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मेरा घर दिखते ही, मेरे पैर में जैसे पंख लग गए हो। मैं भाग कर अपने घर के अंदर गई, मुड़ के देखा की वो कौन थी? वो दूर खड़ी मुस्कुरा रही थी।
मेरा घर दिखते ही, मेरे पैर में जैसे पंख लग गए हो। मैं भाग कर अपने घर के अंदर गई, मुड़ के देखा कि वो कौन थी? वो दूर खड़ी मुस्कुरा रही थी।
सड़क पर मै अकेली चली जा रही थी ऑफिस में कुछ ज्यादा काम आ गया था, निकली तो एक सहकर्मी ने मुझे घर छोड़ने को कहा लेकिन मैंने मना कर दिया।
क्यूँ? बताना जरूरी है? आप नहीं जानते?
एक लड़के के साथ मुहल्ले में किसी ने देख लिया तो? कुछ का कुछ समझ लिया तो? हम लड़कियाँ हैं बहुत सारा जवाब देना पड़ता है समाज को हमें, क्यूँ तो मुझे भी नहीं पता, सदियों से ऐसा ही चला आ रहा है, इसलिए मुझे भी यही करना है।
काम से निकल के एक कैब वाले को रोका और उसमें बेठ गयी। वो कैब ड्राइवर भी अनजान था, मन में अजीब अजीब ख़याल आने लगा। डरती नहीं थी मैं, लेकिन डराया गया था मुझे अनजान व्यक्तियों से, अंधेरे से, अकेलेपन से। किसने डराया? माँ ने, पिता जी ने भी, समाज ने और लड़कियों के साथ होते अत्याचार ने तो हद ही कर दी, मेरे आत्मा तक को डरा दिया।
कुछ पसीने की बूँदे आ गई थी माथे पर लेकिन डर को दिखाना नहीं था, झूठ-मूठ ही फ़ोन पर बात करने लगी ख़ूब हसते हुए, लेकिन जाने क्या गलत था जो कैब ड्राइवर फ्रंट मिरर से मुझे घूरने लगा, बस फ़िर क्या था गायब हो गई हँसी।
तभी गाड़ी अचानक से रुक गई। सुनसान सड़क थी, कुछ थके मादे लोग सोए थे फुटपाथ पर चद्दर को मुंह पर तान जैसे लाशे सो रही थी इर्दगिर्द। ड्राइवर उतरा। कुछ नहीं बोला, फ़िर अचानक से मेरी विंडो पर उसका चेहरा प्रकट हो गया। बड़ी-बड़ी आँखें लाल धारियों से भरी। मैं सहम कर पीछे दुबक गई तभी वो बोल पड़ा, “मैडम गाड़ी खराब हो गई है। यहाँ कोई कैब भी नहीं है, आपको ख़ुद ही आगे जाना होगा।”
गाड़ी खराब हो गई ये शब्द मुझे उस समय अच्छे लगने लगे और वो कैब ड्राइवर देवता तुल्य लगने लगा, “यहाँ से पैदल जाना होगा।” इसकी हिचक गायब हो गई, जैसे उस कैब ड्राइवर ने मेरा वध करने से इंकार कर मुझे जीवनदान दे दिया हो। झट से उतरी, उसे पैसे देकर पैदल आगे बढ़ी, लगभग एक किलोमीटर दूर घर है मेरा।
आज का मौसम कैसा हुए जा रहा था, सुबह से ही रुक-रुक के बारिश ने इस रात को और स्याह बना दिया हो जैसे। चिपचिपी सी सड़क पर पैर जैसे चिपक से रहे हो, बजबजाती हुई नालियों से उठते दुर्गंध मेरे चित को बेचैन किए जा रहे थे। लेकिन ये नालियाँ ही थी जो बता रही थी कि मैं जगी हूँ तुम्हारे साथ बह रही हूँ।
झंझावातों से पेड़ झुके जा रहे थे, बारिश रुक चुकी थी, गीली हवाएं शरीर को बोझिल किए जा रही थी और मैं चली जा रही थी। स्याह अंधेरा मुझे डरा रहा था और इतना कि मेरे ही पदचाप की ध्वनि मेरे कान के परदों को भेद रही थी।
कुछ कदम चली तो अचानक से कुछ परछाइयाँ मेरे पीछे आने लगी, वो बड़ी होती जा रहीं थी। इतनी बड़ी कि मेरे अस्तित्व को शायद निगल जाना चाहती थी। उनकी अट्ठास हँसी मेरी आत्मा को बेचैन किए जा रही थी, मेरा कलेजा मेरे हलक को आ अटका था, होंठ सुख चुके थे जैसे की उनपर नागफ़नी के कटिले झाड़ उग आए हो।
मैंने अपनो चाल को तेज कर दिया, लेकिन पैर सड़क पर ही धसे जा रहे थे। तभी वो सामने से मेरे पास आई, मेरे साथ चुप चाप चलने लगी, वो थोड़ी बिखरी- बिखरी सी थी, कपड़े नहीं थे बदन पर चीथड़े थे वो, चेहरा स्याह था, रोम रोम से जैसे लहू टपक रहा था। लेकिन उसके कदम एक दम सधे थे, विश्वास से भरे थे।
मेरा घर दिखते ही, मेरे पैर में जैसे पंख लग गए हो। मैं भाग कर अपने घर के अंदर गई, मुड़ के देखा की वो कौन थी? वो दूर खड़ी मुस्कुरा रही थी आँखों से अश्रुधारा बह रही थी उसके। और एक करुण क्रंदन सा किया उसने और फ़िर वो अचानक से गायब हो गई।
कौन थी वो? जिसने आज मेरा सर्वस्व लूटने से बचा लिया? शायद वो निर्भया थी। हाँ शायद वही थी।
मैं समझ गई। हमें उस लायक बनना होगा जहां हमें उन सोई हुई लाशों से मदद ना माँगनी पड़े। समाज ऐसे लोगों से भरा पड़ा है जिनकी आँखें मूँद हैं, कान बंद हैं और होंठ सिले हुए हैं। ये जीवित हैं लेकिन लाशों के रूप मे यहाँ वहाँ बस विचर रहे हैं।
दोस्तों, ये कोई कहानी नहीं थी बस मेरे हृदय की वेदना थी, जिसे मैंने पन्ने पर उतार दिया है। एक औरत होने के नाते जाने अनजाने कितने पलों में मै भी भयभीत हुई, लेकिन अब और नहीं।
उस दर्द उस वेदना को हम या आप शायद ना समझ पाएं लेकिन कुछ ईमानदार कोशिश तो करें, कि अपने घर के बेटे को, अपने घर के मर्द को औरतों की, लड़कियों की इज्जत करना सिखाए।
मूल चित्र: Still from Pranab Hore #socialexperimentatnight/YouTube
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