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कोविड महामारी में विकलांगता के साथ जीना : एक दोहरी चुनौती

कोविड महामारी की वजह से हर कोई परेशान है, तो ऐसे में किसी भी प्रकार की विकलांगता का होना इस चुनौती को और भी गंभीर बना देता है।  

कोविड महामारी की वजह से हर कोई परेशान है, तो ऐसे में किसी भी प्रकार की विकलांगता का होना इस चुनौती को और भी गंभीर बना देता है।  

किसी भी दीर्घकालीन आपदा जैसे कि महामारी में किसी भी तरह की विकलांगता के साथ जीवित व्यक्तियों की चुनौतियाँ अन्यों की अपेक्षा अधिक ही होती हैं। आइये सुनें कुछ आपबीती –

*सुकृति दिल्ली में अपने लोकोमोटर विकलांगता से जूझ रहे पति, 13 वर्षीय बेटी जिसे ऑटिज़्म है और अपने 80 वर्षीय ससुर के साथ रहती हैं। उनके पति को मिलने वाली विकलांगता पेंशन और ससुर को मिलने वाली वरिष्ठ नागरिक पेंशन लॉकडाउन के दौरान कई महीनों तक बंद रही। सुकृति जिस सलून में काम करती थी वो भी बंद रहा और उन्हें जो कुछ अतितिक्त आय था उसका साधन भी छिन गया। एक स्वयंसेवी संस्था की मदद से उन्हें एक सिलाई मशीन और मास्क सिलने की ट्रेनिंग दी गयी, कुछ अन्यों ने राशन और दवाईयां दीं तो उनके पास बस जीवित रहने जितना और सिर पर छत है। लेकिन आय अभी भी बेहद कम है और भविष्य अंधकारमय जान पड़ता है।

अनुमानों के अनुसार भारत की 2.2 % आबादी किसी न किसी विकलाँगता के साथ जीती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार विश्व की 15 % आबादी किसी न किसी विकलांगता से जूझ रही है और इसमें से भी करीब 80 % माधयम या कम आय वाले देशों जैसे कि भारत में है। इससे ये स्पष्ट होता है कि भारत के तो शायद ‘आधिकारिक’ आंकड़े भी सही नहीं हैं।

जो भी व्यक्ति किसी विकलांगता के साथ जी रहे हैं उन्हें इस प्रकार के संक्रमण होने का खतरा भी अधिक रहता है क्योंकि वो अक्सर साफ़-सफाई से जुड़े निर्देशों का पालन पूरी तरह से नहीं कर पाते और औपचारिक रूप से मिलने वाली देखभाल और सहयोग भी ऐसी वैश्विक महामारी में कम हो जाता है।

विकलांगता ग्रस्त व्यक्ति और महामारी

डब्ल्यू एचओ  के Disability considerations during the COVID-19 outbreak  अनुसार विकलांगता ग्रस्त व्यक्ति की देखभाल और उन्हें आर्थिक तथा अन्य प्रकार के सहयोग देने के लिए कई तरह के प्रोटोकॉल जारी किये इसमें न केवल उस व्यक्ति के लिए निर्देश थे पर उन परिवारों और देखभाल कर्ताओं के सहयोग के लिए भी अनेक सुझाव थे जो अक्सर अनौपचारिक रूप से ऐसी जीवन परिस्थितियों को संभाल रहे होते हैं।

महामारी से लॉकडाउन के कारण इनका घूमना-फिरना और सामाजिक मेलजोल ही कम नहीं हुआ बल्कि नौकरीपेशा विकलांग व्यक्तियों के लिए भी अनेक मुश्किलें पैदा हो गयी। कई जगह देखभालकर्ता को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी।

