कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
बीजेपी कॉर्पोरेटर प्रगति पाटिल ने कहा है कि महिलाओं को गालियों की वस्तु बनाना बंद करना होगा, जिसके लिए उन्होंने आदरणीय प्रधानमंत्री को चिट्टी लिखने की बात कही है।
रोहिनी बस स्टैंड पर खड़ी अपने बस का इंतज़ार कर रही थी। ऑफिस में मीटिंग थी इसलिए जल्दी घर से निकलकर वह अपने रुट के बस का इंतज़ार कर रही थी। कुछ देर खड़े रहने पर बस आ गई और रोहिनी उसमें बैठ गई।
कुछ देर बाद रोहिनी की नज़र सामने बैठे एक सज्जन पर पड़ी जो, बड़ी तल्लीनता से मोबाइल फोन पर व्यस्त थे। धीरे-धीरे उनकी आवाज़ तेज़ हो गई और गालियों की बौछार होने लगी, जिसमें महिलाओं पर केंद्रित गालियों की भरमार थी। भले वहां बैठी महिलाएं असहज हो रही थीं मगर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ रहा था।
ऐसे अनेक दृश्य हमारे सामने घटते हैं, जहां महिलाओं पर केंद्रित गालियां सुनने को बड़ी आसानी से मिल जाती है। अब तो वेब सीरीज़ भी बिना गालियों के खत्म नहीं होतीं। मिर्जापुर से लेकर सेक्रेड गेम या अन्य कोई वेब सीरीज हो, सबमें गालियां होती ही हैं।
गालियों को दिखाकर लोगों को आकर्षित करने का अनोखा तरीका लोगों ने अपना लिया है। महिलाओं पर केंद्रित गालियों की बात अब आम बात हो गई है क्योंकि यह दिनचर्या में ही शामिल हैं।
इसी के खिलाफ बीजेपी कॉर्पोरेटर और पूर्व चेयरपर्सन, विमेंस एंड चिल्डर्न वेलफेयर कमिटी, प्रगति पाटिल ने आवाज़ उठाते हुए कहा है कि महिलाओं को गालियों की वस्तु बनाना अब बंद करना होगा, जिसके लिए उन्होंने आदरणीय प्रधानमंत्री को चिट्टी लिखने की बात कही है। उन्होंने मांग किया है कि महिलाओं पर होने वाले गालियों को बंद करना होगा, क्योंकि यह भी अत्याचारों की श्रेणी में आता है।
इसके अलावा मुंबई की नेहा ठाकुर और कम्युनिकेशन कंसल्टेंट तमन्ना मिश्रा ने ‘द गाली प्रोजेक्ट’ शुरू किया है ताकि लोगों को गालियों के अन्य विकल्प दिए जा सकें। प्रोजेक्ट से जुड़ी मुंबई की नेहा ठाकुर कहती हैं, “हम देख रहे हैं कि ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म या ऑनलाइन पर जो सीरीज़ आ रही है, उनमें ज्यादातर भाषा बद से बदतर होती जा रही है। हम युवाओं या लोगों में गाली के इस्तेमाल पर प्रतिक्रिया भी मांगते थे, तब वह कहते थे कि इसमें आपत्ति क्या है, ”इट्स फ़ॉर फ़न।”
इसका साफ अर्थ है कि लोग मानते हैं कि गालियां केवल मौज के लिए बोली जाती है। हम चाहते हैं कि ऐसी गालियों का इस्तेमाल हो, जिससे सामने वाले को भी बुरा ना लगे और आपका काम भी हो जाए। हमारी कोशिश गालियों का ऐसा कोष बनाने की है, जो महिला विरोधी ना हो, जाति या समुदाय के लिए भेदभावपूर्ण, अपमानजनक या छोटा दिखाने के मक़सद से ना हो।” यह एक अनोखी पहल है क्योंकि लोगों को गाली भी मिल जाएगी और बोलने के लिए शब्द भी, जो बुरे नहीं लगेंगे।
लेखिका उषा किरन कहती हैं कि लोकगीतों में गालियों का प्रयोग बहुत पहले से होते आ रहा है। खासकर बिहार और यूपी में लोकगीतों में गालियों का प्रयोग बढ़-चढ़कर किया जाता है। वहां संबंधी को, दूल्हे की बुआ को गालियां हंसी ठिठोली और सौहार्द बढ़ाने के लिए दी जाती हैं, लेकिन वहां किसी को नीचा या बुरा महसूस कराना नहीं होता बल्कि एक तरह से सामाजिक और पारिवारिक सौहार्द्र को बढ़ाने के लिए गालियों का इस्तेमाल होता है।
साथ ही संस्कृत में गालियां नहीं हैं। बस दुष्ट और कृपण जैसे शब्द दिखाई देते हैं, जो उस समय के लिए बहुत बड़ी गाली मानी जाती थी, लेकिन 1000 साल से जब बाहर से लोग आने लगे और आना-जाना बढ़ने लगा, तब गालियां विकसित हुई होंगी।
पद्मश्री डॉ शांति जैन संस्कृत की प्रोफ़ेसर कहती हैं कि शादी के बाद जेवनार गाया जाता है, जिसमें गालियां देने की परंपरा रही है। वह आगे बताती हैं कि ”तुलसी की मूल रामायण में क्षेपक दिए गए हैं। राम का जब विवाह होता है, तो सीता की भावज बहुत प्रेम से उनसे मज़ाक़ करती हैं और गालियां भी देती हैं।
ऐसा कहा जा सकता है कि गालियां हमारे समाज में बहुत पहले से थीं, मगर अब गालियों का तरीका और अर्थ बदल गया है। पहले गालियां मज़ाक में दी जाती थी मगर अब गालियां गुस्से और आवेश में दी जाती हैं इसलिए पहले जिन गालियों में मिठास होती थी, उसमें अब द्वेष और कुंठा भर गई है।
मूल चित्र : Screenshot from Alibaba ka Band Guffa, YouTube
read more...
Women's Web is an open platform that publishes a diversity of views, individual posts do not necessarily represent the platform's views and opinions at all times.