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मैं आज़ाद नहीं : कहाँ हैं महिलाओं के सामाजिक अधिकार और उनकी आज़ादी?

आज़ादी शब्द जब भी स्त्री के सामने आता है तो वह जाग उठती है, आज भी वह आज़ाद होकर आज़ाद क्यों नहीं है? कहाँ हैं महिलाओं के सामाजिक अधिकार और उनकी आज़ादी?

आज़ादी शब्द जब भी स्त्री के सामने आता है तो वह जाग उठती है, आज भी वह आज़ाद होकर आज़ाद क्यों नहीं है? कहाँ हैं महिलाओं के सामाजिक अधिकार और उनकी आज़ादी?

आज यूरोप की स्त्री भी आजादी मांग कर रही है और एक आदीवासी स्त्री भी। हर महिला अपने से सवाल करती है कि जब भी वह सफल होती है तो उसका श्रेय हमेशा किसी दूसरे को क्यों दे दिया जाता है। आजादी मिलने के बाद भी वह आज तक अपने को आत्मविश्वासी क्यों नहीं बना सकी? वह अपनी सफलता से दूसरों के लिए मिसाल जरूर बन जाती है पर स्वयं आत्मविश्वासी नहीं बन पाती है।

आजादी शब्द जब भी उस के सामने आता है तो वह जाग उठती है अपनी परतंत्रता से जो सामाजिक संरचना ने उसे दिए है। वह आजाद होकर भी वह आजाद क्यों नहीं है सामाजिक बंधनों से? आज की स्त्री मांगती है आत्मनिर्भरता वाली वैचारिक आजादी। आखिर आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी कहाँ हैं महिलाओं के सामाजिक अधिकार?

स्वतंत्रता से कहीं ज्यादा जरूरी है जीवंतता

क्या स्त्री की स्वतंत्रता सिर्फ आर्थिक स्वतत्रता या संपन्नता है? क्या स्त्री राजनैतिक, शैक्षिक और वैचारिक मसलों में स्वतंत्र हो कर स्वतंत्र मानी जाएगी? जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं का पूरा होना, मूलभूत अवरोधों को दूर होना मात्र ही जीवन जीना नहीं है।

जीवन की रोजमर्रा की आपाधापी में स्त्री भूल चुकी है कि उसका जीवन एक मल्टीनेशनल में मोटी तनख्वाह पर नौकरी करना, एयर कंशीशंड गाड़ियों में घूमना, विदेश यात्राओं पर जाना भर ही नहीं है। उसे मुस्कुराने, गाहे-बगाहे गीत गुनगुनाहे, किसी अदृश्य ताल पर थिरकने जैसी जीवंतता की जरूरत ज्यादा है। यही वैचारिक आजादी उसे उसके जीवन में आत्मनिर्भरता भी देती है और संपूर्णता भी।

महिलाओं के सामाजिक अधिकार हैं मानवीय व्यवहार के साथ जीने की आजादी

कभी स्त्रियों की स्वतंत्रता का हनन हुआ तो कभी उसे देवी का रूप मान कर उसकी पूजा की गई। महिलाओं को देवी स्वरूपा कहते हुए उससे समान्य मानवीय व्यवहार से परे उम्मीदें की जाती हैं, जिसमें त्याग, बलिदान, सहनशीलता कूट-कूट कर भरे होने की छवि पाल ली जाती है। महिलाओं के साथ-साथ यह पुरुषों के भी गुण है, जिसकी मिसाल एक नहीं कितने ही ऎतिहासिक किरदारों में देखने को मिलते है।

जीवन की तमाम जिम्मेदारियों को निभाते हुए पुरुषों की तरह महिलाओं का व्यवहार भी समान्य होना लाजमी है। इसमें पुरुषों के तरह कार्य का दवाब, प्रोफेशनल तनाव जैसे कारण भी शामिल हैं। इन सबके बाद भी महिलाओं से हमेशा भद्र, अत्यधिक नम्र और क्रोधरहित, सहनशील व्यवहार की मांग करना न्यायिक तो नहीं ही कहा जा सकता है।

तुम ठहाका लगा कर क्यों हंसती हो? तुम सवाल क्यों करती हो? तुम धीरे से क्यों नहीं बोलती हो? तुम गुस्से में क्यों होती हो? तुम ही ऐसी क्यों हो? ये सारी नसीहतें जो मानवीय व्यवहार को लेकर  महिलाओं को दी जाती हैं अक्सर अवसाद की ओर ले जाती हैं जिससे वह अन्य कई बीमारियों की शिकार होने लगती है। महिआओं को समान्य मानवीय व्यवहार करने की आजादी मिलना उसको देवी की छवि से मुक्त ही नहीं करेगा, उसे खुलकर स्वयं को अभिव्यक्त करने का मौका भी देगा। खुलकर मानवीय व्यवहार करने की छूट महिलाओं को उसके अभिव्यक्ति की आजादी का आधार बनेगा। महिलाओं के सामाजिक अधिकार अब उनको मिलने ही चाहियें।

