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अधूरी हूँ मैं! अधूरे तुम! ना मुकमल मैं! ना मुकम्मल तुम! आ जाओ! आज एक ही लिहाफ़ में सिमट के, हो जाऊँ पूरी मैं, हो जाओ पूरे तुम!!
दिल का हुजरा साफ़ कर कहीं इश्क़ पे दाग ना लग जाए! हम से आप तक के फ़ासले में कहीं यह खो ना जाए!
किसी को क्या समझाएँ। हमें खुद ही हैरत होती है। कल ही की तो बात है … क्या इतनी जल्दी मोहब्बत होती है
ऐतबार नहीं होता अपने नसीब पर यह ख़ुशी है या ख़ुशफ़हमी ? सराहें अपनी क़िस्मत या हैरत करें ? दिल की सुनें या दिमाग़ की?
एक शिद्दत है, हमारी मोहब्बत में एक मंसूबा है,पाक सा एक उम्मीद है, गहरी सी एक जज़्बा है, संजीदा सा एक मुलाक़ात है, मुल्तवी सी एक एहसास है, खूबसूरत सा! अंजाम ए’ मोहब्बत अब होगी ख़ुदा की नेमत यही है यक़ीन अधूरा सा!
दरख़्त भी खोजे है छाँव गहरी। बरगद भी माँगे आसमान की छतरी। तू अपने दुःख छुपाए है।
सुकून बाँटने की चाह में, आ पास! मेरे हमसफ़र! तुझे आग़ोश में पनाह दूँ। खुली साँस लेनी की वजह दूँ।
बेगर्ज इश्क़ है मेरा, तू सौंपे खुद को मेरे हवाले, मैं समेट लूँ। माज़ी के घाव अभी भरे नहीं। ताज़ी चोट अभी गहरी लगी कुछ देर तो रुक जाते दर्द सहा ना जाएगा ज़ख़्म अभी कुरेदो नहीं।
रेत सी शख्सियत है हमारी! जिस साँचे में ढालोगे ढल जाएँगे। कहोगे तो पास रहेंगे। कहोगे तो दूर हो जाएँगे। रेत सी शख्सियत है हमारी! तुम्हें अब आदत नहीं रिश्ते सम्भालने की और हमारी यही ख़ासियत है। रेत सी शक्सियत है हमारी!
अलहदा हो मुझसे तुम। पर फिर भी मेरे हो तुम। ऐसा नहीं कि हम कमजोर हैं! आपकी हर ख्वाहिश हम पूरी करते हैं। आपके लिए हम वक्त निकालते हैं।
ऐसा नहीं कि हम कमजोर हैं। आपकी आवाज़, आपका हर शग़ल, सर आँखों पर! ज़हन के शोर को आपकी गुफ़्तगू से ख़ामोश करते हैं। ऐसा नहीं कि हम कमजोर हैं! आख़िर खुद से ज़्यादा किसी और को अहमियत देने को ही तो मोहब्बत कहते हैं!
ठोकर खा के, सम्भले हैं, दोनों! चोट खाए हैं गहरी, दोनों! गिर के हैं उठे, दोनों! फ़र्क इतना सा है… हम आज भी, दिल पे चोट खाने को हैं तैयार। ग़र मोहब्बत की गुंजाइश दिखे, तुमने रखा है, सीने में दिल सम्भाल। ताकि कोई पहुँच ना सके!
अधूरी हूँ मैं! अधूरे तुम! ना मुकमल मैं! ना मुकम्मल तुम! आ जाओ! आज एक ही लिहाफ़ में सिमट के, हो जाऊँ पूरी मैं, हो जाओ पूरे तुम!
उम्मीद रूखसत हो गयी थी! हौसले बिखर गए थे! मरासिम में मोहब्बत ना रही थी! हम टूट गए थे … तू साहिर बनके आया ज़िंदगी में! तेरी मोहब्बत ने रूह में नयी जान फूंकी है।
मेरी जान तुम्हारे आने से उदासी रुख्सत हुई है। ज़िंदगी के दोराहे पे खड़ी हूँ! राहें धुंधली सी हैं मगर मंज़िल नज़र आती है! नज़रिया बदलने की देर है। उसने कहा…मैं हूँ तुम्हारे साथ। क्या पता था? अल्फ़ाज़ में इतनी हिम्मत होती है!
तुम पहले क्यूँ नहीं मिले ? हमारी रूह तुमसे जुड़ कर आज़ाद होती है! एक साया सा है, मेरी शख्सियत पर! डरावना सा! जो घेरे है मेरे ख़्वाब… ज़ंजीर टूटती नहीं बस चाहिए तेरा साथ! क़ैद कर लो, हमें अपनी बाहों में की आज रिहाई की चाहत नहीं। दुनिया बस ती उन बाहों में!
आज शिकस्त की फ़िक्र नहीं! अंजाम तक लेके जाना है, ख़्वाइश-ऐ- इश्क़! दीदार की तमन्ना है। वो इश्क़ कितना पाकीज़ा होगा
जहां लम्स की चाहत तो है। पर शर्त नहीं! ख़ुदी की क़ुर्बानी से, होती है इश्क़ की शुरुआत!
जब हम में तुम, हो और तुम में हम! तो क्या ख़ुदी और क्या ख़ुदा ? तुम हो मंजर, ख़ुर्शीद तुम ही!
अफ़ाक़ तुम हो, मंज़िल तुम्हीं! इश्क़ तुम हो, आशिक़ी तुम्ही! बस तुम ही तुम हो, और कोई नहीं! दायरों में क़ैद होता नहीं इश्क़!
सिमटे नहीं सिमट ता है इश्क़! हदों को समझता नहीं इश्क़! ज़िंदगी है इश्क़! क़बूल करता है इश्क़!
आलस की कोई दवा नहीं होती। बहानों की खान में हवा नहीं होती। मसरूफियत का दुशाला ओढ़े! आपकी आलसी शख्सियत बयान नहीं होती!
मूल चित्र: Pixabay
Neha is a Professor of Mass Communication. An erstwhile Copywriter and Corporate communications specialist, she is an an avid reader, editor of all that she reads, part time writer, full time friend and gym junkie. read more...
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