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आज से पुरुषों के साथ-साथ, औरतों की भी लम्बी आयु की प्रार्थना करते हैं हम!

सच मानिए, पुरुषों को अपनी स्वयं की दैनिक दिनचर्या तक चलाने के लिए स्त्रियों की आवश्यक्ता पड़ती है, तो उनकी सलामती की प्रार्थना करना भी तो बनता है न!

सच मानिए, पुरुषों को अपनी स्वयं की दैनिक दिनचर्या तक चलाने के लिए स्त्रियों की आवश्यक्ता पड़ती है, तो उनकी सलामती की प्रार्थना करना भी तो बनता है न!

परस्पर रिश्तों की मिठास भरे हमारे पर्व-त्यौहार सदियों से चली आ रही परंपराओं और रीति रिवाजों के रंगों से सज-धज कर हम में हर वर्ष नई उर्जा और उत्साह का संचार करते हैं।  फिर वो त्यौहार चाहे करवा चौथ का हो, रक्षाबंधन का हो, भाई दूज का हो या फिर अहोई अष्टमी का!

क्या वाकई ये स्त्रियों के ही त्यौहार हैं?

इन सभी त्यौहारों में स्त्रियां जो कि माँ, बेटी, बहन और पत्नी होती हैं, पुरुषों यानि अपने पुत्र, पति और भाई की सलामती के लिए व्रत रख कर पूजा अर्चना करती हैं। इन सभी त्यौहारों को स्त्रियों के त्यौहार कहा जाता है, तो क्या वाकई ये स्त्रियों के ही त्यौहार हैं?

गौर किया जाए तो ये स्त्रियों के त्यौहार हरगिज नहीं कहे जा सकते, बल्कि ये तो एक प्रकार से पुरुषों के त्यौहार हैं जिसमें स्त्रियां स्वयं को खुशी-खुशी कष्ट में रखकर पुरुषों की सलामती और लंबी उम्र के लिए निर्जला व्रत रखती हैं, पूजा अर्चना आदि करती हैं। और यदि गलती से कोई भी स्त्री ऐसा करने से चूक जाती है तो परिवार, समाज और त्यौहारों से जुड़ा बाजार उसे इतनी आत्मग्लानि से भर देता है कि फिर यदि पुरुष का बाल भी बांका हुआ तो सारा दोष उस स्त्री द्वारा की गई चूक पर ही लगा दिया जाता है।

असल में समानता होती कहीं नहीं

आज हम कार्यस्थल, स्कूल, कालेज आदि सब जगह जब समानता की बात करते हैं तो वह समानता केवल आर्थिक आधार पर ही समझी जाने की बात होती है, और वह भी केवल बात भर ही होती है।  असल में समानता होती कहीं नहीं। और सामाजिक एव पारिवारिक आधार पर तो शायद कहीं समानता है ही नहीं।

औरत की सलामती के लिए कोई पुरुष व्रत-त्यौहार क्यों नहीं मनाता?

आज जहां कई कामकाजी पत्नियां कमाकर पतियों और उनके पूरे परिवारों को पाल रही हैं, कई बहनें अपने भाईयों की शिक्षा पूरी कराकर उनकी आर्थिक मदद कर रही हैं, कई ऐसी एकल माएं हैं जो अपने बेटो को पाल-पोसकर बड़ा कर रही हैं, उनकी सलामती के लिए कोई पुरुष व्रत-त्यौहार क्यों नहीं मनाया करता?

क्या वाकई पुरुषों के जीवन मे भिन्न-भिन्न रिश्तों से जुड़ी स्त्रियां उनके लिए गैरज़रूरी हैं, जो उनकी सलामती के लिए किसी भी पुरुष को कोई व्रत-मन्नत करने की कोई आवश्यक्ता ही नहीं? लेकिन सच मानिए, पुरुषों को अपनी स्वयं की दैनिक दिनचर्या तक चलाने के लिए स्त्रियों की आवश्यक्ता पड़ती है, तो उनकी सलामती की प्रार्थना करना भी तो बनता है न!

क्या बेटे-बेटियां अपनी माता-पिता की लंबी उम्र के लिए व्रत त्यौहार नहीं रख सकते?

तो राखी के दिन एक भाई क्यों अपनी पिता और भाई समान बहनों को राखी नहीं बाँध सकते?
क्या भाई न होने पर दो बहनें परस्पर एक दूसरे की रक्षा करने का प्रण लेकर आपस में राखी नहीं बाँध सकतीं? क्या बेटे-बेटियां अपनी माता-पिता की लंबी उम्र के लिए व्रत त्यौहार नहीं रख सकते?

हां, आज भी कई पुरुष हैं जो अपनी माँ के लिए अहोई अष्टमी, पत्नि के लिए करवा चौथ और बहन के लिए भाईदूज और राखी के लिए बने सभी रीति रिवाज और परंपराए निभाते हुए उनके साथ भूखे रहकर व्रत करते हैं, पूजा करते हैं!

