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और यूँ हुई एक बहु की विदाई अपने ससुराल से…

विदाई के वक़्त जी भर के रोई शगुन अपने जन्म दाता के नहीं, अपने भाग्य विधाता के गले लग। कौन थे उसके भाग्य विधाता? और ऐसा क्या हुआ था उसके साथ?

विदाई के वक़्त जी भर के रोई शगुन अपने जन्म दाता के नहीं, अपने भाग्य विधाता के गले लग। कौन थे उसके भाग्य विधाता? और ऐसा क्या हुआ था उसके साथ?

फूलों से सजा मंडप, शहनाई की स्वर और पूजा हवन की भीनी भीनी सुगंध, तभी पंडित जी ने आवाज़ दी, “लड़की को ले कर आएं! कन्यादान का समय हो गया है।”

लाल सुर्ख़ जोड़े मे सजी शगुन, मेंहदी रचे हाथों मे लाल-लाल चूड़ियाँ पहने महावर लगे पैरों से धीरे-धीरे चलते हुए मंडप तक आयी और अपने दूल्हे राजीव के पास बैठ गई।

पंडित जी मंत्रोउच्चारण करते हुए कन्या दान के लिए लड़की के माता-पिता को बुलाने लगे।

चलिए कन्यादान कीजिये बिटिया का, ओमप्रकाश जी ने हाथ पकड़ कर विनोद जी को कहा, “नहीं भाई साहब! ये हक़ अब आपका है, मैंने अपनी शगुन को पहले ही आपको सौंप दिया है।” 

आँखों में नमी और चेहरे पर संतोष की मुस्कान लिए अपनी पत्नी के साथ ओमप्रकाश जी ने शगुन का कन्यादान किया। विदाई के वक़्त जी भर के रोई शगुन अपने जन्म दाता के नहीं, अपने भाग्य विधाता के गले लग।

झोली भर के आशीष और दुआएँ दे शगुन को विदा किया ओमप्रकाश जी ने और एक संतोष की चादर ओढ़ अपनी पत्नी से कहा, “थोड़ी देर मैं अकेले रहना चाहता हूँ” और अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया, क्योंकि अब अपने बेटे से बात जो करनी थी। उसे बताना जो था कि जो ज़िम्मेदारी उसने अपने पिता के कंधों पर छोड़ी थी वो अब पूरी हुई।

आज भी याद है वो पल जैसे कल ही की तो बात थी.. सिर पर सेहरा सजाये सुनहरी शेरवानी में  मुस्कुराता हुआ मेरा शिव जब हँसता तो गालों पे गड्डे पड़ जाते, वो चमकीली आंखे, जिनमे आने वाले जीवन के अनगिनत सपने सजे हुए थे। कैसा राजकुमार सा लग रहा था। उसकी माँ तो बलैया लेती ना थक रही थी। आखिर कितने मंदिरों मे माथा टेका तब हमें मिला था हमारा शिव।

बहुत धूमधाम से बारात निकली थी शगुन को ब्याहने शिव की बारात। राम-सीता की जोड़ी, जिसने भी देखी बस देखता रह गया। जयमाला में सब वाह-वाह करने लगे जोड़ी देख के।

सब कुछ अच्छा ही तो था, फिर पता नहीं किसकी नज़र लग गई इस जोड़ी को। विदाई करा के वापस राजी खुशी आ रहे थे की घर से आठ किलोमीटर दूर ही। रात भर की थकान से शायद ड्राइवर को झपकी आ गई, एक पल मे सब कुछ बदल गया।

गाड़ी की स्पीड ज्यादा होने के कारण ड्राइवर का नियंत्रण नहीं रहा और गाड़ी डिवाइडर से टकरा गई एक ज़ोरदार आवाज़ हुई और फिर सब कुछ शांत हो गया।

बाकी गाड़ियाँ भी पीछे ही थी। तुरंत हॉस्पिटल पहुंचाया गया दोनों को। शगुन को भी चोटें आयीं थीं, लेकिन शिव वो बुरी तरह घायल हो गया था। ओमप्रकाश जी और वीणा जी ( शिव की माँ ) बेहोश हो गए अपने शिव को खून से लथपथ देख।

जब होश आया तो भागे अपने लाडले को देखने आई. सी. यू. मे भर्ती था शिव, ना जाने कितने पाइप और मशीनें लगी हुईं थीं।

डॉक्टर ने बताया शगुन को भी चोट हैं, लेकिन खतरे की बात नहीं है लेकिन शिव, उसकी हालत ठीक नहीं।

कहां तो इन आँखों को अपने बच्चे का सुखी संसार देखना था और कहाँ ये बूढ़ी ऑंखें पाइप से गुँथी अपने बेटे के शरीर को देख रही थी।

