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जब वो कुछ नहीं करती तब वो अपनी माँ को फोन करती है और पूछती है कि वे सारी उमर घर पर खाली बैठी आज तक बोर क्यों नहीं हुई!
जब वो कुछ नहीं करती तब वो रसोई की मसालेदानी को दुलार-बुहार उसके जख्मों से नमक हटा उसे धूप में सुखाती है!
जब वो कुछ नहीं करती तब वो रुमालों की तहों में सधकर सो जाती है घड़ी भर झपकी लेने!
जब वो कुछ नहीं करती तब वो उधड़े मन को सलाई में पिरो बना देती है पड़ोस के बिट्टू का टोपा!
जब वो कुछ नहीं करती तब बंद कमरे में पंजों के बल खड़ी होकर नापती है अपनी कूद की ऊँचाई जो बचपन में रस्सी कूदने पर नाप लिया करती थी!
जब वो कुछ नहीं करती तब वो पूछती है हाल अलमारी में बिछे अखबार के नीचे पड़े बिजली-पानी के बिल और सौ रुपए के फटे-पुराने नोट के दिल का!
जब वो कुछ नहीं करती तब वो पुचकारती है चुहिया को जो पुराने संदूक में पड़े कपड़ों में दर्जनभर बच्चे जन निढाल पड़ी है!
जब वो कुछ नहीं करती तब वो सीलन दीवार की उखड़ी परतों में छिपे अलग अलग रंगों से बतियाकर बाँचती है हाल उन बीते दिनों का जब हर बार घर का बदला ढंग दीवारों पर नए रंग के साथ पहले रंग को अपने रंग में रंग गया, और याद करती है शर्मसार होकर इन सब रंगों के पीछे छिपे ईंटों और सीमेंट के भाव को जो उसे पिता के दिए जेवरों का डिजाईन याद दिला देता है!
जब वो कुछ नहीं करती तो खंगालकर छाँटती है अपनी उन जड़ों को जिनकी पकड़ घर के आंगन से ढीली पड़ गई है!
जब वो कुछ नहीं करती तब वो अपनी माँ को फोन करती है, और पूछती है कि वे सारी उमर घर पर खाली बैठी आज तक बोर क्यों नहीं हुई!
मूल चित्र : Pranav Kumar Jain via Unsplash
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