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क्लीन स्लेट फ़िल्मज़ की फ़िल्म बुलबुल एक डरावनी फ़िल्म है, बिल्कुल, लेकिन उस से भी अधिक भयावह है समाज का घिनौना सच आज भी दिखता है।
बागों में चहकती, पेड़ो पर इठलाती बुलबुल सबके मन को भाती है। हर कोई उसे कैद कर लेना चाहता है। लेकिन बुलबुल को इन बंधनो में बांधने वाला ये भूल जाता है कि बुलबुल बागों में चहकती है पिंजरे में नहीं।
अन्विता दत्त द्वारा निर्देशित, नेटफ्लिक्स पर हाल ही आई फ़िल्म बुलबुल ऐसी ही बड़ी हवेली के बड़े रिवाज़ों में कैद बुलबुल की कहानी है।
जैसा कि फ़िल्म का ट्रेलर देखकर ही लगता है यह एक डरावनी फिल्म है, बिल्कुल लेकिन उस से भी अधिक भयावह है समाज का घिनौना सच जो इस फ़िल्म की कहानी के माध्यम से उजागर हुआ है। मैं फ़िल्म की कहानी नहीं बताऊंगी, इसके लिए आप नेटफलिक्स पर यह फ़िल्म जरूर देखिये, लेकिन मैं उन सवालों पर बात करना चाहती हूँ जो अन्विता दत्त ने इस फ़िल्म में प्रमुखता से उठाएं हैं।
1881 के बंगाल में बुनी इस कहानी की समय काल चाहे ही पुराना हो लेकिन इस फ़िल्म में उठाये गए सभी सवाल आज भी प्रासंगिक हैं।
क्या हम इनकार कर सकते हैं कि आज की बड़ी हवेलियों के पीछे कोई बड़े राज़ नहीं छुपे हैं? क्या ये सच नहीं ऐसे कईं रहस्यों की सबसे बड़ी कीमत घर की औरतें चुकाती है। मसला कोई भी हो शक और सवाल औरत पर उठाये जाते हैं और आखिर में सज़ा भी उसे ही मिलती है। जैसा कि फ़िल्म में दिखाया है जिस शक की बिना पर घर के पुरुष को देश से बाहर भेज दिया जाता है, स्त्री को उसी गुनाह की बहुत बड़ी कीमत चकानी होती है।
फ़िल्म में एक और जगह पति पत्नी से एक सवाल पूछता है जिसके जवाब में वह कहती है ‘वो तो मेरा कुछ निजी काम था’, जिसके जवाब में आंखों में हैरानी लिए पति पूछता है ‘एक औरत के लिए अपने पति से ज्यादा निज़ी क्या हो सकता है’। बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल और समाज का सच है यह कि एक स्त्री का कुछ भी निजी नहीं हो सकता। वो कहाँ जाती है, क्या करती है ,क्या खाती है, यहाँ तक की वह क्या सोचती है यह भी उसे पति, पिता या परिवार में किसी को बताना होता है। अगर नहीं बताती तो शक के घेरे में आ जाती है।
एक मर्द की इस रिश्ते के बाहर एक दुनिया होती है, जो निजी होती है। वो यह सब कुछ अपनी अर्धांगिनी की बताने के लिए बाध्य नहीं है, लेकिन पत्नी के पास ये सहूलियत नहीं है। कहीं अगर कुछ ऐसा जो उसका निजी है, जो वो किसी से बांटना नहीं चाहती तो सब उसे अपराधी की नज़र से देखने लगते हैं, और आज भी कईं परिवारों में कमोबेश यही स्थिति है।
बाल विवाह, बेमेल विवाह व उस समय विधवाओं के साथ हो रहे भेदभाव जैसे कईं और मुद्दों को यह कहानी प्रमुखता से उठाती है। लेकिन यह फ़िल्म सिर्फ ज़ुल्म सहते रहने की गाथा नहीं है। जिस तरह नायिका मज़बूती के साथ वापसी करती है और सिर्फ अपने लिए नहीं अपने जैसी और महिलाओं को भी अपने तरीक़े से इंसाफ दिलाती है, यही इस फ़िल्म की यूएसपी है। यह सही भी है क्योंकि जब जब पाप और अत्याचार का घड़ा भर जाता है तब नारी ही काली का रूप धारण कर राक्षसों का संहार करती है।