मानवता से तुलना करना आवश्यक 

जब हम सभी क्षेत्रों में स्त्री और पुरुष को समान रूप से देखते हैं तो स्वतंत्रता के परिपेक्ष्य में स्त्री की तुलना पुरुष से क्यों? उसे जरूरत है यह जानने की कि वह एक बेमतलब सी दौड़ का हिस्सा न होकर प्रकृति की एक नायाब कृति है, जिसे पूरी उन्मुक्ता से जीवन जीने का अधिकार है। जीना ही नहीं, अपने जीवन को जीवंतता ही देगी स्त्री को एक आजाद जीवन।

आज भी स्वतंत्र स्त्री की पराधीनता में सबसे बड़ी बाधक बात यही है कि वह हमेशा किसी न किसी के साथ तुलना की शिकार हो जाती है, वह एक स्वतंत्र इकाई के रूप में स्वीकार्य ही नहीं की जाती है। समाज के हर सदस्य को समान व्यवहार मिलना चाहिए फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। उसकी तुलना मानवीय मूल्यों के साथ किया जाना चाहिए न की किसी व्यक्ति से।

महिलाओं के सामाजिक आज़ादी में है अपनी तरह से जीने की आज़ादी

किसी भी स्त्री को शिक्षा का अधिकार हो, उसे अपना परिधान चुनने का अधिकार हो, उसे अपने जीवनसाथी चुनने का अधिकार हो। यह अधिकार वह अधिकार है जिसके बारे में हर स्त्री सोचती है लेकिन स्त्री की स्वतंत्रता की चाह अब अन्य चीजों के साथ भी है। मसलन, फिल्म देखने, किसी के पारिवारिक आयोजन में जाने या न जाने या फिर अपनी इच्छा से अकेली रहने जैसी बेहद मामूली सी बातें जो धीरे से बढ़कर किसी बड़े दवाब का शक्ल ले लेती है, जिसमें स्त्री की स्वतंत्रता पर लग जाता है प्रश्नचिन्ह।

पीड़ा पर रोक-टोक की मार

महिलाओं को समाजिक सुरक्षा के कारण रात को बाहर न जाने की पाबंदी, छेड़छाड़ के कारण स्कूल-कांलेज न जाने देने का निर्णय, पड़ोसी के तांक-झांक के कारण बालकनी में खड़े ही न होने जैसे घर के आदेश समस्याओं को बढ़ा देते है कम नहीं करते है। अपने सम्मान, सुरक्षा के लिए महिलाओं को कितनों ही रोक-टोक और तानों से गुजरना पड़ता है। परंतु इनको समाधान तो नहीं कहा जा सकता है।

पुलिस फोर्स देना, महिला थाने बनाना, हेल्प डेस्क लगाना और कार्यस्थलों पर महिला शोषण व उत्पीड़न कमेटियां बनाना सहायक हो सकता है लेकिन समाधान नहीं।  महिलाओं को इन सहायक उपकरणों की मदद लेने के लिए सक्षम बनाना होगा, वो महौल खड़ा करने की आजादी मिले, जिसमें हम समूह के बीच अंगुली तानकर कह सकें कि फलां की अभद्रता की सजा मैं यह देना चाहती हूं।

मदद नहीं, संबल की जरूरत

आजादी सपनों के आसमान को धरातल पर उतारती है। महिलओं की स्वतंत्रता वो अपने संघर्ष से हासिल करेगी लेकिन समाज को इसमें अपनी भूमिका समझनी होगी। महिला से मतलब दुनिया की अनजान जीव नहीं, बल्कि अपने ही बीच की मां, बहन, बेटी, बुआ, दादी और कोई स्नेहिल रिश्तों में गुंथी आधी आबादी से है। महिलाओं के चाहिए अब अपने सामाजिक अधिकार और आज़ादी हर सामाजिक बंधन से जो सिर्फ उस पर थोपे गए।

आइए, इस स्वतंत्रता दिवस पर ऐसा ही कुछ प्रण करें, जिसमें उसकी आवश्यकता आजादी तक पहुंच से एक कदम का ही सही, सहयोग दे सकें, सहायता नहीं। आधी दुनिया को मदद की नहीं संबल की जरूरत है। वह स्वमं में परिपूर्ण है उसको चाहिए तो बस वैचारिक आत्मनिर्भरता वाली आजादी, जो अपने पैरों पर खड़े होने के बाद भी उसे मयस्सर नहीं हुई है।

मूल चित्र : Canva Pro 

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