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क्या फिल्म सूरज पर मंगल भारी खींच रही है दर्शकों को सिनेमाघर की ओर?

फिल्म सूरज पर मंगल भारी को हास्य और व्यंग्य के खूबसूरत धागे में पिरोने की कोशिश की गई है, जो शुरू से अंत तक मनोरंजन करने से नहीं चूकती है।

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फिल्म सूरज पर मंगल भारी को हास्य और व्यंग्य के खूबसूरत धागे में पिरोने की कोशिश की गई है, जो शुरू से अंत तक मनोरंजन करने से नहीं चूकती है।

लॉकडाउन में बंद हुए सिनेमाघरों ने अपनी नई पारी शुरुआत लॉकडाउन खुलने के बाद अभिषेक शर्मा की फिल्म सूरज पर मंगल भारी से की है। मनोज वाजपेयी, दिलजीत दोसांझ, फातिमा शेख, सुप्रिया पिलगांवकर, मनोज पाहवा, अनु कपूर अभिनित फिल्म सिनेमाघरों पर कितना भारी पड़ती है, इसका पता कुछ दिन बाद बाक्स आफिस कलेक्शन से ही पता चलेगा। अभिषेक शर्मा तेरे बिन लादेन जैसी फिल्मों के निर्देशन के बाद एक रोमांटिक कांमेडी से मनोरंजन करने का प्रयास किया है और थोड़ा-बहुत कामयाब होते हुए दिखते भी है।

फिल्म में सूरज सिंह दिल्लन(दिलजीत दोसांझ) एक पैसे वाले, दूधवाले परिवार से हैं। उसके माता-पिता चाहते है कि वह घर बसा ले और सूरज भी सही लड़की की तलाश में है। एक वेडिंग जासूस मधु मंगल राणे(मनोज वाजपेयी) है जो दूल्हा-दुल्हन से रिश्तों के बीच एक अहम भूमिका निभाता है। वह लड़की के परिवार वालों का चाल-चलन पता करके लड़की वालों को अगाह करता है।

सूरज बाद में तुलसी(फातिमा सना शेख) को डेट करना शुरू करता है और यह जानकर स्तब्ध रह जाता है कि वह मंगल की बहन है। उसके बाद कहानी सूरज और मधु के कॉमेडी के सहारे आगे बढ़ती है जो जंग सरीखी लगती है। अंत मे, जैसे-तैसे हैप्पी एंडिग होती है।

पूरी की पूरी फिल्म को हास्य और व्यंग्य के खूबसूरत धागे में पिरोने की कोशिश की गई है जो शुरू से अंत तक मनोरंजन करने से नहीं चूकती है। लॉकडाउन के बाद सिनेमाघरों में जाकर सूरज पर मंगल भारी के रोमांटिक-कामेडी का मजा लेना होगा क्योंकि यह किसी ओटीपी पर रिलीज़ नहीं हो रही है।

अभिनय की बात करे तो सभी कलाकारों ने बेहतर काम किया है। संवाद में दलजीत दोसांझ का मोनोलांग जो मनोज वाजपेयी के लिए है वो गुदगुदी पैदा करती है। मनोज वाजपेयी को इससे पहले किसी फिल्म में एक साथ अलग-अलग रूपों में नहीं देखा गया है उसकी तारीफ होनी चाहिए। खासकर एक मराठी चरित्र निभाने के लिए मराठी भाषा का उच्चारण जिस तरह मनोज वाजपेयी ने किया है वह भी पुरुष और महिला दोनों के चरित्र में। वह दर्शकों को बांधता है।

दिलजीत दोसांझ की कॉमेडी टाइमिंग और उनके पंच अच्छे बन पड़े है खासकर उनके बोलने का तरीका काफी एंटरटेनिंग लगते भी हैं। उनके और मनोज वाजपेई के बीच के सीन भी दर्शकों को काफी लुभाते हैं।

फातिमा के साथ उनके इमोशनल सीन हैं उसमें भी ने बढ़िया नजर आते हैं। फातिमा बहुत ही उम्दा अदाकारा हैं और फिल्म में उनका किरदार एक साथ दो चरित्र को जीता है। उन्होने दोनों चरित्र में नपा-तुला अभिनय किया है। फिल्मी अनु कपूर और सुप्रिया पिलगांवकर, भी उम्दा अभिनय करते हुए नजर आते है।

इन सबों के बीच में महिलाओं के बारे में और उनकी पसंद की स्वतंत्रता पर, करियर के साथ-साथ शादी के बारे में भी हल्का सा शोर कहानी में दिखता है, जो अक्सर मध्यवर्गीय परिवारों के फिल्मी कहानी में दिखाया भी जाता है। वो कभी मुफीद जवाब को तलाशने की कोशिश नहीं करता है। इस तरह के प्रतीकवाद और व्यंग्य के बारे में एक बुनियादी समस्या है वह कभी बेहतर विकल्प की तलाश नहीं करता है और समस्या जस की तस बनी रहती है।

मुझे लगता है कि फिल्म बहुत अधिक बुद्धिमान उपचार के साथ, एक व्यंग्यपूर्ण व्यंग्य भी हो सकता था, पर उसने सिर्फ रोमांटिक कॉमेडी को ही पकड़ा है। जिसमें वह कामयाब भी हो जाती है।

महिलाओं के बारे में महत्वपूर्ण और मारक बात का रोमांटिक कॉमेडी में पीछे छूट जाना थोड़ा मुझे थोड़ा अखरा। शायद निर्देशक फिल्म को उपदेशक फिल्म के तरह नहीं देखना चाहते थे इसलिए विषय को बैकग्राउड में रखा है और रोमांटिक कॉमेडी को सबके सामने।

चित्र साभार : Screenshot of Trailer, YouTube 

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