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क्या आप दिल्ली की तूफानी बहन सत्यवती देवी को जानते हैं?

सत्यवती देवी के जोशपूर्ण भाषणों को सुनने के लिए दिल्ली के रूढ़िवादी समुदायों की महिलाएं बड़ी संख्या में आतीं जिनके बीच वे एक किंदवंती महिला बन गईं।

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सत्यवती देवी के जोशपूर्ण भाषणों को सुनने के लिए दिल्ली के रूढ़िवादी समुदायों की महिलाएं बड़ी संख्या में आतीं जिनके बीच वे एक किंदवंती महिला बन गईं।

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में पुरुषों के साथ महिलाएं भी अपनी भागीदारी दर्ज करा रही थीं। परंतु, भागीदारी दर्ज कराने वाली महिलाओं में अधिकांश महिलाएं संभ्रात घरानों से आती थीं जो बेशक पढ़ी-लिखी भी थीं। उस दौर में पुरुष अपने घरों के बाहर महिलाओं की मौजूदगी को बेहतर नहीं समझते थे। जो आम महिलाओं के भागीदारी चाहते भी थे वह भी कई तरह के विरोधाभासी विचारों से बंधे हुए थे।

दिल्ली के घरों में समान्य काम-काज देखनी वाली महिलाओं को उनके घरों से बाहर निकालने के लिए, उस दौर के तमाम रूढ़िवाद और रूढ़िवाद के गढ़ों को तोड़ने का काम जिस महिला ने किया, वो सत्यवती देवी थीं। उनके जोशपूर्ण भाषणों को सुनने के लिए दिल्ली के रूढ़िवादी समुदायों की महिलाएं बड़ी संख्या में आती। अपने इस कार्य से सत्यवती उस दौर की आम महिलाओं के बीच एक किंदवंती महिला बन गई।

सत्यवती देवी का जन्म एवं प्रारंभिक जीवन

आर्य समाज से जुड़े प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता स्वामी श्रद्धानंद की पोती सत्यवती देवी का जन्म 26 जनवरी 1906  में पंजाब के जालांधर में हुआ। मां वेद कुमारी गांधीजी की अनुयाई और समाजसेवी थी। समान्य शिक्षा-दीक्षा और समाजसेवा के महौल में पली-बढ़ी सत्यवती समाजवादी रुझान के तरफ अधिक आकर्षित थी। 1922 में उनका विवाह हुआ और वह दिल्ली आ गई। उनके पति वीरभद्र दिल्ली कपड़ा मिल में अधिकारी थे। जिन्हें सत्यवती की सार्वजनिक भागीदारी पहले पसंद नहीं थी, पर सत्यवती के देशप्रेम को देख उन्होंने सहमति दे दी।

तूफानी बहन का संबोधन

पति के कपड़ा मिल के मजदूरों के समस्या से वाकीफ होने के दौरान, उनका मिलना दुर्गा देवी और कौशल्या देवी से हुआ। ये दोनों महिलाएं किसान-मजदूरों के समस्याओं को समझने और उनका निदान करने में संघर्षरत थी। सत्यवती के समाजवादी रूझान को मजदूरों और किसानों की समस्याओं ने मार्क्सवाद में जवाब मिलने शुरु हुए। किसी भी ईश्वरी सत्ता में उनका विश्वास और समाजवादी रूझान उनके भाषणों और व्यक्तित्व में नया तेज देता जिसकों लोग “तूफानी बहन” का संबोधन देते।

अपने विचारों के साथ उन्होंने कांग्रेस में रहकर “कांग्रेस महिला समाज” और “कांग्रेस सेवा दल” जैसे संगठन खड़े किए। बाद में वह “कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी” के संस्थापक सदस्य भी बनी। जहां उन्होंने दिल्ली के कपड़ा मिलों के श्रमिकों को विशेषकर महिला श्रमिकों को राजनीतिक रूप से जागरूक करने का काम किया। उनके भाषणों को सुनकर हिंदू कांलेज और इंद्रप्रस्थ कालेज की छात्राएं और महिलाएं काफी आकर्षित होतीं। चौपाल पर काम करने वाली महिलाओं को आजादी के लड़ाई में शामिल करने का श्रेय सत्यवती देवी को ही दिया जाता है।

