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नवाज़ुद्दीन और सारा हाश्मी की शॉर्ट फिल्म बेबाक़ हम सब को देखनी चाहिए…जानिये क्यों!

बेहद महत्वपूर्ण है कि शॉर्ट फिल्म बेबाक़ जैसी और फिल्में बनाई जाएँ और इन्हें ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाया जाए ताकि इससे समाज में बदलाव प्रेरित हो।

बेहद महत्वपूर्ण है कि शॉर्ट फिल्म बेबाक़ जैसी और फिल्में बनाई जाएँ और इन्हें ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचाया जाए ताकि इससे समाज में बदलाव प्रेरित हो।

शॉर्ट फ़िल्में अपनी एक नयी जगह बना रहीं हैं। कुछ ही पलों में यह एक बेहद प्रभावशाली ढंग से बहुत कुछ कह जाने की क्षमता रखती हैं। इनमें एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात यह है कि ये अपनी विचारधारा से भटकती नहीं हैं क्यूँकि यह संक्षेप में एक ही पहलू को पूर्ण रूप से क़ायम कर के ही अपनी सफलता हासिल कर पाती हैं। सामाजिक टिप्पणी की एक अलग ही मिसाल क़ायम करती है शाज़िया इक़बाल द्वारा निर्देशित, एक सच्ची कहानी पर आधारति, शॉर्ट फिल्म बेबाक़।

विमेंस वेब पर मैंने कई लेख पढ़ें है जो सदियों से चली आ रही प्रथाओं को बहुत ही नाज़ुक ढंग से चुनौती देते हैं। यह ज़रूर है कि इस प्रकार के लेख थोड़ी पेंचिदा स्तिथि में ही आते हैं क्यूँकि यह हमारे कई जज़्बातों की अवहेलना कर हमें एक नयी सोच की ओर धकेलते हैं।

शायद कुछ  पाठक उन्हें पढ़ कर उत्तेजित या शायद अपने विचारों को ठेस लगा हुआ पाते हैं। इस नज़ाकत को मैं समझता हूँ और मैं यह पहले ही कहना चाहूँगा कि मैं शॉर्ट फिल्म बेबाक़ को देख कर प्रेरित इस कारण हुआ क्यूँकि इस फ़िल्म में एक ऐसी प्रथा की ओर सवाल उठाया गया है जिसकी आज के समय में प्रासंगिकता बहुत हद तक शंकास्पद है। और सबसे अहम बात किसी भी प्रथा को क़ायम रखने की सफलता में होती है उस प्रथा को स्वीकार या अस्वीकार करने की चुनावी आज़ादी।

जो पहलू हम पर थोपे गए हों उन्हें अपनाना और भी कठिन होता है। यह चुनावी आज़ादी का जो पहलू है और उसे ले कर इसकी प्रमुख नायिका की जद्दोजहद ही इस फ़िल्म का मूल संदेश और क़ामयाबी है। किसी भी प्रथा का अपने में अच्छा या बुरा होना ज़रूरी नहीं होता। किसी का भी उसको इच्छापूर्वक अपनाना ही उसका सही प्रमाण होता है । चाहे वो मर्द हो या औरत। व्यक्तिगत गौरव से अपनाई गई प्रथा को किसी और की आलोचना या स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती।

https://www.youtube.com/watch?v=fmNXGPBL_Ew

शॉर्ट फिल्म बेबाक़ की कहानी

किस मज़हब, किस समाज में औरतों को क्या  करना है , क्या पहनना है, उन्हें किस तरह से जीना है, इस फ़िल्म में इन सामाजिक और मज़हबी तौर तरीकों  और उनको दूसरों पर थोपने वाले ठेकेदारों पर एक सवाल उठा है। औरतों का व्यक्तिवाद कब मायने रखेगा?ये सब कायदे तो सब के लिए सामान रूप से बने हैं। यह उत्तेजना जिस परिस्थिति में दर्शायी गई है वह बेहद उल्लेखनीय है। 

