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कस्तूरबा और महात्मा गाँधी : एक दूसरे के ‘बा’ और ‘बापू’

महात्मा गाँधी की सेवा करती कस्तूरबा की तस्वीर पर अक्सर सवाल होता कि गांधीजी स्वयं उनसे पैर धुलवाते थे और वे स्त्री मुक्ति की बात कैसे करते थे?

महात्मा गाँधी की सेवा करती कस्तूरबा की तस्वीर पर अक्सर सवाल होता कि गांधीजी स्वयं उनसे पैर धुलवाते थे और वे स्त्री मुक्ति की बात कैसे करते थे?

हर सफल पुरूष के पीछे किसी महिला का हाथ होता है, महात्मा गांधी उन विरले पुरुषो में से है जो यह स्वीकार करते हैं कि मोहन दास मे महात्मा गांधी बनाने में बा का बहुत बड़ा हाथ था। इस सत्य को गांधी माई फादर फिल्म में हरि लाल  गांधी का चरित्र एक संवाद में महात्मा गांधी से कहता है, “आप अगर आज महात्मा बने हैं तो मेरी बा के वजह से बने हैं” और वह नारा लगाता है, “माता कस्तूरबा की जय!”

कस्तूरबा और महात्मा गाँधी

फिल्म का यह दृश्य करोड़ों दिलों में जैसे धंस गया और महात्मा गांधी के व्यक्तित्व निमार्ण में कस्तूरबा के योगदान का सिलसिला शुरू हुआ। इसके पहले महात्मा गांधी की सेवा करती कस्तूरबा गांधी की तस्वीर पर चर्चा करते हुए अक्सर यह सवाल खड़ा किया जाता था कि गांधी स्वयं अपनी पत्नी से पैर धुलवाते थे, वह स्त्री मुक्ति या आजादी की बात कैसे कर सकते हैं?

कस्तूरबा ने साधारण इंसान को राष्ट्रपिता बनते देखा

एक पत्नी को उसके पति की वैचारिक तराजू पर मापने-तौलने के पहले और सेवाग्राम आश्रम(महाराष्ट्र) के पास कस्तूबरा मेडिकल कॉलेज देखने के पहले मैं भी यही मानता था। यहीं मैं इस तथ्य से परिचित हुआ कि कस्तूरबा शायद दुनिया की एक मात्र महिला होंगी जिन्होंने एक साधारण इंसान मोहन को बैरिस्टर मोहन दास, फिर महात्मा गांधी फिर बापू और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी बनते हुए देखा होगा, वो भी सबसे ज्यादा करीब से। कई बार भारतीय आस्थावान संस्कार में पली-बढ़ी महिला कस्तूरबा गांधी को अनचाहे सत्य का सामना भी करना पड़ा होगा। हो सकता है विकल्पहीनता या विकल्प होने के बाद भी उन्होंने इस सफर को जारी रखने का फैसला लिया होगा।

कस्तूरबा पढ़ी-लिखी नहीं थी, इसलिए उनका स्वयं का लिखा हुआ कुछ भी मौजूद नहीं है। उनके बारे में अधिकांश बाते गांधीजी ने स्वयं लिखते थे या फिर आश्रम में उनके साथ रही महिलाओं ने जो उनके साथ आश्रम में रही। आश्रम में साथ रहने वाली महिलाओं के लेखने में ममत्व और उदार चरित्र का वर्णन अधिक है कस्तूरबा के अंदर के घट रहे उतार-चढ़ाव का कम।

गाँधी ने सत्याग्रह का रहस्य का कस्तूरबा से सीखा

महात्मा गांधी के लिखे लेख और रचनाओं को खंगाला जाए जो कमोबेश अब आनलाइन मुफ्त में उपलब्ध भी है वह स्वयं स्वीकार्य करते है कि उन्होंने सत्याग्रह का रहस्य का कस्तूरबा से सीखा था, वह उन्हें सत्याग्रह की कला और उसके विज्ञान का गुरू मानते है। हालांकि वह कस्तूरबा की आलोचना से भी नहीं कतराते है मसलन हरिजन के मंदिर प्रवेश आंदोलन में जब कभी कस्तूरबा मंदिर दर्शन करने चली जाती तो गांधीजी गंभीर आपत्ति दर्ज करते हुए लेख तक लिख देते थे। इस कस्तूरबा का पक्ष आज भी अधूरा ही है।

कस्तूरबा के स्वभाव में दब्बूपन नहीं था

गांधी इस सत्य को भी सहजता से स्वीकार्य करते है कि उन्हें यह ज्ञात है जिस समय कस्तूबरा से उनका विवाह हुआ वह मात्र 13 साल के थे उन्हें न ही कस्तूरबा के जन्म की तारीख याद है न ही कस्तूरबा के साथ अपने विवाह की तारीख। अंदाज के हिसाब से जो साल कस्तूरबा के जन्म का बताया जाता है उस तरह से वह गांधीजी सी छः महीने बड़ी थीं।

यह सत्य भी दर्ज है कि लड़कपन के दिनों में ही नहीं यौवन के दिनों में भी उन्होंने कस्तूरबा पर सख्ती से नियंत्रण किया, कहीं भी जाने के लिए उन्हें कस्तूरबा को अनुमति लेनी पड़ती थी। उन्होंने बहुत प्रयास किया कि कस्तूरबा पढ़े-लिखे, पर यह कभी हो नहीं सका।