कई बहनें तो पूरा साल छोटे भाईयों के डायपर बदलती हैं उनकी नाक पोंछती हैं, मुहल्ले भर में उन्हें कमर पर लटकाए घूमती हैं, स्कूल में छोटे भाईयों को लंच ब्रेक में अपना खाना छोड़कर, पहले उन्हें खाना खिला कर आती हैं। कोई भाई को पीट दे तो उससे दो-दो हाथ कर आती हैं, वे भाई-बहन एक दूसरे को राखी क्यों नहीं बाँध सकते? और भाई-बहन दोनों को ही एक-दूसरे को वचन देना चाहिए कि हम सदा एक दूसरे का साथ निभाएंगें!

त्यौहारों का रंग-रूप भी थोड़ा बहुत बदला ही जा सकता है न?

पति-पत्नि दोनों को एक दूसरे की लंबी आयु के लिए व्रत करना चाहिए। बेटे अपनी माओं के लिए उनके लिए उनके साथ व्रत कर सकते हैं न? त्यौहार जिन निश्चित नियम-कायदों और कानूनों के अनुसार मनाए जाते हैं वे सदियों पहले किन्हीं विशेष परिस्थितियों के चलते निर्धारित किए गए होंगे।

युग बदलते हैं, व्यवस्थाएं बदलती हैं, लोग बदलते हैं, रिश्ते बदलते हैं, जिम्मेदारियां बदलती हैं तो त्यौहारों का रंग-रूप भी थोड़ा बहुत बदला ही जा सकता है न?

त्यौहारों में समानता से जुड़ा यह परिवर्तन हम व्यक्तिगत स्तर पर कर सकते हैं, क्योंकि यह बात आस्थाओं और भावनाओं के बीच में कहीं अटकी सी लगती है। और इस अटकी बात में भटकने से बचने के लिए त्यौहारों से जुड़े ऐसे फैसले लेने के लिए हमें एक स्वस्थ और स्वतंत्र सोच रखनी होगी ताकि इन त्यौहारों पर दोनों पक्ष समानता का अनुभव कर सकें!

कमला भसीन जी ने इस समानता वाले पर्व पर कुछ पंक्तियां कही हैं –

‘राखी आई राखी आई
प्यारी प्यारी राखी आई
बाँधें बहन और बाँधें भाई
दोनों खाएं गपागप मिठाई !’

उनकी इसी सोच को आगे ले जाते हुए आइए कोशिश करें त्यौहारों में थोड़ा सा व्यक्तिगत तौर पर बदलाव लाकर इनकी खुशी दुगुनी कर मनाने की!

समानता के रंग में रंगे त्यौहारों की इस कड़ी में सबसे पहले शुरुआत करते हैं रक्षाबंधन से!
वैसे भाई न होने के कारण मैं और मेरी बहन बचपन से ही एक-दूसरे को राखी बांधते आए हैं और एक-दूसरे की रक्षा करने के लिए सदा कंधे से कंधा मिलाकर तैयार रहते हैं फिर चाहे कोई भी परिस्थिति हो!

और समानता के त्यौहार वाली इस सोच को यदि बाजारवाद के हिसाब से देखा जाए तो दो बड़े नामचीन ब्रांड्स मैनकाइंड फार्मा/ Mankind Pharma और द मैन कंपनी/ The man company ने अपने उत्पादों से जुड़े विज्ञापनों के जरिए भुनाना भी शुरु कर दिया है, जिसमें एक छोटा भाई अपनी दीदी को और एक पेशेंट अपनी नर्स ‘सिस्टर’ की कलाई पर राखी बाँध कर अपनी रक्षा और सुरक्षा करने के लिए उनके प्रति अपने सम्मान और रक्षा के भाव को दर्शाते हैं!

अंत में बस यही कह सकती हूं कि हमें किसी भी परंपरा को केवल इसलिए नहीं निभाना चाहिए कि ये तो बरसों से चली आ रही है, बल्कि उस परंपरा को आज के बदलते परिवेश में रख कर इसका विश्लेषण अपने तर्कों के साथ करना चाहिए।

हर त्यौहार में बदलते समय के साथ अपने हिसाब से मामूली परिवर्तन कर इसके सरोकार से जुड़ाव और संदेश को और अधिक बेहतर करने का प्रयास करना चाहिए ताकि हम सभी के जीवन में लैंगिक समानता और संवेदना का अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार हो सके!

(वैसे ये मेरे निजी विचार हैं और जिस भाव से हम दोनों बहनें एकदूसरे को रक्षा-सूत्र बांधती आई हैं, वे परंपराओं से हटकर है, लेकिन उम्मीद करती हूं कि हमें इस रक्षा सूत्र का जो मर्म समझ आ पाया उससे आपकी भावनाएं आहत नहीं होंगीं!)
#Rakhiforsisters #समानताकात्यौहार #Gender_Equality

मूल चित्र : YouTube 

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