कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
अचानक से लॉक डाउन को मानसिक तनाव से जोड़ कर देखने वालों को क्या कभी उन औरतों का ख्याल नहीं आया जो सदियों से लॉकडाउन में जी रहीं हैं?
जैसे ही लॉक डाउन की शुरुआत हुई है, वैसे ही कई शब्द अचानक से इसके साथ आए हैं, इनमें से आजकल मेन्टल हेल्थ चर्चा का विषय बना हुआ है। अचानक सबको मेंटल हेल्थ का ख्याल आ गया है, क्या सच में मेंटल हेल्थ पर लॉक डाउन का असर पड़ा है?
लॉक डाउन से मानसिक तनाव का संबंध, वह भी सिर्फ 4 महीनों में, सोच की हंसी आती है मुझे। अचानक से लॉक डाउन को मानसिक तनाव से जोड़ कर देखने वालों को क्या कभी उन औरतों का ख्याल नहीं आया जो सदियों से लॉकडाउन में जी रहीं हैं? यह सोचकर भी कैसा लगता होगा कि किसी ने तो अपनी पूरी ज़िंदगी ही लॉक डाउन में बिता दी।
क्या इस पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के इस प्रकार लॉकडाउन पर विचार किया है, शायद नहीं। समाज ने तो सदा ही औरतों को लॉकडाउन में रखा है, बहाना चाहे जो भी हो पर वास्तव में इस परंपरा रूपी महामारी का शिकार केवल महिलाएं ही हुई है ।
कभी पढ़ाई के नाम पर लगा लॉक डाउन तो कभी शादी के नाम का लॉक डाउन, अपनी इच्छाओं का, अपने सपनों का और न जाने कितनी अनगिनत भावनाओं का लॉक डाउन किया है जो मन में आने से पहले ही छोटी सोच के वायरस का शिकार हो गई।
अगर हमें लॉक डाउन करना ही है तो अपने उन विचारों का करना है जो किसी महिला से उसकी आजादी छिनता है, अगर लॉक डाउन होना चाहिए तो उन नजरों का जिनकी गंद से हर रोज एक महिला गुजरती है। लॉक डाउन तो ऐसे समाज का होना चाहिए जो आज भी औरतों को उनके अधिकार से वंचित रखे हैं।
कोरोना की तो यह महामारी शायद चली भी जाएगी, शायद हम बच भी जाएंगे। लेकिन यह जो खोखले सोच की परंपरा की महामारी है यह हमेशा अपना प्रकोप दिखाती रहेगी कभी बलात्कार के रूप में तो कभी शोषण के रूप में यह हमेशा ही अपने प्रबल प्रभाव में रही हैं। अब इंतजार है तो सिर्फ एक ऐसे वेक्सीन का जो ऐसे सोच के वारयस को जन्म से पहले ही मात दे दे।
मूल चित्र : Pexels
read more...
Please enter your email address