यह वाक्या मूल नायिका फ़ातिन की कश्मकश के रूप में पेश किया गया है। इसको दर्शाने में और इस विद्रोह को और ज़्यादा दिलचस्प बनाने में सहायक है फ़ातिन के अब्बा का रूढ़िवादी ना होना। वह एक बेहद अग्रिम विचारधारा के पुरुष हैं जो अपनी क़ौम से काफ़ी अलग सोच रख अपनी बेटी को नए ज़माने को अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। मगर साथ ही अपनी आर्थिक स्तिथि के कारणवश छात्रवृति के लिए कोशिश करने पर भी मजबूर हैं।

यह दोहरा मापदंड उन्हें अपनी बेटी और बेगम दोनों से तानों में सुनने को मिलता है। खूबी यह है कि वह फिर भी अपने को एक प्रगतीशील स्थापित करते हैं और साथ ही उनकी बीवी भी अपनी बेटी को मजबूर ना करते हुए उसको अपनी इच्छा अनुसार ही कदम उठाने की हिदायत देती है।

फ़ातिन का इंटर्व्यू और उसके पहनावे पर टिप्पणी और उसकी क्षमता को नकारते हुए सचिव के रोल में नवाजुद्दीन का किरदार जहां एक तरफ़ अपने रीति रिवाज को सम्भालने का ठेका उठाता है वहीं दूसरी तरफ़ वह एक बहुत ही खोखला और अरुचिकर सा साबित होता है। छात्रवृति का चेक काटने की शक्ति का दुरुपयोग कर पहनावे की हिदायतों को थोपने का ज़िम्मा लेने वाले समाज के रखवालों पर यह एक गहरा कटाक्ष है।

यह घटना एक मध्यवर्गी परिवार की है जो अपनी आर्थिक परिस्थिति के दबाव में ना आ कर अपने नए और आज़ाद विचारों को दबने या दबाने नहीं देता है और बेहद प्रभावशाली रूप से परिवर्तन को प्रेरित करता है। इस सामाजिक स्तिथि में इस प्रकार का साहस और भी सराहनीय बन पड़ता है।

शॉर्ट फिल्म बेबाक़ के एक दृश्य में फ़ातिन का बे-बुर्के का आज़ाद रूप देख दो छोटी नाबालिग बुर्का पहने लड़कियों की प्रतिक्रिया बहुत अर्थपूर्ण, भाववाहक और दिल को छू लेने वाली है। जहां एक लड़की इस चुनावी आज़ादी को एक मायने में नकार देती है क्यूँकि समाज ने उसे वह सोच की आज़ादी ना दे कर उसके विचारों के पंख ही काट दिए हैं वहीं दूसरी ओर है वो दूसरी छोटी लड़की जिसकी आँखों में वह ख्वाहिश और वो तमन्ना क़ैद है।

फ़ातिन का बेबाक़ कदम क्यूँ और कैसे सफल होता है यह देखिए इस लघु फ़िल्म के मूल संदेश में।

यह बेहद महत्वपूर्ण है कि शॉर्ट फिल्म बेबाक़ की तरह की फिल्में बनाई जाएँ और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँच अपना प्रभाव डाल समाज में बदलाव प्रेरित करें। इसी आशा में यह कुछ पंक्तियाँ।

फिल्म के कलाकार : नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, सारा हाश्मी, विपिन शर्मा, शीबा चड्ढा, सना पठान

नोट : शार्ट फिल्म बेबाक़ को इन लिंक्स के ज़रिये फिल्मफेयर के इन चैनल्स पर आप देख सकते हैं  
https://www.facebook.com/Filmfare/videos/793757857796677/?vh=e

मूल चित्र : फिल्म बेबाक़ का स्क्रीनशॉट 

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

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Manish Saksena

A fashion and lifestyle specialist for the last quarter of a century with various brands e commerce and CSR initiatives. A keen enthusiast of Sarees , social developments and films and art . read more...

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