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उसने दरवाजा खोलते ही एक करारा थप्पड़ जड़ दिया पलक के गाल पे और लगे डांटने! डर से कांपती पलक के गाल रवि के उंगलियों के निशान से लाल हो चुके थे।
आज भी रवि नाश्ता किये बिना ही ऑफिस चले गए।
बहुत ही बुझे मन से फर्श पे बिखरे पराठे के टुकड़ों को डस्टबिन में डाला और टेबल से सब कुछ समेट फ्रिज में डाल दिया अनु ने।
छोटा सा परिवार था अनु और रवि का दो प्यारे प्यारे बच्चे थे पलक और सनी। सारी भौतिक सुख सुविधा थी घर में, लेकिन रवि के क्रोधित स्वाभाव ने सबके दिलो के चैन को मिटा दिया था। ऐसा भी नहीं था की दिल के बुरे इंसान थे रवि, लेकिन छोटी-छोटी बातों पे गुस्सा हो जाते और अपना आपा खो देते। उनका वो रूप को देख बच्चे भी सहम जाते और अनु के पीछे छिप जाते। जब मूड ठीक होता तो दिल ही दिल पछताते। बच्चों और खुद को दिए गए उपहारों से समझ जाती अनु कि एक पति और पिता का ह्रदय पछता रहा है।
आज भी सुबह बच्चों को स्कूल भेज, रवि के लिए जल्दी जल्दी करने पे भी नाश्ता बनाने में देर हो गई अनु को। थोड़े नाराज तो हुए लेकिन पराठों के नमक ने सारे किये पे पानी फेर दिया। जल्दबाजी में नमक ज्यादा डाल गया था। फिर क्या था, रवि को तो नाराज होना ही था। पराठे फैंक दिए फर्श पे, “ये क्या बनाया है? इंसान खायेगा ही नहीं तो काम क्या करेगा?” और निकल गए ऑफिस।
रोज़ रोज़ की बात थी हर वक़्त ये डर लगा रहता कब नाराज हो जायेंगे रवि। दुसरों के घर में देखती, जब पापा घर आते तो बच्चे शोर मचाते गोदी चढ़ जाते और यहाँ रवि के आते ही बच्चे रूम में चुपचाप किताबों में घुस जाते। घर बिखरा ही छोड़ बिस्तर पे गिर पड़ी अनु। जब मन ही बिखरा हो तो क्या समेटे घर को?
बच्चों के आने का टाइम हुआ तो खिचड़ी चढ़ा घर का काम बेमन से निपटाने लगी। शाम को रवि रसमलाई ले कर आये, अपने सुबह के बर्ताव का हर्जाना जो देना था। थोड़ा मूड ठीक देख अनु ने कहाँ, “आपके गुस्से का असर गलत पड़ रहा है बच्चों पे, दब्बू बनते जा रहे हैं! यहाँ तक कि पढ़ाई में भी पिछड़ते जा रहे हैं।”
“मैं जानता हूँ अनु, क्या करूँ? मुझे अपने गुस्से पे काबू ही नहीं रहता, पता नहीं क्या हो जाता है मुझे…” रवि ने कहाँ।
“एक बार किसी डॉक्टर से मिल लेते…”, अपनी बात इस डर से अधूरी छोड़ दी अनु ने कि कहीं फिर रवि नाराज ना हो जाये।
“तुम भी ना अनु! गुस्सा कौन नहीं होता? क्या मेरे बाबूजी, दादाजी गुस्सा नहीं होते थे? हाँ, मैं थोड़ा ज्यादा हूँ तो क्या डॉक्टर के पास जाऊँ? पागल समझा है क्या?” रवि का उखड़ा मूड देख अनु ने चुप रहने में ही भलाई समझी।
अगले इतवार को पलक की सहेली का जन्मदिन था! घर से दो गली छोड़ के था सहेली का घर! सुबह से पलक माँ को मनाने में लगी थी, “माँ जाने दो ना सारी सहेलियों आ रही हैं, मैं जल्दी आ जाऊंगी।”
“बेटा, आज पापा की छुट्टी है। कोई और दिन होता तो भेज भी देती। फिर पापा का गुस्सा तो पता ही है ना?”
