कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

बसंत ने कर दिया है आगाज़, उदासी न रहे आस-पास

जैसे प्रकृत्ति में बसंत का मौसम है, वैसे ही हर इंसान के जीवन में भी बसंत होता है पर वह प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देता है। 

Tags:

जैसे प्रकृत्ति में बसंत का मौसम है, वैसे ही हर इंसान के जीवन में भी बसंत होता है पर वह प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देता है। 

बसंत, सिर्फ एक मौसम ही नहीं है, हमने तो इसे अपने आस-पास बचपन से एक जीवनोत्सव के रूप में देखा है। अल्साई धूप में जब आम के पेड़ में कोमल हरे छोटे-छोटे पत्ते और आम के बौरे दिखने लगे समझ लो कि मन के बौराने का समय आ गया। मानो नव-उमंग और उल्लास धानी पीली चुनरिया ओढ़कर जीवन में गतिमान  होने की सीख देता है। तभी तो मन ही मन हम मुस्कुराकर स्वयं से भी कहते है…ओ बसंत तुम मेरे रोम-रोम को बसंती कर दो।

बसंत जीवन का प्रतीक मात्र नहीं, साक्षात जीवन ही है। जीवन का दूसरा नाम है बसंत है क्योंकि किसी का भी जीवन सृजन-निर्माण के बिना अधूरा है। जैसे प्रकृत्ति में बसंत है वैसे ही हर इंसान के जीवन में भी बसंत होता है पर वह प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देता है। हमारे जीवन का बसंत, कहीं भीतर छिपा होता है। प्रकृत्ति का बसंत हमें याद दिलाता है कि हमें अपने जीवन में भी इसी नएपन को महत्व देना चाहिए।

आज जीवन में इसी बसंत को लाने की ज़रूरत है, जिसके आने भर से खिल-खिल उठेगा हमारा जीवन, जैसे प्रकृत्ति के गोद में फूलों का बसंत खिलखिलाता है, धरा के श्रृगांर से मुस्कुराता है।  तितलियां-भवरें फूलों के आंनद रस में डूब जाते हैं। आम का पेड़ अपनी मंजरी देखकर बौराता है और हल्की शीतल-उष्म हवाओं से झूम उठता है, प्रकृति का बसंत। बसंत की सबसे बड़ी रचनात्मकता सृज़न और निमार्ण प्रकृत्ति को मदमस्त देख कवि गोपालदास अपनी कविता में कहते हैं, ‘आज बसंत की रात, गमन की बात करना…’

जीवन बसंत का मौसम हो जाए…

किसी ने बसंत से पूछा- “भाई, तुम क्यों आए हो?”

तो उसने कहा, “शीत में सब जम न जाए और गर्मी में सब पिघल न जाए, इसलिए मैं सर्दी और गर्मी के मौसम में बीच में सुलह कराने आई हूं। मैं तुम्हारे जीवन को बसंत में बदलने आई हूं। अपने बसंत से तुमको शरद की जकड़न से बाहर निकालने आई हूं और तुम्हारे जीवन में गुनगुनी धूप से गर्मी की ऊष्मता भरने आई हूं। मैं तुम्हारे अंदर बसंत भरने आई हूं।

सर्दी के कारण ठहरे-ठिठके जीवन में उमंग भरने आई हूं, तुम्हारे अंदर अपने तरह की रचनात्मकता भरने आई हूं, तुम्हारा मन भी मुझ सा हो जाए, इसलिए बसंती हवा से तुम्हारे अंदर शीतलता भरने आई हूं। जिससे सर्दी के आलस्य से तुम्हारा रोम-रोम ऊबर जाए और तुम्हारे कण-कण में प्रकृति के तरह नव संचार का उमंग हो, उत्साह हो। अपने जीवन को नया विस्तार देने की उल्लास हो। मैं तुम्हारे जीवन को बसंत जैसा करने आई हूं।”

