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तुमने शादी मुझसे नहीं अपनी नौकरी से की है…

एक हफ्ते के अंदर ही प्रेम दीमा को बहुत अच्छी तरह से समझ गया था और दोनों में एक दोस्ती होने लगी। शायद एक दूसरे का अधूरापन पूरा करते थे दोनों?

एक हफ्ते के अंदर ही प्रेम दीमा को बहुत अच्छी तरह से समझ गया था और दोनों में एक दोस्ती होने लगी। शायद एक दूसरे का अधूरापन पूरा करते थे दोनों?

“आप ऑफिस से काफी लेट आते हो। मैं इंतेज़ार करके थक जाती हूं।”

“हां, थोड़ा काम ज़्यादा ही है मेरा शुरुआत से ही…”

“तब तो आप कुंवारे थे, अब तो हम दो हो गए हैं। आप कोशिश किया करें जल्दी आने की।”

“आज क्या पकाया है तुमने? खाना लगाओ, भूख लग रही बहुत तेज़।”

दिमा की बात को काटता हुआ वीर नहाने चला गया। इतने में दीमा भी श्रृंगार करने अपने कमरे में चली जाती है। दीमा नई नवेली दुल्हन है। उसकी शादी हुए सिर्फ एक हफ्ता हुआ है।

“आज चपाती सूख गई, शायद देर से बनायी होगी तुमने?”

“नहीं, नहीं अभी बस आधा घण्टा हुआ है बनाए हुए।”

“जब आया करूं तभी पकाया करो रोटी, शादी को एक हफ्ता हो गया, इतना तो समझो मुझे।”

“कल से ध्यान रखूंगी। या दूसरी बना दूं?”

“नहीं, नहीं अब यही रहने दो।”

रोज़ की तरह दीमा आज भी सजी और संवरी हुई थी। उसने अपने बड़े-बड़े बालों में गजरे की लड़ियां लगाई हुईं थीं। काजल उसकी आंख में बहुत सुंदर लगता था। बैंगनी रंग की साड़ी उसके रूप को निखार रही थी। इन सब के बावजूद वीर को वो रिझा नहीं पा रही थी।

“मुझे काम का बहुत जुनून है दीमा, मैं चाहता हूं मेरा प्रमोशन हो तो मैं अपनी आगे की पढ़ाई कर सकूं। मुझे किताबों और कामयाबी के अलावा कुछ नहीं नज़र आता। तुमसे मन किया अपनी बात साझा करूं।”

“अच्छा किया आपने, मुझे खुशी हुई आपने मुझे इस लायक समझा।”

“दीमा तुम पहले बिस्तर साफ कर देना और थोड़ा मेरे पैरों पर हाथ लगा देना बहुत थक गया हूं।”

वीर की रोज़ यही बातें सुनते सुनते दीमा अक्सर उदास हो जाती थी। मगर वो श्रृंगार करना नहीं भूलती। उसमें एक जीवंत ज्वाला थी। उम्मीद थी। एहसास था। शायद वीर उसको कभी न कभी तो अपने आलिंगन में समा लेगा।

“दीमा अगर नाश्ता रेडी है तो मुझे जल्दी दे देना। लंच मैं वहीं कर लूंगा।”

“अरे नहीं मैंने सुबह जल्दी उठ कर आज प्याज़ के परांठे बनाए हैं। आपको दही के साथ दूंगी अच्छा लगेगा।”

“दीमा, तुमसे किसने कहा मैं प्याज़ के परांठे खाता हूं? मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं। बिल्कुल भी नहीं। तुम रहने दो। छोड़ो नाश्ता भी।”

“आप सुनिए तो मैं पनीर की भुरजी बना देती हूं। बहुत जल्दी बनेगी। अगर नहीं खा कर गए तो मुझे बहुत तकलीफ होगी। अगर आपने लंच नहीं खाया तो मैं भी नहीं खाऊंगी।”

“मेरे पास फिल्मी डायलॉग सुनने का टाइम नहीं, बॉस से दो घण्टे पहले मुझे ऑफिस पहुंचना होता है, ताकि मेरी इमेज खराब न हो।”

“वीर सुनो, ऐसे मत जाओ”।

इतने में वीर गाड़ी से निकल चुका था। इस बात ने दीमा को रुला दिया था। उसने लंच में वीर को फ़ोन किया और उसकी पसंद का रंग पूछा। जिसका जवाब भी वीर ने तीन बार में कॉल पर दिया। आज दीमा ने लाल रंग की साड़ी पहनी और आज उसने खुद को उस तरह से सजाया जैसे आज ही उसकी शादी हो।