स्वतंत्रता आंदोलनों में फिर चाहे वह नमक सत्याग्रह हो या सविनय अवज्ञा आंदोलन दिल्ली में उसके समर्थन में प्रतिरोध की जमीन आम महिलाओं के साथ मिलकर सत्यवती ने ही तैयार किया। जिसमें अधिकांश वह महिलाएं थीं जो या तो गृहणियां थी या उनके पति बहुत पहले ही गुजर चुके थे।

जब यह महिलाएं सत्यवती के नेतृत्व में सड़कों पर आईं और लाठी-चार्ज और मारपीट का सामना किया, तो दिल्ली के लोग दंग रह गये। सभी महिलाओं के दिखाएं साहस से अंचभित थे। यही वह पृष्ठभूमि है जिसने दिल्ली में महिलाओं के रास्ते तय कर दिए, वह केवल पुरुषों के साथ स्वतंत्र और समान अधिकार के भारत के लिए सड़को पर नहीं आई। दिल्ली के महिलाओं का भविष्य की खूबसूरत तस्वीर का कैनवास उन्होंने बड़ा कर दिया।

आंदोलन का दिशा-निर्देश उन्होंने नहीं छोड़ा

दिल्ली की महिलाओं, मजदूरों और किसानों को संगठित करने का उनका प्रयास, जब ब्रिटिश सरकार को चुभने लगा, तब सत्यवती के जेल यात्रा का सफर शुरू हुआ। “आधी-आबादी के संघर्ष” में ममता जेतली बताती हैं कि एक विरोध में सत्यवती अपनी दूधमुंहे बच्चे को साथ लेकर शामिल हुई। गिरफ्तारी में उनके बच्चे उनसे छिन लिए गए, इसका विरोध इतना अधिक हुआ कि अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा और बच्चे वापस लौटाने पड़े।

लाहौर जेल में उनके साथ अरुणा आसफ अली भी थीं पर उनका स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण उन्हें रिहा तक कर दिया गया। अपने बायोग्राफी में अरुणा आसफ अली सत्यवती को याद करते हुए लिखती हैं कि “अपने मृत्यु से पहले कुछ दिनों तक सत्यवती भूमिगत रही उस समय अरूणा आसफ अली भी उनके साथ थीं, उन्होंने ही प्रेस वक्तव्य देकर अरूणा के बारे में कहा था कि उन्हें इस बात की बहुत प्रसन्नता है कि अरुणा ने गिरफ्तारी से बचते हुए आजादी का झंडा फहराए रखने में सफलता प्राप्त की है। उनके इस उद्गार ने मुझपर बहुत गहरा प्रभाव डाला।” अपने स्वास्थ्य के बारे में अधिक फ्रिकमंद न होने और डाक्टरी सलाह को नजरअंदाज करने के कारण सत्यवती कमजोर होती चली गई। परंतु आन्दोलनों को दिशा-निर्देश उन्होंने नहीं छोड़ा।

मात्र 41 वर्ष के उम्र् में उनका निधन हो गया। दिल्ली में स्थिति सत्यवती कालेज आज भी दिल्ली के लिए उनके कर्म की याद दिलाता है। जैसे-जैसे स्वतंत्रता का संघर्ष आगे बढ़ा, भारतीय महिलाओं ने पूरे देश में संघर्ष किया और इस तरह पुरुषों के साथ स्वतंत्र और समान होने का अधिकार अर्जित किया। इसका श्रेय अकेले सत्यदेवी को जाता है, अन्यथा महिलाएं हमेशा पुरुषों के गुलाम बनकर रह जातीं, जो भोजन तैयार करतीं और उनकी देखभाल करतीं। उन्होंने दिल्ली के महिलाओं को यथास्थिति से निकालकर, भविष्य के तरफ देखने की राह दिखाई उसे भूलाया तो नहीं जा सकता है, परंतु अफसोस उन्हें याद भी शायद किया जाता है।

नोट: सत्यवती देवी के बारे में अधिकांश जानकारीयां अरुणा आसफ अली के बायोग्राफी और ममता जेतली के किताब से जुटाई गई हैं।

मूल चित्र : भारतकोष 

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