बसंत से जीवन में हुए नवसंचार को महसूस करके ही तो महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला बसंत से पहले लिखते हैंजीवन बुझाबुझा है’ और बसंत के बाद लिखते हैं, ‘अभी होगा मेरा अंत,अभीअभी ही तो आया है, मेरे मन में मृदुल बसंतअभी होगा मेरा अंत।’

बसंत केवल एक मौसम नहीं है, यह हमारे जीवन में रचनात्मकता के सृजन और जीवन में गतिशीलता लाने की सीख भी है।

जीवन को गतिशील बनाता है बसंत

बदलाव तो संसार का नियम है। बदलाव प्रकृत्ति का ही नहीं मानव जीवन का भी सच है। बदलाव रूप, यौवन, धन-दौलत, रहन-सहन सभी में आता है। इस धरा पर हर एक चीज समय के साथ बदलती है। ठहरी शीतल बयार के बाद बसंत, बसंत के सुहावने दिनों के बाद तपाने वाली गर्मी और तपती गर्मी से राहत देने के लिए सावन का मौसम आता है।

यह प्रकृति की गतिशीलता है जो हर उतार-चढ़ाव को जीते हुए आगे बढ़ते जाने में ही आनंद पाने की कोशिश करता है। प्रकृत्ति के तरह हमारी जिंदगी भी कभी ठहरती नहीं है, मौसम के तरह सुख-दुख हर मानवीय जीवन में आते-जाते रहते हैं। सर्दी की शीतलता हो या बसंत का गुलाबी मौसम, जेठ की तपती धूप हो या सावन की झमाझम बरसात, हर मौसम के तरह जीवन में हमेशा गतिशीलता रहे, यह भाव हमें प्रकृत्ति से सीखकर मानवीय जीवन में उतारने की ज़रूरत है। हमें बसंत के तरह अपने जीवन में गतिशीलता की जरूरत सबसे अधिक है।

 हमारे जीवन में कहां छिपा है बसंत का मौसम

हमारे जीवन का हर पड़ाव हर मोड़ पर फिर चाहे वह बचपन हो, लड़कपन हो, जवानी हो और बुढ़ापा, जीवन के हर पड़ाव में कहीं न कही बसंत छुपा होता है। बचपन से बुढ़ापे तक के जीवन में प्रेम परवान चढ़ता है, हर मोड़ पर जीवन के नए सपने देखे जाते है। जीवन को गतिशील बनाए रखने के लिए जिम्मेदारियों का निर्वहन किया जाता है। यह सब खुशी और उमंग के बिना सभंव ही नहीं है।

आज जीवन की जटिल समस्याओं में बुरी तरह से उलझा हमारा मानवीय जीवन न ही जीवन के बसंत को पहचान पाता है न ही प्रकृत्ति के बसंत को निहार पाता है। बेचारे बसंत को हमारे जीवन में पैर टिकाने के लिए जगह की कमी है। वह बस आता है और आहें भरते हुए चला जाता है।

यह संयोग है कि कोरोनाकाल में ठहर गए मानवीय जीवन ने प्रकृत्ति को फिर से निखरने-सवरने का मौका दिया है। हम भी पर्यावरण को संतुलित करने के लिए प्रकृत्ति संरक्षण के उपायों को गंभीरता से लेने लगे हैं। संभव है हम इस बसंत में प्रकृत्ति को मादक बसंत को महसूस करेंगे और जीवन के बसंत को भी।

अपने सुख-दु:ख में जीवन की सार्थकता को पहचानना ही हमारे जीवन का बसंत है। हम सबों को अपने जीवन की सार्थकता को पहचान कर, प्रकृति के साथ जीवन के बसंत को बसंती रंग में भीगने की ज़रूरत है, जहां हर जगह जीवन में खुशियाँ ही खुशियाँ महसूस हों। दुःख भले ही जीवन में आता है पर अच्छी बात है कि वह बीत जाता है।

मूल चित्र : rvimages from Getty Images Signature via Canva Pro 

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

240 Posts | 720,627 Views
All Categories