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"जेठ जी! आप बड़े हैं इस तरह के कर्म आपको शोभा नहीं देते, मेरा मार्ग छोड़िए।" एक आखिरी प्रयास किया मैंने रावण को समझाने का...
“जेठ जी! आप बड़े हैं इस तरह के कर्म आपको शोभा नहीं देते, मेरा मार्ग छोड़िए।” एक आखिरी प्रयास किया मैंने रावण को समझाने का…
अपना रात का सारा काम जल्दी से समेट कर कमरे की तरफ कदम बढ़ाए।
मोहल्ले में चल रही रामलीला के वचन साफ-साफ सुनाई दे रहे थे, “सीता तुम सिर्फ मेरी हो, बात मान जाओ हट ना करो।”
तभी एक साया समीप से गुजरा, “वैदेही बात मानो मेरी।” कलयुगी रावण सामने खड़ा था।
रामलीला में सीता जी के वचन जैसे मेरी आवाज बन गए, “नहीं रावण अभी भी वक्त है, हट छोड़ दो! अधर्म ना करो।”
कलयुगी और सतयुगी रावण का मिश्रित अट्टहास मेरे कानों में पड़ा। अब कलयुगी रावण थोड़ा और आगे बढ़ा, “देखो सुमित शहर गया हुआ है और मां भी बाहर गई हुई है। अब यहां तुम्हारे और मेरे सिवा कोई नहीं है कहना मानो।”
कलयुगी रावण में एक हिंसक जानवर भी नजर आ रहा था, “जेठ जी! आप बड़े हैं इस तरह के कर्म आपको शोभा नहीं देते, मेरा मार्ग छोड़िए।” एक आखरी प्रयास किया रावण को समझाने का…
कलयुगी रावण बढ़ता जा रहा था और बढ़ता जा रहा था उसका अट्टहास भी।
वैदेही कल भी इतनी निडर थी और आज भी। अगले ही पल मुट्ठी में भरा हुआ मिर्ची का पाउडर रावण की आंखों में था और सुरक्षा के लिए रखा गया लठ्ठ रावण की पीठ पर।
रामलीला समाप्त हो चुकी थी और आयोजक की आवाज माहौल में गूंज रही थी, “रावण ना कभी सीता जी को छू पाया था और ना कभी छू पाऐगा।”
मूल चित्र : THEPALMER from Getty Images Signature, Canva Pro
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