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अक्षय कुमार की फिल्म लक्ष्मी अपने लक्ष्य से कोसों दूर है…

अक्षय कुमार की फिल्म लक्ष्मी ट्रांसजेंडर के सामाजिक समस्या पर बात करती हुई फिल्म हारर-कामेडी में भटक कर फेल हो जाती है। 

अक्षय कुमार की फिल्म लक्ष्मी ट्रांसजेंडर के सामाजिक समस्या पर बात करती हुई फिल्म हारर-कामेडी में भटक कर फेल हो जाती है। 

समाज में ट्रांसजेंडर लोगों को उचित सम्मान दिलाने के लिए नोएडा मेट्रो रेल कांपरेशन ने नोएडा सेक्टर-50 मेट्रो स्टेशन को जेंडर प्राइड का सिर्फ नाम ही नहीं दिया। इन्होने माही गुप्ता(टांम आंपरेटर). पान्या(टांम आंपरेटर), सूरज/काजल(टांम आंपरेटर), शानू(टांम आंपरेटर), पवन/प्रीति(हाउस कीपिंग), कुनाल माहोर(हाउसकीपिंग) को काम करने का अवसर दिया (टांम आंपरेटर का अर्थ काउंटर पर बैठने वाली कर्मी)।

एक तरफ हमारे सामने इन ट्रांसजेंडर लोगों की कहानी है जो अपने मेहनत और लगन से अपनी सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति को बदलने के लिए संघर्ष कर रही है। वहीं हमारे सामाने लक्ष्मी जैसी फिल्में हैं जिममें ट्रांसजेंडर चरित्रों की कहानी सामने आती तो है सामाजिक-सांस्कृत्तिक उपेक्षा से पीड़ित दिखती है पर अपने जीवन में सम्मान पाने के लिए भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र और दैवीय कृपा पर निर्भर है।

ट्रांसजेंडर लोगों के जीवन या उनके संघर्ष की कहानी कहने के लिए फिल्मकारों को इस वर्ग की नई अथवा संभावित आधुनिक तस्वीर की तलाश करनी होगी। क्योंकि अब तक उनकी कहानी को हिंदी सिनेमा ने सहज-सकारात्मक छवि में नही देखा है।

वास्तव में वह ट्रांसजेंडर लोगों की उसी पारंपरिक छवि को मजबूती देते हैं जिसमें वे रहस्यमयी और लगभग डरावने दिखते हैं। हकीकत से अलग इस तरह की छवियां ट्रांन्सजेंडर वर्ग के लोगों का संघर्ष और अधिक कठिन कर देते हैं। आज अधिक जरूरी है कि ट्रांसजेंडर वर्ग की कहानी कहने के लिए फिल्मों या वेबसीरीज के निमार्ता-निदेर्शक अधिक क्रिटिकल हो। कम ही सही पर ट्रांसजेंडर वर्ग में भी बेमिसाल उपलब्धियां धीरे-धीरे जगह बना रही हैं।

ओटीटी प्लेटफांर्म डिज्नी हॉटस्टार पर राघवा लांरेंस ने तमिल फिल्म मुनि 2 उर्फ कंचना की कहानी को थोड़ा बहुत बदलकर लक्ष्मी के रूप में कही है। सरल शब्दों का सहारा लिया जाए तो यह एक भटकती हुई आत्मा की कहानी जो अपने साथ हुए धोखे का बदला लेना चाहती है, कामेडी-हारर इसमें बेवजह ठूंस दिया गया है। अक्षय कुमार ट्रांसजेडर की आत्मा की सवारी करते हुए जो कुछ भी करते है वह केवल एक फूहड़ता पेश करती है।

आसिफ(अक्षय कुमार) से जो अंधविश्वास के नाम पर लोगों को जागरूक करने का प्रयास करता है और उसने रश्मि(कियारा आडवाणी) से लव मैरिज की है। इस रिश्ते से रश्मि के पिता, जिसकी भूमिका में राजेश शर्मा है, खुश नहीं हैं। रश्मि की मां अपने बेटी को दामाद के साथ घर आने की निमंत्रण देती है कि दोनों आकर पिता(राजेश शर्मा) की नाराजगी दूर कर दें।

आसिफ-रश्मि के पहुंचते ही घर के बगल के कंपाउंड से भूत निकलकर इस परिवार में आ जाता है। उसके बाद यह भूत अपने धोखे का बदला लेती है। अक्षय कुमार की यह कामेडी हारर दशर्कों को अधिक प्रभावित नहीं करती है। फिल्म को पारिवारिक बनाने के लिए बच्चों का इस्तेमाल किया गया है, पर वो आधी फिल्म के बाद गायब हो जाते हैं।

एक रीमेक कमजोर पटकथा, अक्षय कुमार पर निर्भरता और हारर-कमेडी का मिश्रण कहानी को ट्रेक से उतार देता है। शरद केलकर ट्रांसजेंडर पात्र के साथ थोड़ा न्याय करते नज़र ही नहीं आते हैं बल्कि वे ट्रांसजेंडर के अभिनय में अक्षय कुमार से बीस भी ऩजर आते है। कियारा आडवाणी, राजेश शर्मा और अन्य कलाकार खास प्रभावित नहीं करते हैं। कियारा के पास फिल्म में सुंदर दिखने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था, वही वह दिखी है।

कुल मिलाकर ट्रांसजेंडर लोगों की सामाजिक समस्या पर बात करती हुई फिल्म हारर-कामेडी में भटक जाती है। एक समुदाय विशेष के कारण फिल्म के नाम ‘लक्ष्मी बम’ से भले ही बम शब्द हटा लिया तो अच्छा ही किया क्योंकि बम न ही धमाका करता है न ही ज्यादा धुंआ, वह बस फुस्स हो कर रह जाता है।

दर्शक अपनी निराशा को दूर करने के लिए मूल फिल्म कंचना से अधिक निराश नहीं होगे। लक्ष्मी अपनी कहानी उसको कहने के तरीके, अभिनय, कामेडी के लिए ह्यूमर और डराने के लिए हॉरर जोन, हर चीज में निराश करती है।

चित्र स्रोत : Screenshot of Laxmii, YouTube 

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