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सुप्रीम कोर्ट ने स्त्रीवादी न्याय पक्ष में दी ये ऐतिहासिक गाइडलाइन्स

देश के सुप्रीम कोर्ट ने स्त्रीवादी न्याय के पक्ष में कुछ गाइडलाइन्स दी हैं, जिसको ऐतिहासिक बताया जा रहा है। सच में! ऐतिहासिक है!

देश के सुप्रीम कोर्ट ने स्त्रीवादी न्याय के पक्ष में कुछ गाइडलाइन्स दी हैं, जिसको ऐतिहासिक बताया जा रहा है। सच में! ऐतिहासिक है!

सर्वोच्च न्यायालय स्वयं अपने यहां विशाखा गाइडलाइंस को पूरी तरह से लागू नहीं कर सका है, जिसको भी नब्बे के दशक में महिलाओं के पक्ष में ऐतिहासिक फैसला ही बताया गया था।  इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि मशहूर भंवरी देवी घटना के बाद विशाखा गाइडलाइंस प्रकाश में आई और उससे कार्यस्थल पर काम करने वाली उन महिलाओं को संबल मिला, जो अपने नागरिक अधिकारों के प्रति सजग हैं और अपने खिलाफ हो रहे शोषण के विरुद्ध मुखर।

जस्टिस ए एम खानविलकर और एस रवींद्र भट्ट द्वारा सुझाए गए गाइडलाइंस के दूरगामी असर कितने होंगे, इसके मूल्यांकन के लिए अभी इतंजार करना होगा। वैसे अगर सर्वोच्च न्यायालय को  मौजूदा गाइडलाइंस सचमुच ऐतिहासिक लग रही हैं तो कम से कम विशाखा गाइडलाइन्स लागू होने के बाद ही महिलाओं के मामलों में तमाम अदालती आदेशों का अध्ययन मौजूदा गाइडलाइन्स के आलोक में कर ले, तब यह उन तमाम महिलाओं के अस्तित्व को सम्मान देने जैसे होगा, जिसका कितने ही अदालती फैसलों में अब तक उनका अस्तित्व तार-तार किया जाता रहा है।

मौजूदा निर्देश को हाल के दिनों और वर्षों में देश की तमाम अदालतों और उनके माननीय जजों के द्वारा समय-समय पर स्त्रियों से सम्बंधित मामलों की सुनवाई करते हुए या उन मामलों पर फैसला देते हुए, उनके जेंडर स्टीरियोटाइप का शिकार होने और स्त्रीविरोधी टिप्पणी कर देने या उनके स्त्रीविरोधी नज़रिये से जोड़ कर देखा जा रहा है। इसलिए, इसको अदालती गलियारे में ऐतिहासिक कहा जा सकता है।

जाहिर है, सर्वोच्च अदालत इस बात को स्वीकार कर रही है कि हाल के दिनों में इस तरह के तुगलगी अदालती फैसलों के विरोध में महिला आंदलनों ने अपनी जबर्दस्त विरोध भी दर्ज किया है, जो मीडिया के हल्कों से लेकर सड़क और संसद तक गूंजती रही है। उस स्थिति में एक तरफ, सर्वोच्च अदालत का मौजूदा निर्देश सामाजिक संतुलन के दिशा में एक दूरगामी कदम है, तो दूसरी तरफ, सामाजिक विफलता का प्रमाणपत्र, जहां समाज का शिक्षित होना उसकी सामाजिक शिष्टता का प्रतीक माना गया था और कई सामाजिक कुरितियों का समाधान भी।

मुख्य सवाल यह है कि क्या इस तरह के गाइडलाइंस के आलोक में अदालती फैसलों में मौजूद जेंडर स्टीरियोटाइप मानसिकता को क्या तोड़ा या भेदा जा सकता है? जब तक देश के तमाम सामाजिक संस्थाओं में जेंडर के प्रति संवेदनशील नज़रिये को विकसित करने की दिशा में कुछ ठोस कदम नहीं उठाये जाएँ, तब तक ये नामुकिन सा लगता है। बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय का मौजूदा हस्तक्षेप इस दिशा में एक जरूरी कदम तो कहा ही जा सकता है, जो इस दिशा में कई अन्य महत्वपूर्ण पहल की मांग भी करता है।

