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बॉलीवुड फिल्मों को देखकर ऐसा लगता है कि दोस्ती का भी जेंडर होता है, हिंदी फिल्मों के अनुसार एक लड़का-लड़की तो क्या, लड़कियां भी आपसी दोस्ती नहीं निभा सकतीं।
हिंदी फिल्मों ने हमें बताया, ‘एक लड़का-लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते’ और आश्चर्यजनक बात ये है कि बहुत से लोग इस बात को मानते हैं। हिंदी फिल्मों को देखकर लगता है कि दोस्ती का भी जेंडर होता है। अब आप इस बात को मानें या नहीं, लेकिन हिंदी फिल्मों के निर्देशक, लेखक तो इस बात को पूर्णत: मानते हैं। हिंदी फिल्मों में लड़के-लड़की को दोस्त नहीं माना जाता लेकिन क्या आपको ये पता है कि बॉलीवुड फिल्में लड़कियों को भी दोस्त नहीं मानतीं?
हमारी बॉलीवुड फिल्मों से बहुत ही उम्दा फ्रेंडशिप के गाने सुनने को मिल जाते हैं, जैसे – ‘तेरे जैसा यार कहाँ’, ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे’, अभी हाल ही में आया ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ फिल्म का गाना ‘तेरा यार हूँ मैं’ और भी कई गाने हैं।
लेकिन ये गाने सुनकर हमें कौन से दृश्य दिखाई देते हैं ज़रा सोचिये ‘अमिताभ-शत्रुघन, अमिताभ-धर्मेंद्र और कार्तिक आर्यन-सनी के चेहरे! तो अब तो इस बात से आप भी सहमत होंगे कि हिंदी फिल्मों के निर्देशक दो लड़कियों को दोस्त नहीं मानते।
शोले से लेकर सोनू के टीटू की स्वीटी तक बॉलीवुड फिल्मों में सिर्फ और सिर्फ लड़कों को ही दोस्त माना जाता रहा है। आखिर ऐसा क्यों है? ये बॉलीवुड को ऐसा क्यों लगता है कि दो लड़कियां कभी दोस्त नहीं हो सकतीं?
बॉलीवुड के महान निर्देशक भी जब ‘स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर’ जैसी फिल्में बनाते हैं तो उसमें लड़की को दो लड़कों की दोस्ती में बाधा के रूप में ही दिखाया गया था। हमारी बॉलीवुड फिल्मों में लड़कियों को दोस्त नहीं दिखाया जाता लेकिन उनके बीच में दुश्मनी दिखाने में ये माहिर हैं।
यह सब देखकर हर लड़की के दिमाग में ये सवाल ज़रूर आता है कि ये फिल्म इंडस्ट्री कौन से समाज का आइना है? क्यूंकि असली समाज तो कुछ अलग ही है असल में तो लड़कियाँ बहुत अच्छी दोस्त होती हैं। एक लड़की होने के नाते मुझे हमेशा ये सवाल परेशान करता है कि ये पटकथा लेखक और निर्देशक कौन से समय में जी रहे हैं?
एक लड़की होने के नाते मुझे बॉलीवुड से बहुत शिकायत है और मुझे विश्वास है कि ये शिकायत सिर्फ मेरी नहीं है। जब हम अपने ‘गर्ल गैंग’ के साथ बॉलीवुड की दोस्ती वाली फिल्में देखने की बैठती हैं तो उनको लड़कों की दोस्ती वाली फिल्में देखकर ही काम चलाना पड़ता है। जब हमें अपनी दोस्तों को दोस्ती वाले गाने भेजने होते हैं तो हम उन गानों का ‘फीमेल संस्करण’ ढूंढते रह जाते हैं।
जब हम ‘दिल चाहता है’ , ‘3- ईडियट्स‘, ‘ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा‘, ‘छिछोरे‘ या ‘सोनू के टीटू की स्वीटी‘ जैसी फिल्में देखते हैं तो हम यही सोचते हैं की अगर इन फिल्मों में हीरोइन मुख्य किरदार में होतीं और उनकी दोस्ती दिखाई गयी होती तो कैसा लगता?