“आज अच्छी लग रही हो। आज मैंने बाहर ही खाना खा लिया था। तुम खा कर सो जाना। मैं नहा कर सोने जा रहा हूं।”

वीर की यह बातें सुन कर आज दीमा को खुद पर गुस्सा आया। उसने गजरे के फूलों को मसल दिया। उसने सारी साड़ी उठा कर पैक कर के रख दीं। उसने अपने आलाते को पैरों से मिटाने की कोशिश की।

अब दीमा को मेहंदी और सिंदूर की खुशबू बिल्कुल भी नहीं भाती थी और बिल्कुल सादी और सिर्फ मैक्सी में रहना शुरू कर देती है। वीर को अपने कैरियर का इतना जुनून सवार था कि उसको रिश्ते ही नहीं दिखते थे।

“मुझे सतरह दिन के लिए बैंगलोर जाना होगा। तुम यहीं घर की रखवाली करना। समान बहुत सारा पड़ा है। नीचे गैराज में वैसे ही ताला नहीं लगाता मैं। प्रेम तुम्हारे लिए ग्रोसरी का सामान और सब्ज़ी लाकर दे दिया करेगा।”

“वहां मैं नहीं जा सकती? साथ में, एक बार आप बॉस से बात कर के देख लो आप। वहां आपके खाने का भी ख़्याल रख लूंगी।”

वीर ठहका लगाते हुए बोला, “खाना और तुम्हारे हाथ का? इससे अच्छा मैं अंडा ब्रेड खा लूंगा।”

खैर…

“मैडम मैं प्रेम बोल रहा हूं, वीर सर ने आपका नंबर दिया था।”

“हां! समझ गई। आपको मैं कल सुबह लिस्ट दे दूंगी समान की।”

अगले दिन…

“बारिश तेज़ है मेडम मैं आपके घर के नीचे खड़ा हूं।”

“प्रेम आप ऊपर वरांडे में आकर बैठ सकते हो। और हाँ मैं नाश्ता बनाने जा रही थी…अगर आप बुरा ना मानें तो मेरे साथ नाश्ता करेंगे?”

“मगर मैडम…मैं…”

“अगर आपको अजीब लग रहा है तो रहने दें। ये रही सामान की लिस्ट…”

प्रेम ने दीमा की नज़रों की पढ़ने की कोशिश की तो एक अकेलापन झलका। ना जाने उस उदासी ने उसके अंदर क्या हिलाया कि ना चाहते हुये भी उसने कहा, “आप चाहती हैं तो मैं आपके साथ नाश्ता करने को तैयार हूँ…”

सावन का महीना था। बारिशों से बुरा हाल था। जबसे दीमा की शादी हुई थी उसने एक भी चीज़ अपने मन से न तो बनाई थी और न खाई थी। लेकिन प्रेम के आने पर उसको पकौड़ों और अचार और परांठे खाने का पूरा लुत्फ मिला।

“आधा किलो बेसन, पतली वाली मिर्च, छोटे पत्ते वाली पालक और पतली पतली भिंडी। यही है न आपका समान?”

“अरे! प्रेम तुमको सारी चीज़ें रट गईं?”

दोनों ठहका लगाते हुए हंसने लगे। आज तक प्रेम सिर्फ वरांडे तक ही रुकता था। आज उसको दीमा ने अंदर ड्राइंग रूम में बैठाया और गरमा गरम चाय के साथ पकौड़े परोसे। ये सिलसिला अब रोज़ का था। एक हफ्ते के अंदर ही प्रेम दीमा को बहुत अच्छी तरह से समझ गया था और दीमा भी उसके साथ अच्छा महसूस करती थी। दोनों में एक दोस्ती होने लगी। शायद एक दूसरे का अधूरापन पूरा करते थे दोनों?

“आपका दिल बहुत अच्छा है मैडम।”

“अरे आप भले तो जग भला। तुम भी बहुत नेक और अच्छे व्यवहार के हो।”

“मेम अगर मैं आपको कुछ दूं तो बुरा तो नहीं मानेंगी? बहुत डर लग रहा है।”

“अरे नहीं नहीं, दोस्तों की बात बुरी नहीं मानी जाती।”

“ये कोटी है मेरी माँ ने अपने हाथों से बनाई है। इसमें शीशे से सजावट की है और रंगीन धागों से इसकी बुनाई की है, ये मेरी मां ने आपके लिए बनाई है। मुझे उम्मीद है आपको अच्छी लगेगी।”