जेंडर स्टीरियोटाइप को तोड़ने के लिए जज के मौलिक प्रशिक्षण के तौर पर लैंगिक संवेदनशीलता पर प्रशिक्षण देने का मॉड्यूल विकसित करना और एलएलबी पाठ्यक्रम में इसे शामिल करना, अदालती गलियारे को स्वयं को संवेदनशील बनाने के प्रक्रिया में एक बड़ा कदम है। परंतु, इसका विस्तार देश के अन्य सामाजिक संस्थानों और अन्य शिक्षा के माड्यूल में क्यों नहीं किया जा सकता है?

इन कदम का विस्तार न्यायालय के अतिरिक्त अन्य सामाजिक संस्थाओं और अन्य पाठ्यक्रमों  में किया जाए, तो जाहिर है कार्यस्थल का हर क्षेत्र जहां महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है, वहां महिलाओं को लेकर एक संवेदनशील माहौल का निमार्ण होगा। विशेष कर पुलिस सेवा में जहां पीड़ित महिला एफआईआर दर्ज कराने पहुंचती है और उसके मानसिक उत्पीड़न का दौर शुरू हो जाता है।

जस्टिस रवीन्द्र भट्ट ने अपनी अदालती फैसले में जिन रूढ़िवादी उदाहरणों का जिक्र किया है उस पर न्यायालयों में जजों का ध्यान मात्र ही कई महत्वपूर्ण फैसलों में नई नज़ीर बन सकता है। मसलन,

  • महिलाएं शरीरिक तौर पर कमजोर होती हैं, ऐसे में उन्हें संरक्षण चाहिए।
  • महिलाएं खुद फैसले लेने में सक्षम नहीं होती हैं, आदमी घर का मुखिया होता है और परिवार का फैसला वही लेता है।
  • संस्कृति के तहत महिलाओं को समझौता करना चाहिए क्योंकि वह ज्यादा अनुशासित होती हैं।
  • अच्छी महिलाएं वह होती हैं जो पवित्र होती हैं।
  • महिलाओं पर ही बच्चों की जिम्मेदारी होती है।
  • अगर रात में अकेली हैं या ऐसे कपड़े पहनती हैं तो वह अपने ऊपर हुए हमले के लिए खुद जिम्मेदार हैं।
  • अगर वह शराब पीती है या ध्रूमपान करती हैं तो किसी आदमी के बुरे व्यवहार को न्यौता देती हैं।
  • अगर वह शारीरिक विरोध नहीं है तो इसका मतलब सहमति से है।

गौरतलब है कि महिलाओं से जुड़े अधिकांश न्यायिक मामलों में इन रूढ़िवादी सोच का विस्तार देखने को मिलता है, जो सामाजिक संस्थाओं में पहले से मौजूद है। यही सोच पीड़िता का सामाजिक जीवन और अधिक चुनौतिपूर्ण बनाता है।

जेंडर स्टीरियोटाइप के सोच को तोड़ने के दिशा में आगे बढ़ने के लिए और हर निजी और सार्वजनिक स्पेस में लोकतांत्रिक महौल बनाने के लिए महिलाओं को लेकर रूढ़िवादी दायरों से निकलने के जरूरी है कि शिक्षा के हर माड्यूल में जेंडर संवेदनशील पाठ्यक्रमों को शामिल किया जाए। इस प्रयास से ही हम समाज को जेंडर स्टीरियोटाइप  मान्यताओं को धवस्त भी कर सकेंगे और हर क्षेत्र में महिलाओं के बढ़ती भागीदारी को समुचित सम्मान दे सकेंगे।

सुप्रीम कोर्ट की इन स्त्रीवादी न्याय पक्ष गाइडलाइन्स का असर धीरे-धीरे समाज पर भी पड़ेगा और महिलाओं के ऊपर हो रहे अभद्र टिप्पणियों और उनको चरित्र प्रमाणपत्र देने के मामलों में भी कमी आएगी। यह विश्वास जरूर सर्वोच्च अदालतों को होगा तभी उन्होंने महिलाओं के आत्मसम्मान में मौजूदा दिशा-निर्देश जारी किया है।

मूल चित्र : Canva Pro

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