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कहीं पढ़ा था कि फ़िल्म गुंजन सक्सेना का नाम ‘गुंजन के पापा’ होना चाहिए था…

फ़िल्म गुंजन सक्सेना में घोर पुरुषवाद और पितृसत्ता है पर चूँकि सत्य घटना पर आधारित है तो सच तो दिखाना ही था लेकिन आज भी कुछ खास नहीं बदला है...

फ़िल्म गुंजन सक्सेना में घोर पुरुषवाद और पितृसत्ता है पर चूँकि सत्य घटना पर आधारित है तो सच तो दिखाना ही था लेकिन आज भी कुछ खास नहीं बदला है…

गुंजन सक्सेना एक ऐसी फिल्म है जो सभी लड़कियों को तो देखना ही चाहिए पर सभी पिताओ और सभी पुरूषों को ज़रूर ही देखनी चाहिए। एक पोस्ट में मैंने लिखा था, “पिता अगर साथ दे तो कोई भी बेटी बेचारी न हो” और ये मूवी इस बात को साबित कर रही है।

गुंजन के पिता इतने ज्यादा सपोर्टिव सच में रहे या नहीं, ये नहीं पता पर रियलिटी में ऐसे पिता 10% भी शायद ही मिलेंगे पर इतने सपोर्टिव रियलिटी में हर पिता इसका 50% भी हो जाए तो सारी बेटियों का उद्धार हो जाएगा।

कहीं पढ़ा था कि मूवी का नाम “गुंजन के पापा” होना चाहिए था… सच में मूवी देखने के बाद मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा। पूरी मूवी गुंजन के पिता के इर्दगिर्द ज्यादा घूमती है। गुंजन के पिता का मोटिवेशन न होता तो गुंजन वहां नहीं पहुंच पाती और बस थोड़ा पढ़ लिख के सेटल हो जाती यानी उन की शादी हो जाती (हमारे समाज में सेटल होने का मतलब यही होता है।) देखा जाए तो पैरेंट्स को ऐसा ही होना चाहिए पर 1 – 2% ही ऐसे मिलते हैं।

हाँ अंत में अगर थोड़ा सा समय और देकर गुंजन के आगे के अचीवमेंटस भी दिखा देते तो शायद गुंजन सक्सेना नाम सफल हो जाता। हम सच को झुठला नहीं सकते पुरुष प्रधान देश में महिलाएं कितनी भी काबिल हो, वो आगे नहीं बढ़ पाती। एक पुरुष उनका आगे बढ़ने में साथ देगा तो 100 लोग उसकी टाँग पकड़ के पीछे खीचेंगें।

घोर पुरुषवाद और पितृसत्ता है मूवी में पर चूँकि सत्य घटना पर आधारित है तो सच तो दिखाना ही था। आज भी कुछ खास नहीं बदला है आपके घर के पुरुष नहीं चाहेंगे तो आप अभी भी कुछ नहीं कर सकती।

मूवी मे गुंजन का क्या है, बस उसकी एक इच्छा है और पिता की सहमति थी तो वो हर मोड़ पर पुरुष सत्ता का सामना करते हुए अपनी मंज़िल पर पहुँच गयी। उसकी काबिलियत को शारीरिक क्षमता से आँका गया। एक काबिल और कामयाब लड़की से हमेशा अपेक्षाएँ अधिक हो जाती हैं। उसे अपने पुरुष सहक्रमियों से बेहतर करना होता है, तभी वो काबिल मानी जाएगी, वर्ना ये कह दिया जाएगा लड़की थी इसलिए नहीं कर पायी।

अगर अंत मे अगर गुंजन भी ढेर हो जाती तो यही कहा जाता, लड़की थी ये तो होना ही था। खुद को साबित करने के लिए उसे कुछ बेहतर करना पड़ा और तब उसकी काबिलियत साबित हुई और सम्मान दिया गया।

फ़िल्म गुंजन सक्सेना के एक सीन में गुंजन के जूनियर गुंजन को सामने से आते हुए देख कर बोलते हैं “जल्दी से मुड़ जा वर्ना इनको भी सेल्युट करना पड़ेगा।” वो गुंजन को सम्मान देना नहीं चाहते क्योंकि वो महिला हैं और चारों तरफ पुरुष सत्ता हावी है।

आज पुरुषसत्ता से पीड़ित:

वो पुरुष जो कभी सोच ही नहीं सकते थे कि कोई महिला यहाँ तक पहुँच सकती है। वो पुरुष जिन्हें अभी भी भरोसा नहीं हो रहा है एक महिला की काबिलियत पर। वो पुरुष जिन्हें डर है एक महिला के मैडम से सर जाने का। वो पुरुष जो उसकी काबिलियत को उसकी शारीरिक क्षमता से आँक रहे हैं  और भी बहुत कुछ…..  

ये सब 90 के दशक का दिखाया गया है पर आज भी क्या बदला है, कितना बदला है? इस पर सोचने की और काम करने की ज़रूरत है।

मूल चित्र : Screenshot, Film Gunjan Saxena

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