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भरी दोपहरी तपती गर्मी में पसीना बहाती, कोमल तो है कमजोर नहीं, यही याद दिलाती, फिर कुछ सोच पत्थर दिल के लिए आँसू बहाती!
भरी दोपहरी तपती गर्मी में पसीना बहाती, महल नहीं तो कुटिया की ही छांव देना चाहती! तार-तार चीथड़ों से लाल को लू से बचाती, खुदा की प्यास भूल, सपनों के पतंग उड़ाती।
निर्लज्ज शराबी पति का सोच दिल धड़काती, क्या समेटूं, क्या खरीदूं? यही सोच सताती! बिन थके पत्थरों पर चोट लगाते जाती,
चलती हथौड़े की हत्थी शायद ढाढस थी बंधाती।
कोमल तो है कमजोर नहीं, यही याद दिलाती, फिर कुछ सोच पत्थर दिल के लिए आँसू बहाती! पत्थर तोड़ना सरल पर वही दिल कैसे पिघलाती? ढीठ फिर लाल के उज्जवल भविष्य के स्वप्न सजाती।
मूल चित्र : Pexels
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