“ओफ्फो माँ ! ये पापा इतना गुस्सा क्यूँ करते हैं? घर को तो जेल बना ही दिया है। एक दिन तो दिलवा दो आजादी का। मैं कोई गलती नहीं करुँगी, जल्दी आ जाऊंगी। पक्का माँ, मेरी अच्छी माँ।”
बढ़ती बेटी के भी कुछ अरमान होते हैं, कुछ खुशियाँ होती हैं, ये अनु जानती थी। फिर डरते डरते ही सही, पर जाने दिया पलक को इस वादे के साथ कि जल्दी आ जाएगी।
शाम गहरी हो गई और पलक का कुछ अता पता ही नहीं। ना जाने कितनी बार अनु ने कॉल किया पर फ़ोन लगे ही ना लगे, शायद नेटवर्क नहीं मिल रहा था।
इधर रवि आपे से बाहर हो गए, “अनु कहाँ भेज दिया पलक को? इतनी भी अकल नहीं तुम्हे? जमाना इतना ख़राब है कहीं भी भेज देती हो बेटी को।”
अनु को कुछ सूझे ना क्या जवाब दे! पलक से ज्यादा खुद पे गुस्सा आ रहा था। वो तो बच्ची है ज़िद करेंगी मुझे तो समझना चाहिए था। सनी ने अपने पापा को देखा तो डर कर पहले ही बिस्तर में दुबक गया!
शाम के सात बजे डरते डरते पलक आयी। रवि ने दरवाजा खोलते ही एक करारा थप्पड़ जड़ दिया पलक के गाल पे और लगे डांटने! डर से कांपती पलक के गाल रवि के उंगलियों के निशान से लाल हो चुके थे।
माँ का हृदय अपनी बच्ची की हालत पे रो पड़ा। जानती थी अनु कि इतनी भी बड़ी गलती नहीं हुई थी पलक से। कुछ पल ही तो खुशियों के जीये थे अपनी सहेलियों के साथ। किसी तरह मामला शांत कर पलक को रूम में भेजा और सब बिना खाये पिए ही सो गए।
रात के तीन बजे के आस पास अनु को प्यास लगी रसोई के तरफ बढ़ी तो देखा बाहर का दरवाजा खुला था! अनजानी आशंका से भयभीत अनु बच्चों के कमरे के तरफ भागी देखा तो बिस्तर खाली पड़ा था ! बच्चे कहीं नहीं थे। पागलों की तरह बाथरूम, रसोई हर जगह देखा जब कहीं नहीं दिखे तो भाग के रवि तो जगाया।
“रवि रवि देखो बच्चे घर पे नहीं हैं…बाहर का भी दरवाजा खुला है!”
रवि भी घबरा कर सब तरफ देखने लगा। पलक-सनी को आवाज़ लगाते दोनों गली में ईधर-उधर भागने लगे।
“देख लिया ना अपने गुस्से का अंजाम? अब मेरे बच्चे ला कर दो रवि। भगवान ना करें कुछ हो गया तो मैं क्या करुँगी रवि?”
“मेरे बच्चे मेरे बच्चे” करती अनु बेहोश हो गिर पड़ी! तब तक आस पड़ोस के लोग भी आवाज़ सुन उठ गए सब अपने स्तर पे बच्चों को ढूंढ़ने लगे।
तभी किसी ने कहा, “हमें देर नहीं करनी चाहिए तुंरत पुलिस को खबर करें रवि आप, बच्चे दूर नहीं गए होंगे।”
बार बार बेहोश होती अनु को पड़ोसियों के हवाले कर रवि कुछ लोगों के साथ पुलिस स्टेशन गया। एक बारी तो पुलिस भी चौंक गई, “दोनों बच्चे एक साथ कहाँ जा सकते हैं? क्या बात हो सकती है मिस्टर रवि?”