कस्तूरबा की सहमति ज़रूरी

कस्तूरबा के स्वभाव में दब्बूपन नहीं था दोनों काफी लड़ते झगड़ते भी थे। गांधी जब बैरिस्टरी पढ़कर वापस आए तो कस्तूरबा को अंग्रेजी तरबीयत देने की बहुत कोशिश की जैसे कांटे-छूरी से खाना और उठना-बैठना पर यह कभी सफल नहीं हुए। जिसके कारण नोक-झोंक बढ़ गया और दोनों कें काफी क्षोभ हुआ। यहां तक कि जब महात्मा गांधी जब कस्तूरबा के साथ दक्षिण अफ्रीका गए और गांधी के अपने जीवन के प्रयोग में कस्तूरबा की सहमति नहीं रहती तो नोक-झोंक कस्तूरबा को घर से निकालने तक आ जाती थी, जिसमें एक बार कस्तूरबा को घर से जाना पड़ा। अपनी तमाम कमजोरियों के बाद भी उन्होंने कस्तूरबा से अलग नहीं होना चाहा।

कस्तूरबा और महात्मा गाँधी एक दूसरे का सम्मान करते

बाद में दोनों ने एक-दूसरे से सीखना और सम्मान देना शुरू किया। जिससे विश्वास का जो मजबूत रिश्ता बना वह कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी साथ चला। यहीं से महात्मा गांधी के नज़र में कस्तूरबा का एक नया रूप तैयार हुआ। महात्मा गांधी स्वयं लिखते है कि “वह कस्तूरबा की इच्छा शक्ति देखकर दंग रह जाते थे जब वह कहती थी अगर जेल तुम्हारा पीहर है, तो यह मेरी नई ससुराल है।”

कस्तूरबा की सत्यग्रह में भूमिका

गांधीजी यहां सीखते हैं कि जब खुद पर आंच आए तो खुद ही उठना होगा। इस साबित फार्मूले को वो महिला सत्याग्रहीयों को बतलाते हैं। दक्षिण अफ्रीका में कस्तूरबा गांधी का अपने साथ सत्याग्रही महिलाओं को तैयार करके जेल तक जाने की इच्छाशक्ति के कारण ही, गांधीजी आजादी की लड़ाई में महिलओं के महत्वपूर्ण भूमिका की जरूरत को पहचान पाते हैं।

कस्तूरबा के साथ महात्मा गाँधी का तर्कपूर्ण वाद-विवाद और सहमति

गांधीजी के सत्य के अपने विरले प्रयोग हों, दरीद्रता के साथ जीवन जीने का अपना सकल्प हो या स्वयं के लिए कपड़े कात कर पहनने का निश्चय हो या आश्रम में हरिजनों के प्रवेश और काम में सहयोग का विषय। कस्तूरबा के साथ तर्कपूर्ण वाद-विवाद और सहमति के बाद ही गांधीजी उसका अनुसरन करने का फैसला लेते थे। यह बताने के लिए काफी है कि कस्तूरबा का पूरा जीवन कितना अधिक आत्मविश्वासी होगा जो गांधीजी के निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता रखता होगा।

‘बा’ और ‘बापू’ का सम्बोधन

भारत ही नहीं दुनिया के इतिहास में पति-पत्नी के संबंध में शायद ही कोई कहानी मिले जहां दोनों एक-दूसरे को मां-पिताजी का संबोधन देते हो। एक समय के बाद गांधीजी कस्तूरबा को बा कहने लगे और कस्तूरबा गांधीजी को बापू

उनकी मृत्य पर जब महात्मा गांधी स्वयं कहा था, “अगर बा का साथ न होता तो मैं इतना ऊंचा उठ ही नहीं सकता था, यह बा ही थी, जिसमें मेरा पूरा साथ दिया, नहीं तो भगवान जाने क्या होता? मेरी पत्नी मेरे अंतर को जिस प्रकार हिलाती थी उस प्रकार दुनिया की कोई स्त्री नहीं हिला सकती, वह मेरा अनमोल रत्न थी।”

कस्तूरबा के बिना गांधीजी का संपूर्ण मल्यांकन नहीं

यह वाक्य गांधीजी के जीवन में कस्तूरबा की भूमिका के बारे में बहुत कुछ बयां तो कर देता है। परंतु एक आम आस्थावान महिला का वह मूल्यांकन नहीं कर पाता है जो उन्होंने गांधीजी के साथ तेरह साल के उम्र से चिरनिंद्रा में जाने तक पूरा किया होगा। कस्तूरबा और महात्मा गाँधी की जानकारी तब तक अधूरी सी है।

कहते है कि महात्मा गांधी दुनिया भर में ईसा मसीह के बाद दूसरे या तीसरे व्यक्ति है जिन पर सबसे अधिक शब्द खर्च किए गए हैं। मात्र तेरह साल से अपने जीवन के अंतिम समय तय करती चली महिला के बारे में इसका चौथाई भी खर्च हुआ हो, मुश्किल लगता है। आज भी इतिहास को जरूरत है कि वह कस्तूरबा की नज़र से मोहन से महात्मा के सफर को भी खंगाले। वह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कस्तूरबा के बिना गांधीजी का संपूर्ण मल्यांकन नहीं किया जा सकता है।

मूल चित्र : Wikicommons 

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