अब बॉलीवुड के निर्देशक तो पता नहीं कब इस सच को मानेंगे कि लड़कियां भी दोस्त होतीं हैं और कब उनके ऊपर फिल्में बनेंगी लेकिन ज़रा आप सोचिए कि इन फिल्मों में अगर लड़कियां मुख्य भूमिका में होंगी तो कैसा लगेगा?
दिल चाहता है की वो ‘गोवा ट्रिप’ जिसको देखकर सभी दोस्तों ने एक बार ज़रूर यह सोचा होगा कि वो भी ऐसी ट्रिप पर जायेंगे। ज़रा सोचिये अगर उस मशहूर सीन में तीन लड़कियां हों और वो भी एक दूसरे से वही वादा करें ‘हम दोस्त थे, हैं और रहेंगे’ तो कैसा लगेगा।
यह सिर्फ महिला दर्शकों की इच्छा नहीं है बल्कि एक्ट्रेस खुद ऐसा चाहती हैं, परिणीति, श्रद्धा और आलिया को दिल चाहता है के सीक्वल में देखने को हम भी बेताब हैं ।
‘ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा’ की ज़ोया को देखकर एक तरफ जहाँ इस बात की ख़ुशी होती है कि कम से कम हिंदी फिल्मों में एक-दो महिला किरदार तो ऐसे लिखे गए हैं जो अपनी ज़िन्दगी अपने अनुसार जीती हैं, लेकिन वहीं दूसरी तरफ नताशा की ज़ोया के प्रति नफरत देखकर यही लगता है कि फ़िल्मी दुनिया इस बात को सिरे से ख़ारिज करती है कि दो लड़कियां कभी दोस्त हो सकती हैं।जब हम अपनी दोस्तों के साथ ‘ज़िन्दगी ना मिलेगी दोबारा’ देखते हैं तो हमें अक्सर यह लगता है कि अगर उन तीन लड़कों की जगह तीन लड़कियां होतीं और अपनी लास्ट ‘बेचलर ट्रिप’ पर जातीं तो कैसा लगता?
अगर तीन लड़कियां जो बचपन की दोस्त हों और उन्होंने एक-दूसरे से ये वादा किया हो कि वो शादी से पहले ‘3-हफ़्तों की रोड ट्रिप’ पर एक साथ जाएँगी। ‘स्पेन का टोमाटीना फेस्टिवल’ वो भी देखें।
अगर ये फिल्म दोबारा बने और ह्रितिक, फरहान और अभय की जगह क्रमश: दीपिका, राधिका आप्टे और कल्कि हों तो?
एक तरफ इस फिल्म में इंजीनरिंग कॉलेज के लड़कों की दोस्ती इतनी ख़ूबसूरती से बयां की गयी वहीं दूसरी तरफ फिल्म की मुख्य हीरोइन भी मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही थी लेकिन उसकी एक भी दोस्त नहीं दिखाई गयी?
ज़रा सोचिये उस फिल्म की कहानी कुछ इस तरह हो कि दो लड़कियां अपनी बिछड़ी हुई दोस्त को ढूंढने निकलें। ज़रा सोचिये वह स्कूटी वाला सीन “जब ‘राजू’ की जान बचाने के लिए रेंचो और फरहान सारे नियमों को तोड़ते हुए जाते हैं और बैकग्राउंड में गाना बजता है “चाहे तुझको रब बुला ले हम ना रब से डरने वाले राहों में डटकर खड़े हैं हम” उस सीन में तीन लड़कियां दोस्त हों और बैकग्राउंड में वही गाना बजे?
3 इडियट्स में आमिर, शरमन और माधवन की जगह क्रमश: अनुष्का, सोनम और फातिमा सना शेख हों तो?
