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माँ के जगने से, जगता था, घर-आँगन, धूल भी छूकर उसे, बन जाती थी, पावन, पर, अब वो माँ, निस्तेज सी जगने लगी है, माँ! अब बूढ़ी लगने लगी है...
माँ के जगने से, जगता था, घर-आँगन, धूल भी छूकर उसे, बन जाती थी, पावन, पर, अब वो माँ, निस्तेज सी जगने लगी है, माँ! अब बूढ़ी लगने लगी है…
माँ के जगने से, जगता था, घर-आँगन, धूल भी छूकर उसे, बन जाती थी, पावन, पर, अब वो माँ, निस्तेज सी जगने लगी है, माँ! अब बूढ़ी लगने लगी है।
जली-कटी, सब सास की, सुन, हर उलझन को, जो लेती बुन, पर, उसकी चुप्पी और, बढ़ने लगी है, माँ! अब बूढ़ी लगने लगी है।
पकवानों में मृदुल, अमृत को घोल, भिखारी के भी, जो पूरे करती बोल, पर, चाय में चीनी कम पड़ने लगी है, माँ! अब बूढ़ी लगने लगी है।
स्वर से घर में, रौनकें भरती थी, जो, बच्चों संग शैतानियाँ, करती थी, जो, पर, जबान बहू की, छलनी करने लगी है, माँ! अब बूढ़ी लगने लगी है।
इस घर की, जो कभी रानी थी, खत्म होने को, शायद कहानी थी? अब वह बीते कल में, रहने लगी है, माँ! अब बूढ़ी लगने लगी है।
अब टूटा चश्मा, कमजोर नज़र है, अकेली, पगली! क्या रटने लगी है? माँ! अब बूढ़ी लगने लगी है, माँ! अब बूढ़ी लगने लगी है…
मूल चित्र : Canva Pro
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