कोटी को देख कर दीमा को मानों को ऐसा लगा वो सिर्फ पहनने का एक कपड़ा भर नहीं, उसको ऐसा लग जैसे उसने सारी जिंदगी जिस चीज़ की उम्मीद की थी वो उसको मिल रही थी। उसको किसी समान की ज़रूरत नहीं थी। उसको महज एहसास चाहिए था। जो प्रेम ने उसको दिया।

“वाह! ये कितनी सुंदर है इससे भी ज़्यादा ये हाथ की बनी हुई है मुझे बहुत पसंद आई।” दीमा ने कोटी को गले से लगाकर ये बात कही।

ऐसे ही करते करते प्रेम दीमा का ख्याल ऐसे रखने लगा जैसे दीमा को ज़रूरत थी। उसको समय देता, दोनों एक साथ खाना खाते, और एक साथ घण्टों बातें करते।

आश्चर्य की बात ये थी कि रवि का एक बार भी दीमा के लिए फ़ोन नहीं आया और न ही उसके आने का पता रहा। दीमा ने कोशिश की पर फ़ोन पर बात न होती।

फिर एक दिन अचानक, “तुम कहां रह गए रवि? एक हफ्ता बोलकर गए थे। मैं इंतेज़ार में थी और तुम्हारा फोन भी नहीं मिलता।” दीमा ने फोन पर बात करते हुए रवि से कहा।

“यार, प्रमोशन के लिए दिन रात एक कर रहा हूं। मुझे फिलहाल दो-तीन महीने से ज़्यादा का समय लगेगा। तुम अपना ध्यान रखना। फिलहाल मैं फोन रखता हूं, और हाँ यूँ मुझे फ़ोन करके परेशान ना किया करो। तुम्हारी हर ज़रुरत प्रेम पूरी कर रहा है न?”

दीमा को ये बात बहुत अंदर तक तोड़ गई थी। वो उदास रहने लगी। कुछ महीने बीतने पर भी रवि का कोई जवाब नहीं आया।

दिन बीतते गए प्रेम और दीमा एक दूसरे के करीब आते गए, इतने करीब कि दीमा ने एक दिन एक बड़ा कदम उठाने की सोची और वो उसकी बाहों में समा गयी। प्रेम भी कई हफ़्तों से दीमा की परेशानी देख रहा था। सही या गलत, लेकिन आज उसने भी दीमा को नहीं रोका।

दीमा और प्रेम अब एक दूसरे के पूरक से बन गए। प्रेम दीमा का ख्याल रखता। दीमा भी यही सोचती थी कि अब मैं प्रेम के साथ ज़्यादा खुश हूं। रवि की कोई खबर नहीं थी।

3 महीने बीतने के बाद रवि का फ़ोन आता है, “यार मेरा प्रमोशन हो गया है! दीमा तुम कैसी हो? मैंने ये बताने के लिए फ़ोन किया है कि शायद मुझे यहीं से अब अब्रॉड जाना होगा। उम्मीद है प्रेम तुम्हारा बहुत ख्याल बहुत अच्छे से रख रहा होगा।”

“हां! बाकी बात से मुझे कोई फर्क नहीं, मगर प्रेम की बात तुमने सही कही। शादी तो मैंने तुमसे की थी मगर शादी निभाने वाला प्रेम ही है। जिसने मेरी हर तरह से मदद की। मैं तुमको बहुत जल्दी डिवोर्स के कागज़ भेज दूंगी। शादी तुमने की लेकिन उसको निभाना ज़रूरी नहीं समझा। मुझे लगता है कि तुमने शादी करियर से की है मेरे से नहीं…”

ये कहते ही दीमा ने फोन काट दिया और प्रेम के सीने से लग कर रोने लगी।

महिलाओं की व्यथा और उनकी यौन अभिलाषा को समाज कभी नहीं पहचान पाया और न ही उसको प्राथमिकता दी। वहीं पुरुषों को समाज पूरी तरह से छूट देता है वो चाहे जैसे भी अपनी आत्मसंतुष्टि और यौन अभिलाषा को पूर्ण कर सकता है। मगर महिलाओं को इतना दबा दिया गया है कि वह अंदर ही अंदर घुटती रहती हैं और सारा जीवन व्यर्थ कर देती हैं।

इस कहानी कि नायिका दीमा इस रूढ़िवादी सोच को सिरे से ख़त्म करने की कोशिश करती है और अपने लक्ष्य में सफ़ल भी होती है। मगर ऐसे न जाने कितनी ही महिलाएं होंगी जिनको दीमा जैसा ही जीवन मिला होगा मगर उसे बदलने की हिम्मत नहीं।

मूल चित्र : Farddin Protik via Pexels

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