दो दिन बाद थोड़ा होश आया था शिव को। नर्स ने आ कर बताया, “आपको बुला रहे हैं इशारे से।” टूटते कदमों से जा बैठा शिव के पास और उसके हाथों को अपने हाथों मे ले लिया।

आज भी वो गर्माहट महसूस होती है हाथों में, उँगलियों के स्पर्श आज भी सिहरन पैदा करती है इन हथेलियों पर।

सिर पर हाथ फेरा तो हलके से अपनी पलकों को खोला शिव ने, मेरी ओर देख मुस्कुराया… वैसे ही गड्डे़ पड़े थे गालों पर जैसे पहली बार मुस्कुराया था तो पड़े थे।

“पापा… “

“हाँ बेटा, मैं यही हूँ, बोल बेटा”,  एक बाप का ह्रदय हाहाकार कर रहा था अपने गुरूऱ तो यूँ टूटते देख कर।

“पापा, शगुन का जीवन फिर से बसा देना पापा, उसे यूँ ना छोड़ देना! अगले जन्म मे फिर आऊंगा आपका बेटा बन! इस बार जा रहा हूँ पापा आपको छोड़ माफ़ करना।”

“और सब कुछ शांत हो गया, हमारा जीवन, हमारा वजूद सब कुछ।”

गृह प्रवेश तो हुआ, लेकिन शिव की दुल्हन का नहीं शिव की विधवा का। बहुत ही गमगीन माहौल मे अंतिम विदाई दी गई शिव को। शगुन के मेंहदी का रंग फीका भी नहीं हुआ था और उस निर्दोष के जीवन के सारे रंग चोरी हो गए। किसी को कुछ होश ही नहीं था। शिव की माँ और शगुन को देख खुद को पत्थर बना लिया। महीनों लग गए संभालने में सबको।

“शगुन, बेटा शिव की आख़िरी इच्छा थी की तू फिर से एक नयी शुरुवात करे।” 

“नहीं पापा, अब ये संभव नहीं है, शिव के अलावा मैं किसी और का नहीं सोच सकती”, शगुन ने डबडबाई आँखों से कहा।

“जीवन का सफ़र बहुत लंबा होता है, बिना किसी जीवन साथी के कैसे कटेगा ये सफ़र?” वीणा जी ने शगुन के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।

“क्यूँ माँ! अपने तो कहा था बेटी की तरह रखूंगी? फिर क्यों भेज रही हैं। आपके बेटे की दुल्हन तो ठीक से बन भी ना पायी, अब अपनी बेटी तो बना लो ना माँ”, लिपट के रो पड़ी शगुन अपनी सास से। 

“राजीव अच्छा लड़का है, शिव का बचपन का दोस्त है ख़ुश रखेगा तुझे। खुद से आगे आ राजीव ने ये रिश्ता माँगा है बेटा, इंकार मत कर। ये सोच कि मेरे शिव के अंतिम इच्छा का मान रख ले”, ओमप्रकाश जी ने कहा।

हिचकियाँ बांध रोने लगे तीनों शिव के तस्वीर के सामने।

जल्दी ही एक अच्छा मुहर्त देख शगुन और राजीव की शादी कर दी गई।

ठक-ठक की आवाज़ से चेतना लौटी ओमप्रकाश जी की देखा तो कोई दरवाज़े को खटखटा रहा था।

“अरे विनोद जी आप, आइये ना”, दरवाज़े पर शगुन के मम्मी-पापा हाथ जोड़े खड़े थे।

“आज आपने मेरी शगुन का घर फिर से बसा दिया भाई साहब, आपका ये एहसान हम कभी नहीं भूलेंगें, ससुर नहीं आपने पिता का फर्ज़ अदा किया है”, विनोद जी ने कहा तो सब की ऑंखें भर आयी।

“मैंने तो बस आज अपने बेटे को दिया आखिरी वचन पूरा किया मैंने”, ओमप्रकाश जी ने एक संतोष की सांस ले कहा। “एक तसल्ली है शगुन को फिर से बसता देख, शिव उस दुनिया मे ख़ुश हो रहा होगा।”

अपने समधी को गले लगा विनोद जी ने कहा, “आप जैसा ससुराल मिले तो किसी बेटी का जीवन बर्बाद ना हो”, और शिव की एक बड़ी सी तस्वीर के सामने सब खड़े हो गए। 

हँसता- मुस्कुराता हुआ चेहरा, गालों पे पड़े गड्डे़, चमकीली ऑंखें, जैसे तस्वीर खुद कह रही थी… “थैंक्यू पापा!” 

मूल चित्र : Pexels

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