दीपिका जो अपनी अवयस्क बेटी, जो कि सेरिब्रल पाल्सी से पीड़ित हैं, की प्राथमिक देखभालकर्त्ता हैं, उन्हें अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा देना पड़ा क्योंकि उनका काम ऐसा था जो लम्बे समय तक वर्क फ्रॉम होम नहीं हो सकता था। बच्ची की देखभाल के लिए आने वाली सहयोगी का आना भी रुक गया और थेरेपी भी जिसके कारण उसे भी कई बर्ताव संबंधी अतिरिक्त समस्याओं से जूझना पड़ा। ऐसे में,दीपिका को न केवल अपनी आर्थिक आत्मनिर्भरता बल्कि अपनी नींद और मानसिक स्वास्थ्य से भी समझौता करना पड़ा। हालाँकि अब लॉकडाउन समाप्त हो गया है पर दीपिका और उनकी बेटी की ये प्रतिबंधित ज़न्दगी जारी है।

सब कुछ ऑनलाइन होने के कारण जिस डिजिटल डिवाइड की बात हुई वो भी विकलांग व्यक्तियों के लिए अधिक दूभर साबित हुई। कईओं को इस कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी निर्देश भी उपलब्ध नहीं हो पाए। अपनी विशिष्ट ज़रूरतों के कारण अधिकाँश नए वर्क फ्रॉम होम माहौल में कार्य करने में असमर्थ रहे। ब्रेल भाषा, संकेत भाषा और प्रादेशिक भाषाओं में सभी जानकारियों की कमी भी एक बहुत बड़ी चुनौती रही। कई विद्यार्थी इस कारण ऑनलाइन शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाए और कई डॉक्टर से टेलीहेल्थ सेवाएं भी प्राप्त नहीं कर पाए।

भारत की विशिष्ट चुनौतियाँ

भारत सरकार ने कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए आरोग्य सेतु एप्प चलायी और इसे कुछ स्थानों और सेवाओं के लिए अनिवार्य भी बनाया। लेकिन शुरुआती दौर में ये एप्प विकलाँग व्यक्तियों के लिए बिलकुल भी सुलभ नहीं थी खासकर दृष्टि संबंधी विकलांगता के लिए। इसके अलावा ये सिर्फ स्मार्टफोन पर चलती थी और सबके पास वो सुविधा नहीं थी। इसके अलावा इस एप्प की सुरक्षा को लेकर भी अनेक दुविधाएँ थी ही जो एक विकलांग व्यक्ति के लिए अन्यों की अपेक्षा अधिक ही होती हैं।

भारत में ऐसी चुनौतियाँ दो कारणों से और भी कठिन हो जाती हैं :-

  • विकलांगता संबंधी विशिष्ट स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव
  • उपलब्ध सेवाओं का भी सब तक नहीं पहुँच पाना जिसके कारण- जागरूकता की कमी, समाज में विकलांगता को लेकर गलत मान्यताएं और दिद्गिटल शिक्षा की कमी है।

2018 के NSO सर्वेक्षण के अनुसार भारत में केवल 28.8% विकलांग व्यक्तियों के पास इसका प्रमाण पत्र है। एक बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है जिनकी विकलांगता ख़ास कर मानसिक या वृद्धावस्था सम्बंधित विकलांगता प्रमाणित नहीं है। ऐसे लोग न आंकड़ों में हैं और इसीलिए किसी योजना या शोध का हिस्सा भी नहीं हैं।

*गीत को स्किज़ोफ़्रेनिया है। वो दवाओं के साथ ठीक थी और एक सुपरमार्केट में नौकरी कर रही थी। लॉकडाउन के कारण उसे मिलने वाली दवाई नहीं मिल पायी और उसकी नौकरी भी चली गयी।  हालत इतनी बिगड़ी कि पड़ोसियों को उसे हस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा।  अब वो हस्पताल से लौट तो आयी हैं पर पूरी तरह से ठीक नहीं है इसलिए एक महिलाओं के लिए आश्रय गृह में रह रही है। वहाँ भी आर्थिक दिक्कतें हैं तो संस्था भी नहीं जानती किवो कब तक उसे वहाँ रख पाएंगे।

इण्डिया स्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार कोविड के कारण मानसिक बीमारियों से जूझ रहे करोड़ों लोगों के लिए ज़रूरी सुविधाओं और दवाओं के अभाव में महामारी का दुष्प्रभाव और भी बुरा रहा। 