अब रवि का सब्र ने जवाब दे दिया। इंस्पेक्टर के पैरों को पकड़ बच्चों की तरह बिलख उठा, “सब मेरी गलती है, मेरे गुस्से ने मेरा परिवार तबाह कर दिया! अगर कुछ हो गया बच्चों को तो मैं अनु को क्या मुँह दिखाऊंगा?” और शाम की सारी घटना इंस्पेक्टर को बता दी।
“आप चिंता ना करें घर जाएँ। जैसे ही कोई खबर मिलेगी आपको सूचित कर दिया जायेगा।”
निढाल क़दमों से रवि घर आ गया। अपने करनी पे रवि ज़ार ज़ार पछतावा में डूब रहा था। बच्चों के तस्वीर को सीने से लगाए अनु बस एक ही दुआ मांग रही थी कि उसके बच्चे जिन्दा हों। सुबह से शाम होने को आयी, दोनों बच्चों का कुछ पता नहीं चला। तभी एक शोर सा उठा नीचे। कलेजा थाम लिया पति पत्नी ने, ना जाने क्या खबर आयी होगी?
बच्चों की तस्वीर को सीने से भींचे दरवाजे को अपलक ताकती अनु की दुँधली नज़रों को उसके पलक और सनी सहमे से खड़े दिखे। भाग के सीने से चिपका लिया अपने बच्चों को अनु ने बेतहाशा चूमने लगी अपने बच्चों को। कुछ होश ना था एक माँ को।
इंस्पेक्टर से पता चला रेलवे स्टेशन पे बैठे थे दोनों भाई-बहन। एक कॉन्स्टेबल ने देखा तो पुलिस स्टेशन ले आया।
“माफ़ कर दो माँ गलती हो गई”, दोनों बच्चे माफ़ी मांग रोये जा रहे थे।
रवि भी आगे बढ़ा बच्चों को गले लगाने। रवि को देख बच्चे भय से सिमट गए माँ के सीने से।
“ख़बरदार रवि एक कदम आगे मत बढ़ाना। तुम्हारी क्रोध की आग में मेरे बच्चों की आहुति अब मैं और नहीं देने दूंगी! आज तक सब कुछ सहा मैंने पर अब नहीं। अब हम तुम्हारे साथ नहीं रह सकते।”
रवि को काटो तो खून नहीं। अपने हाथों अपनी सुन्दर बगिया को उजाड़ जो दिया था उसने, “अनु एक चांस सिर्फ एक चांस दो। तुम भी जानती हो, मैं इंसान बुरा नहीं हूँ बस गुस्सा नहीं रोक पाता। प्लीज अनु मैं अपना इलाज भी करवाऊंगा”, अनु और बच्चों के आगे रवि मिन्नतें करने लगा।
“देखिये मिस्टर रवि, ये आपका घरेलु मामला है, लेकिन फिर भी एक सलाह दूंगा। बच्चे बहुत डरे हुए हैं और यहाँ आने को बिलकुल तैयार नहीं थे, सिर्फ अपनी माँ के कारण आये हैं। आज की घटना से सबक लें आप और किसी साइकोलोजिस्ट की मदद लें। जब तक सब ठीक नहीं होता आप अलग रहें। तब तक बच्चे भी संभल जाएँगे। समझदारी से काम लें और अपना परिवार बिखरने से पहले बचा लें।”
इंस्पेक्टर और अनु की बात मान रवि ने साल भर अपना इलाज करवाया। कभी-कभी बच्चों से भी मिलता।
एक साल बाद बीत गया। कॉउंसलिंग का असर हुआ और एक नया रवि आज वापस अपने घर जा रहा था। पलक, सनी और अनु तीनों बेसब्री से रवि का इंतजार कर रहे थे। जैसे ही बेल बजी बच्चे दौड़ के अपने पापा से लिपट गए।
आज खुशियाँ अनु के दरवाजे पे खड़ी थीं। ज्यादा कहाँ माँगा था अनु ने? सिर्फ एक प्याली खुशियाँ ही तो मांगी थी अपने हिस्से की और वो आज मिल ही गई उसे!
मूल चित्र : sjenner13 from Getty Images via Canva Pro
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