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विवाहित भुवनेश्वरी पुराणिक ने अपने पिता, स्व. अशोक की बेटी होने के नाते, उनकी नौकरी प्राप्त करने के लिए राज्य सरकार को अर्जी दी थी।
बेटे और बेटियों मैं अंतर करना तो भारतीय समाज की सदियों से पहचान रही है। हमारे समाज में लड़कियों को पराया धन माना जाता है जिसे एक दिन दूसरे घर चले जाना है। लड़कों को बुढ़ापे की लाठी और वंश को आगे बढ़ाने वालों के रूप में देखा जाता है। इसीलिए देश में कई सालों से बेटे और बेटियों के अधिकारों पर भी बहस चल रही है।
हाल ही में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक ऐसा फैसला दिया है जिसने महिला अधिकारों को संरक्षित किया है। यह मामला है भुवनेश्वरी पुराणिक का जिन्होंने कर्नाटका उच्च न्यायालय में अर्जी लगाई थी। अशोक की पुत्री होने के नाते, उनका देहांत होने पर उनकी नौकरी प्राप्त करने के लिए उन्होंने अर्जी दी थी।
राज्य सरकार ने अपॉइंटमेंट ऑन कंपैशनेट ग्राउंड्स का हवाला देकर उनकी अर्जी को ठुकरा दिया और कहा कि यह नौकरी सिर्फ बेटों को मिल सकती है, विवाहित बेटियों को नहीं।
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के इस फैसले को नामंजूर करते हुए राज्य सरकार को फटकार लगाई है और कहा है कि भुवनेश्वरी को एक महीने के अंदर-अंदर नियुक्त कर दिया जाए।
हमारे देश का संविधान लैंगिक समानता को मानता है। उच्च न्यायालय का मानना था कि भुवनेश्वरी को नौकरी ना देना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। संविधान के 14वें अनुच्छेद के अनुसार सभी नागरिक चाहे वह किसी भी जाति धर्म या लिंक के हों, सभी बराबर हैं।
यह पूरा वाक्या हमारे समाज की एक सच्चाई को उजागर करता है जो बेटियों को पराया धन मानती है। इस सोच के कारण यह मान लिया जाता है कि बेटियां शादी होने के बाद सिर्फ अपने ससुराल की ही रहेंगी और उनका सारा दायित्व अपने ससुराल वालों के प्रति ही होगा। अगर बेटा विवाहित हो तो उसे अपने पिता की नौकरी मिल सकती है परंतु बेटी को नहीं। आज हम 21वीं सदी में जीत रहे हैं लेकिन हमारा समाज और उसकी सोच आज भी 18वीं सदी में कैद है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भुवनेश्वरी को उसका हक देते हुए यह कहा है कि प्रकृति ने महिलाओं को बहुत सारे गुण दिए हैं तो कानून उनको उनका हक भी नहीं दे सकता? सच्चाई तो यह है कि जब शादी के बाद बेटे और मां बाप का रिश्ता परिवर्तित नहीं होता तो, बेटियां शादी के बाद ही पराई क्यों हो जाती हैं?!
यह हमारे समाज का कड़वा सच है जो आज भी लैंगिक आधार पर सिर्फ सामाजिक ही नहीं अपितु कानूनी रूप मैं भी भेदभाव करता है। कर्नाटक उच्च न्यायालय का यह फैसला एक सकारात्मक कदम है। ऐसा फैसला भविष्य में महिला अधिकारों को सुरक्षित करने की पहल कर सकता है।
परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बदलाव किसी कानून से नहीं आएगा क्योंकि 75 वर्ष पहले हमारे संविधान लैंगिक समानता को मान्य कर चुका है परंतु हम आज तक उस लैंगिक समानता को समाज में परिलक्षित नहीं कर पाए हैं।
मूल चित्र : GC Shutter from Getty Images, via Canva Pro(for representational purpose only)
Political Science Research Scholar. Doesn't believe in binaries and essentialism.
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