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समाज का दोगलापन आज भी मुझे समझ नहीं आता है, जो दिन में इज्ज़त की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, वही रात के अन्धेरे में जिस्म का मोल भाव करते हैं।
सम्मान ना मिला इस समाज में, इस समाज की ही बनाई गयी हो, वैश्या नहीं, मेरे लिये देवी हो, हम नारियों के लिये अदृशय रक्षक हो।
देवी की प्रतिमाएं भी तुम्हारे छुए मिट्टी के बिना अधुरी हैं, जिसको ये समाज पवित्र मान पूजा भी करता है। फिर ना जाने क्यो ये समाज तुम्हें अपशब्द की तरह उपयोग करता है?
शायद डर से कि कहीं उनकी शराफत पर कोई उंगली ना उठाये इसलिये गाली दे कर सारा दोष तुम्हारी मजबूरियों और गरीबी को दे देता है।
ना जाने कितनी लड़कियाँ अपहरण की जाती हैं, ना जाने कितनी परिवार द्वारा बेच दी जाती हैं, ना जाने कितनी अपने सपनों को भूल कर, अपने स्वाभीमान को कुचल कर, ख़्वाहिशों को दफना कर, ये हवस का कारोबार चला रही हैं।
मजबूरी का फायदा उठाना ये समाज खूब जानता है। कदम कदम संभल कर चलना, हे नारी, यहाँ हर कदम पर शराफत का चोला पहने भेड़िया तुम्हें नोच खाने को बैठा है।
तुम्हारी कहानी सुन दिल काँप उठता है, मन विचलित हो जाता है, ना जाने कितना दर्द, कितनी चीखें, कितनी कहानी बंद रह जाती है कुछ दिवाल तक, जो इस समाज तक नहीं पहुँचती।
समाज का दोगलापन आज भी मुझे समझ नहीं आता है, जो दिन में समाज, इज्ज़त की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, वही रात के अन्धेरे में जिस्म का मोल भाव करते हैं।
समाज को बहाना बनाना, खुद की गलती छुपाना, गाली देना बखूबी आता है, पर जिसे अलग, अपवित्र समाज कहता है, उसे बदं करना भी नहीं चाहता।
हे समाज, ठीक है उसे अलग समाज कहो, इस समाजिक बुराई को अपने हवस के लिये खत्म भी मत करो, पर कम से कम गाली मत दो, क्योंकि वो कारोबार चलाने ये समाज के ही इज्ज़तदार लोग जाते हैं, वो गाली तुम खुद को ही देते हो ये तुम्हें कहां समझ आता है।
ना जाने कब ये समाजिक बुराईयाँ खत्म होंगी? ना जाने कब तक लड़कियाँ वस्तु की तरह बेची जायेंगी? ना जाने कब तक किसी वैश्यालय में किसी बच्ची का सपना उसका जिस्म निचोड़ कर तोड़ दिया जायेगा? पता नहीं कब पुरूष खुद पर नियंत्रन करना सीखेगा?
पर हे कलम, तुम मत रूकना तब तक जब तक ये बुराई खत्म ना हो, तब तक इस समाज को उसका आईना दिखाते रहना।
मूल चित्र : Sharath Kumar via Pexels
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