इस तरह की मानवीय त्रासदियों में विशेषज्ञों से मिलने वाली सेवाओं में भी कमी आयी। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी अनेक चुनौतियों के कारण ऐसे मरीज़ों तक वायरस से जुड़ी स्वास्थ्य सुविधाएँ भी नहीं पहुँच पायीं। इसके अलावा जेंडर से जुड़े भेदभाव भी सामने आये। विकलांग महिलाओं और बच्चों के लिए ये और भी मुश्किल हुआ। ह्यूमन राइट्स वाच के एक सर्वेक्षण के अनुसार ये न केवल यौनिक शोषण के लिए अधिक खतरे में रहते हैं बल्कि इन्हे कुछ मूलभूत सुविधाएँ जैसे टॉयलेट और मासिक से संबंधित सामान भी नहीं मिल पाया।

सुविधाएँ और सेवाएँ

विकलांगता के क्षेत्र में काम कर रहे कई व्यक्तियों और संस्थाओं जैसे कि अंजलि, संगति, एवारा और बानयन ने विकलांग व्यक्तिओं को अनेक सेवाएं और सहयोग उपलब्ध करवाए कि आर्थिक मदद, राशन, स्वास्थ्य सुविधा और दवाएं और रोज़गार भी जैसे कि मास्क सिलने जैसे काम जिनकी माँग महामारी से ही बढ़ी।

एवरा फाउंडेशन के संस्थापक के जारी किये गए एक बयान के अनुसार, “लॉकडाउन के दौरान विकलांगता से पीड़ित लोगों की पीड़ा हमारे द्वारा किये गए राष्ट्रव्यापी अध्ययन से स्पष्ट थी। इस अध्ययन से स्पष्ट है कि विकलांगता से पीड़ित 75% लोग, भावनात्मक चनौतियों, जैसे कि अवसाद, चिंता और आत्महत्या के विचारों, से जूझ रहे हैं। यह स्तिथि चिंताजनक है क्यूंकि इन में से 60% लोगों के पास आय का कोई ज़रिया नहीं है। इस स्तिथि में परीक्षा/इंटरव्यू रद्द/पोस्टपोन होने की वजह से, कई लोगों के, एक बेहतर ज़िन्दगी पाने के,सपने बिखर गए हैं। इनमें से एक बड़ी संख्या का कहना है कि इस समय उन्हें भोजन/चिकित्सा/आश्रय जैसी बुनियादी आवश्यकताएं भी नहीं मिल पा रही हैं।”

भारतीय सरकार ने Comprehensive Disability Inclusive Guidelines for Protection and Safety of Persons With Disabilities (Divyangjan) During COVID-19  जारी किया जिसमें राज्यों को भी स्पष्ट निर्देश दिए गए लेकिन आपसी तालमेल की कमी और इसके केवल एक दिशानिर्देश होने के कारण अमल पूरा नहीं हुआ।

भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले और अति गंभीर विकलांगता जूझ रहे लोगों के लिए पेंशन का प्रावधान भी है लेकिन इसमें भी कई विषमताएँ पायी गयीं। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के अंतर्गत तीन महीनों में दो किस्तों में 1000 रुपये देने का भी प्रावधान था लेकिन ये राशि भी 80% विकलांगता के प्रमाण पात्र वाले लोगों को ही दी गयी, सबको नहीं मिली। जिनके पास “प्रतिशत” में विकलांगता का प्रमाण नहीं है उन्हें इससे कोई लाभ नहीं हुआ। ऐसा अदृश्य विकलांगता में भी अक्सर होता है।

कई शोध ये साबित कर चुके हैं कि गरीबी और विकलांगता एक दूसरे से गहन रूप से जुड़े हैं, अब ज़रूरत है एक सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था की जो सबके लिए सुलभ हो ख़ास कर विकलांगों के लिए।

नोट : *नाम बदले गए हैं 

मूल चित्र : Screenshot Margarita With A Straw, YouTube   

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Pooja Priyamvada

Pooja Priyamvada is an author, columnist, translator, online content & Social Media consultant, and poet. An awarded bi-lingual blogger she is a trained psychological/mental health first aider, mindfulness & grief facilitator, emotional wellness trainer, reflective read more...

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