शायद ये पुरुष निर्देशकों को ये पता ही नहीं कि ‘गर्ल्स होस्टल्स’ में भी दोस्ती की कहानियां बनती हैं।ज़रा सोचते हैं वो सेक्सा, एसिड, मम्मी, बेवड़ा और अन्नी की जगह अगर हम चार लड़कियों को उनकी दोस्ती की कहानी सुनते हुए देखें, उनके कॉलेज की स्पोर्ट्स चैंपियनशिप की हार जीत की लड़ाई देखें तो ?
छिछोरे में सुशांत, वरुण, नवीन, तुषार और सहर्ष की जगह क्रमश: कृति, परिणीति, सोनाक्षी, एंड्रिया और कीर्ति कुल्हारी होतीं तो?
हमें इस बात से आपत्ति नहीं है की एक लड़की को नेगेटिव किरदार दिया गया आपत्ति तो इस बात से है कि बॉलीवुड की ये कौनसी फिलॉसोफी है जो हर बार लड़की को दो दोस्तों के बीच का विलन साबित करके ही रहती है? आखिर कभी ऐसा क्यों नहीं होता की दो लड़कियों की दोस्ती के रिश्ते की खूबसूरती को दिखाया जाए?
सोनू के टीटू की स्वीटी में कार्तिक और सनी की जगह क्रमश: तापसी और भूमि होतीं तो?
ये फ़िल्मी दुनिया जो समाज के न जाने कितने दक़ियानूसी विचारों पर चोट करने में नहीं हिचकती लेकिन वहीं वो आज तक यह मानने को तैयार नहीं हैं कि लड़कियाँ भी एक-दूसरे की दोस्त हो सकती हैं।उनको घूमने जाने के लिए खुद की शादी टूटने का इंतज़ार करने की ज़रुरत नहीं है। वो भी अपने ‘गर्ल गैंग’ के साथ दुनिया भर में घूम सकती हैं।
हिंदी फिल्मों के निर्देशक और पटकथा लेखक न जाने कौनसी दुनिया में रहते हैं उनका ये विचार की लड़कियों की दोस्ती कभी नहीं हो सकती वो सिर्फ एक दूसरे से जलन महसूस कर सकती हैं या वो किसी लड़के की खातिर अपनी दोस्ती को छोड़ देती हैं। इनको सुनकर ऐसा लगता है शायद उनको सच का पता ही नहीं है।
एक समय था जब महिलाओं की दोस्ती नहीं चल पाती थी क्यूंकि उनको छोटी सी उम्र में विवाह करके जाना पड़ता था और उनका उनकी दोस्तों से रिश्ता ख़त्म हो जाता था लेकिन उसका मतलब शायद समाज ने गलत समझ लिया सभी को यह लगने लगा कि महिलाएं दोस्ती निभाना नहीं जानतीं।
इस सोच के पीछे का दूसरा कारण ये भी है कि हमारी फिल्म इंडस्ट्री पूरी तरह से पितृसत्तामक है, तो इन पुरुषों को ये पता ही नहीं है कि महिलाओं की दोस्ती क्या होती है और कितनी गहरी होती है।
इन निर्देशकों को ये बताना होगा की महिलाओं दोस्ती हमेशा से ही बहुत गहरी होती थी और आज भी उनकी दोस्ती बहुत गहरी होती है। महिलाओं की दोस्ती के रिश्ते को जानना है तो इनको अपनी माँ के पास बैठना चाहिए। उनकी कहानियों से शायद यह ग़लतफहमी बदल जाए और इन पुरुषों को यह समझ आ जाये कि लड़कियों का भी दिल चाहता है कि वो अकेले ‘रोड ट्रिप्स’ पे जाएँ, ब्लैक बोर्ड् पे अपनी बेस्ट फ्रेंड्स के नाम लिखकर टीचर्स को बुद्धू बनाएं, सबको हॉस्टल की लूज़र्स वाली कहानियां सुनाएं, टीटू के झूठे प्यार से स्वीटी को बचाएं और दुनिया को ये बताएं कि लड़कियों को भी ज़िन्दगी नहीं मिलेगी दोबारा।
मूल चित्र : YouTube
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