। अजय स्वाद से खाने तो लगे पर कहने लगे, “तुम्हें तो हलवाई गीरी का शौक है इसलिए सारा समय किचन में लगी रहती हो। जरा बच्चों पर भी ध्यान दे लिया करो।”

रश्मि क्या बोलती क्यों कि जब कभी उसने चाय के साथ पापड़, पोहा या लईया चना रख दिया तब अजय और मांजी दोनों ही बड़बडाने लगते, “सुबह से निकले हुए अब घर में आने पर भी ठीक से खाने को भी नहीं मिल सकता।”

रश्मि के मायके का स्तर भी कोई बहुत अच्छा नहीं था और अब तो माता-पिता की भी मृत्यु हो चुकी थी। दो भाई थे पर वे अपना ही खर्चा चला लें यही बहुत था उनसे क्या उम्मीद करती। बस इसीलिए ससुराल में सास और पति दोनों को लगता था कि उससे कैसा  भी व्यवहार कर लिया जाए कुछ नहीं कर सकती।

अजय की महत्वाकांक्षा का अंत नहीं था। कभी-कभी दोनों बच्चियों को भी पढ़ाई को लेकर कुछ ना कुछ सुना देते।

एक उनके मित्र की बेटी दिव्या किसी काम से उनके घर आई। इंग्लिश मीडियम से पढ़ रही वह। उस लड़की के हाव-भाव अजय की बेटियों के मुकाबले ज्यादा सभ्य सुसंस्कृत थे। यही देख कर अजय ने दोनों बेटियों को सुनाना शुरू कर दिया, “उस लड़की को देखो और खुद को देखो कितना अंतर है।”

रश्मि ने आकर कहा, “उसका स्कूल और इनका स्कूल भी तो अलग-अलग हैं।”

अजय को बहाना मिल गया यह कहने का, “अगर रश्मि ठीक से पढ़ लिख कर कहीं नौकरी कर रही होती तो आज उसके घर का स्तर भी अच्छा होता।”

रश्मि इन दो पाटों के बीच में  पिसती पिसती परेशान हो चुकी थी। एक तरफ तो साल भर का एक साथ खरीदा हुआ अनाज साफ करके फटक कर पिसवाना पड़ता, झाड़ू पोछा, चौका बर्तन करना पड़ता, बाजार से सामान लाना पड़ता, बेटियों की फ्रॉक और घर के अन्य कपड़े सिलने पड़ते, सर्दियों में स्वेटर बुनना होता और तब भी आशा थी कि वह पढ़ाई पूरी करके नौकरी भी कर ले।

सास और पति हर बात पर उसका मुकाबला कभी गांव की महिलाओं से तो कभी शहर की महिलाओं से करते रहते। और भाई वैसे तो किसी काम का न था लेकिन कभी मिलने आता तो बहन से कोई विशेष सब्जी बनाने की फरमाइश कर देता क्योंकि वह खाना बहुत अच्छा बनाती थी। उसके जाने के बाद सास के ताने सुनने पड़ते कि तुम्हारे मायके वाले देते लेते तो कुछ है नहीं जब आते हैं खर्च और करा देते हैं।

सास और पति ने रश्मि की यह कमजोरी पकड़ ली थी कि उसे ताने मार कर, गुस्सा दिला कर कोई भी काम कराया जा सकता है। उसकी कभी तारीफ नहीं करनी चाहिए क्योंकि तारीफ करने से वह उस काम को करना बंद कर देगी।

एक दिन बाजार में रश्मि सामान खरीदने गई वहां उसे उसकी पुरानी सहेली वृंदा मिल गई। दोनों बहुत खुश हुई। रश्मि की बिगड़ी हुई सेहत देखकर वृंदा को बहुत दुख हुआ। उसने पूछा, “जीजा जी कैसे हैं तुम लोग तो खूब ठाठ से रहते होंगे क्योंकि उनकी सरकारी नौकरी है।”

रश्मि गहरी सांस लेकर बोली, “आओ चलो चल कर देख लो कितने ठाट से रहती हूं।”

वृंदा सच में उसके साथ आ गई। दो-तीन घंटे रही और सब कुछ समझ गई। जब वह चलने लगी तब रश्मि उसे छोड़ने बाहर तक आई।

उसने रश्मि से कहा, “तुम अपने बच्चों को बड़ा करने के लिए जीवित रहना चाहती हो या नहीं क्योंकि मैंने देखा जीजाजी और मांजी तुम्हें कभी गुस्सा तो कभी जोश दिला कर हर समय काम में लगाए रहते हैं। तुम केवल उतना काम करो जितना तुमसे हो सकता हो।”

रश्मि बोली, “घर तो मेरा ही है इसलिए काम भी मुझे ही करना पड़ेगा कैसे छोड़ दूं?”

वृंदा ने समझाया, “उन लोगों के ताने सुन कर अपनी ताकत से ज्यादा काम मत करो और जरा-जरा सी बात को लेकर परेशान मत हुआ करो। बच्चे तुम दोनों के हैं, इसलिए लड़कियों की पढ़ाई या रहन सहन पर कोई कमेंट होता है तो अगर तुम दोषी हो तो जीजाजी भी उतने ही दोषी हैं।”

वृंदा समझ गई थी कि अजय अपने आर्थिक स्तर को न समझते हुए हीन भावना के कारण कुंठित होकर लगातार रश्मि को प्रताड़ित करके अपनी कुंठा निकालते रहते हैं।

रश्मि सोच में पड़ गई।

वृंदा फिर बोली, “यह भी सोच लो अगर तुम्हें कुछ हो गया तो क्या तुम्हारी बेटियां भली प्रकार से रह सकेंगी? जब तुम्हारे रहते इनका यह हाल है तो तुम्हारे जाने के बाद तो कोई देखने वाला भी नहीं होगा।”

रश्मि सोच कर ही कांप गई कि अगर उसे कुछ हो गया तो बच्चों का क्या होगा?

उसने वृंदा के हाथ दबा कर कहा, “तुम बिल्कुल सच कह रही हो, आज से मैं केवल उतनी ही बात को सुनूंगी जितनी आवश्यक है बाकी सब एक कान से सुनकर दूसरे कान से बाहर निकाल दूंगी।”

वृंदा ठहाका मारकर हंस पड़ी और बोली, “बिल्कुल सही समझी हो।”

गुनगुनाती हुई रश्मि घर में घुसी। अब वह निश्चिंत थी क्योंकि उसे समझ में आ गया था कि जीवन में सब को खुश करना संभव नहीं है। जो नहीं है उसके लिए दुखी क्यों हुआ जाए बल्कि जो है उसी में आनंद खोजना सही है।

उसकी खुद की जिंदगी का महत्व अपने लिए और अपने बच्चों के लिए है इसलिए जितना हो सकता है उतना ही काम करे। ताने सुन कर अपना स्वास्थ्य खराब ना करे।

यदि उसे ससुराल की आवश्यकता है तो पति और सास को भी तो उसकी आवश्यकता है। उसके बिना भला घर का काम कैसे चलेगा?

उसे जिंदगी पहले के समान बोझ नहीं बल्कि सुंदर लग रही थी।

मूल चित्र : Still from Indian Alert Ep 07/Dangal, YouTube

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