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बहु, अपने सपने भूलो और इस घर को संभालो!

एक तरफ़ ऐसे शोज़ हैं जो औरतों का सशक्तिकरण दिखा रहे हैं, और दूसरी ओर ससुराल सिमर का जैसे शोज़ जो हमें रूढ़ियों की चौखट पे खड़ा कर देते हैं।

एक तरफ़ ऐसे शोज़ हैं जो औरतों का सशक्तिकरण दिखा रहे हैं, और दूसरी ओर ससुराल सिमर का जैसे शोज़ जो हमें रूढ़ियों की चौखट पे खड़ा कर देते हैं।

लंबे समय से, महिलाओं के खिलाफ रूढ़ियों के कारणों में से एक, भारतीय धारावाहिक, में उनका प्रतिनिधित्व रहा है। हालाँकि, आजकल मनोरंजन के कई माध्यम है जैसे फ़िल्में, वेब सिरीज़ लेकिन भारतीय धारावाहिक आज भी मोनोरंजन का एक मुख्य स्रोत हैं।

इनमें महिलाओं को भोली-भाली,अबला, संस्कारी, अपनी कोई महित्वकांशाएँ ना रख कर सिर्फ़ परिवार को सम्भालने वाली, इन कौशलताओं के साथ आदर्श बहू को दर्शाया जाता है। लेकिन, समय के साथ क्या भारतीय धारावाहिक मजबूत और सशक्त महिलाओं की अगुवाई दिखाने वाले शोज़ के साथ प्रगति कर रहे हैं? या शायद नहीं? 

ससुराल सिमर का 2 के प्रोमो ने मुझे सोच में डाल दिया

रोज़ रात मेरी दादी और मामी-दादी के साथ समय बिताते वक्त में उनके साथ कई सीरीयल देखती हूँ। हम अनुपमा, बैरिस्टर बाबू जैसे अन्य शो देखा करते हैं। एक दिन ऐसे ही सीरियल देखते हुए एक आने वाले शो ससुराल सिमर का 2 का प्रोमो मैंने देखा। इस कुछ सेकंड के प्रोमो ने मुझे सोच में डाल दिया। 

इस प्रोमा में एक बहु को पूजा करते हुए दिखाया है और तभी उसकी सास आके उससे कहती है, “उसके आजकल की लड़कियों के जैसे कुछ बनने के नहीं, घर बनाने के सपने हों” और दूसरी ही तरफ़ एक लड़की को दिखाया है जिसका संगीतकार बनने का सपना है। अब सोचने पर तो पता नहीं शो की कहानी किस मोड़ में जाए लेकिन इस ‘प्रोमो’, जो शाब्दिक अर्थ से तो धारावाहिक के कॉन्सेप्ट का प्रचार करने के लिए है, उसमें कही सास की इस बात ने मुझे हैरान कर दिया। आज भी ऐसी सोच शोज़ में दर्शायी जाती है? 

क्या धारावाहिक समय के साथ प्रगति कर रहा है?

आज के समय में जहां प्रगतिशील शोज़ बन रहे है, वहाँ पर ऐसी सोच का शो? सास का यह कहना कि “घर बनाने के सपने हो”, क्या एक आदर्श बहू को सिर्फ घर संभालना चाहिए? उसके अपने सपने नहीं होने चाहिए? और साथ ही उनका यह कहना कि “अपनी परछाई खोज के लाओ” यही सोच लड़कियों पर सामाजिक उम्मीदों का दबाव डाल देता है। 

मॉडर्न समाज में जहां औरतें कई उचाइयाँ छू रही हैं, हर क्षेत्र में, वहाँ हम इस सोच के शोज़ कैसे बना रहे हैं जो वापस हमें उन्ही रूढ़िवादी सोच की ओर खिंचते हैं? टेलीविजन को प्रतिनिधित्व का बड़ा माध्यम माना जाता है। इसमें लोगों की सोच बदलने की, मानसिकता बदलना की क्षमता है। इसलिए हमने समय के साथ कई शोज़ में यह प्रगति देखी है, जहां वह इन पूर्वी मानसिकता से हट के प्रगतिशीलता दिखाते हैं। 

पर ऐसे शोज़ हमें वापस वहीं खड़ा कर देंगे जहां हम बहुत साल पहले थे। जब औरतों की जगह सिर्फ़ घर में मानी जाती थी, और उनके गुण सिर्फ़ अच्छे से परिवार संभालना होता था। 

मुझे ही नहीं, और लोगों को भी ससुराल सिमर का 2 के प्रोमो से आपत्ति थी

यूटूब पर जब मैंने इस प्रोमो का वीडियो सर्च किया तो और भी कई लोग थे मेरे जैसे जिनके मन में ये प्रोमो देख के आपत्तिजनक विचार आए।

एक व्यक्ति ने लिखा, “कुछ बनकर भी घर बनाया जा सकता है। ऐसा तो नहीं जो लड़कियां सक्सेसफुल होती हैं वो फ़ैमिली को अनदेखा कर देती हैं। लड़के भी तो दोनों चीजों को संभालते हैं, तो लड़कियों को यह मौका क्यों नहीं देती हमारी समाज?” 

तो वहीं किसी और ने लिखा, “हाय भगवान! महिलाएं डॉक्टर, वकील, आईपीएस अधिकारी, सेना अधिकारी अंतरिक्ष यात्री, राजनीतिज्ञ, बॉक्सर एथलीट, गायक, कंपनी मालिक आदि हैं, लेकिन भारतीय नाटक उद्योग में अभी भी स्टोरी लायन वही है जिसमें लड़कियों का सपना बहू बनना है और सास और पति की सेवा करना है। इस मामले में हिंदी नाटक उद्योग से हॉलीवुड बेहतर है जो चार्ली एंजेल और ओशन 8 जैसी फिल्में बनाता है।”

और प्रोमो की सीधी निंदा करते हुए एक जनि ने लिखा, “बहुत बुरा प्रोमो है ये। क्या आजकल की लड़कियां घर नहीं बनातीं? भारतीय टीवी उद्योग की बहुत प्रतिगामी और पुरानी सोच है। भारतीय टीवी धारावाहिक के अनुसार मेकअप, साड़ी या हाथ में पूजा की थाल ही आपको एक आदर्श बहू बनाती है।”

उन्हीं रूढ़ियों के चौखट पर खड़े हैं हम…

इस चंद 30 सेकंड के प्रोमो में कहे डायलाग ने वापस उन रूढ़िवादी एंड स्टीरियोटाइप अपेक्षा, जो लोगों की एक आदर्श बहू से हुआ करती थी, उन्हें उभार देता है। 

प्रगति के बजाय हम इन प्रतिनिधित्व के साथ समय और मानसिकता में वापस पीछे जा रहे हैं। एक तरफ़ हम ऐसे शोज़ बना रहे जहां औरतें का सशक्तिकरण दिखा रहे, और फिर दूसरी ओर ऐसे, ससुराल सिमर का जैसे, शोज़ जो हमें वापस वहीं रूढ़ियों की चौखट पे खड़ा कर देते है। 

मूल चित्र: peejayvisual via Unsplash

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Mrigya Rai

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