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हमारा समाज शरीर के रंग को लेकर बरसों से महिलाओं का शारीरिक और मानसिक शोषण करता आ रहा है। सोचिये इससे एक लड़की को कितना कष्ट होता होगा?
मैं समिधा नवीन, अपनी कविता के माध्यम से आपका ध्यान रंग-भेद के मुद्दे की ओर खींचना चाहूँगी, हमारा समाज शरीर के रंग को लेकर बरसों से महिलाओं का शारीरिक और मानसिक शोषण करता आ रहा है। क्या कभी समाज ने यह सोचा है कि इससे एक लड़की को कितना कष्ट होता होगा?
तू काली है, कलूटी है! रंग देखा है अपना? आइने में देखा है खुद को? रंग देखकर तो कपड़े पहनो! अरे, इस पर तो कोई रंग नहीं फबता! गुण तो बाद में दिखेंगे, पहले तो रंग ही दिखेगा!
इन जुमलों ने बचपन से ही, मेरा हर सपना तोड़ा। ठान लिया, अब नहीं बनेगा मेरा रंग, मेरी मंजिल का रोड़ा।
टूट जाती मैं अन्दर तक, घूरती जब मुझे निगाह। लेप, उबटन, क्रीम लगा ले, कौन करेगा तुझसे विवाह?
लड़कों की शक्ल और रंग नहीं, देखी जाती उनकी सीरत। लड़की का रंग काला है तो, जीरो होती उनकी काबीलियत।
ठान लिया फिर एक दिन मैंने, अपना आसमाँ मैं खुद चुनुँगी। मेरे पँख घिश्वास है मेरा, ऊँची बहुत उड़ान उडूँगी।
बहुत सुन लिए दुनिया के ताने, और नहीं बस, बहुत हो चुका। जीतने का जुनून हो तो, काम किसका कब रुका?
ईश्वर की हर इक रचना, जब है अनूठी, उपयोगी। उसी ईश्वर का सृजन हूँ मैं, तो मैं भी विशिष्ट, अनूठी, उपयोगी!
हाँ उसी ईश्वर का सृजन हूँ मैं, तो मैं भी विशिष्ट, अनूठी, उपयोगी!
मूल चित्र : Arijit_Mondal from Getty Images via Canva Pro
Samidha Naveen Varma Blogger | Writer | Translator | YouTuber • Postgraduate in English Literature. • Blogger at Women's
अगर आप समाज को बदलना चाहते हैं तो पहले खुद को बदलें…
क्या आज भी औरतें का काम सिर्फ़ दूसरों की ज़रूरतें पूरा करना है?
मैं सुंदर हूँ और मैं खुद की फेवरेट हूँ।
राम गोपाल वर्मा की ऐसी सोच मुझे बिलकुल ग़लत लगती है…
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