अभिनय की बात करें तो सभी कलाकारों ने अपने पात्रों को बखूबी जिया है। राहुल बोस की प्रतिभा से हम सब वाकिफ़ है फिर भी इस फ़िल्म में जुड़वां भाइयों के रोल में वो हमें चौकाते हैं। तृप्ति डामरी और अविनाश तिवारी ने इम्तियाज़ अली की फ़िल्म लैला-मजनू से बॉलीवुड में कदम रखा था।
हाल ही में दिए हुए एक साक्षात्कार में इन दोनों ने बताया हैं कि इस फ़िल्म के बाद उन्हें लंबे समय तक कोई काम नहीं मिला। बुलबुल जैसे उनके लिए एक दूसरा और आखरी मौका थी खुद को साबित करने का और तृप्ति और अविनाश ने अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय किया है। खासकर तृप्ति को देखकर लगता है जैसे बंगला फिल्मो की किसी अभिनेत्री ने ये किरदार निभाया हो। इस फ़िल्म के बाद ये यह निश्चित है कि इन दोनों कालकारों को अब ढेरों मौके मिलेंगे। परमब्रत चटोपाध्याय और पाओली दाम भी छोटी किन्तु महवपूर्ण भूमिकाओं में अपना प्रभाव छोड़ते हैं।
इन नई प्रतिभाओं को मौका देने के लिए क्लीन स्लेट फ़िल्मज़ बधाई के पात्र हैं। पाताललोक के जयदीप अहलावत के बाद इस प्रोडक्शन हाउस ने तृप्ति और अविनाश के रूप में हमें नए सितारें दिए हैं। अनुष्का शर्मा व उनके भाई करनेश शर्मा ने NH10 के साथ अपने सफ़र की शुरुआत की थी। अपनी पहली फ़िल्म के साथ ही उन्होंने ये साफ़ कर दिया था कि वो किस तरह की फिल्में बनाना चाहते हैं। महिलाओं के किरदारों के आसपास घूमती हैं उनकी अगली दो फिल्मों परी और फिल्लौरी की कहानी भी। पहले पाताललोक और अब बुलबुल के साथ क्लीन स्लेट फ़िल्मज़ ने दिखा दिया हैं कि वे लीक से हटकर सार्थक सिनेमा और सीरीज बनाते रहेंगे।
आखिर में बात करेंगे निर्देशक अन्विता दत्त के बारे में, इससे पहले वो कईं सुपर हिट फ़िल्मों के गीत व संवाद लिख चुकी हैं, उनके परिचय के लिए फ़िल्म ‘क्वीन’ का नाम ही काफ़ी है। इस के संवाद व कुछ गीत अन्विता दत्त ने लिखे हैं। निर्देशक के रूप में ये उनकी पहली फ़िल्म है और क्रिकेट की भाषा में कहें तो उन्होंने पहली गेंद पर ही ज़ोरदार शॉट मारा है। फ़िल्म का पहला शॉट बुलबुल के पैरों से क्यों शुरू होता है ये अपको फ़िल्म खत्म होते होते समझ आता है।
अन्विता ने अपने सभी किरदारों को जिस ईमानदारी से लिखा है उतनी ही ईमानदारी से कलाकरों से अभिनय करवाया है। फ़िल्म में कहीं निर्देशक की पकड़ ढीली नहीं होती। आपको कहानी का अंदाज़ा ज़रूर हो जाता है लेकिन अंत देखकर आप हतप्रभ रह जाते हो। बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी ( सिदार्थ दिवान) , आर्ट डायरेक्टर (भाग्यश्री पांडे) और कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर (वीरा) की मदद से निर्देशक ने कहानी का ताना बाना बड़ी चतुराई से बुना है।
बुलबुल की पूरी टीम को बहुत बहुत बधाई व धन्यवाद इन ज्वलंत मुद्दों कों इस फ़िल्म के माध्यम से उठाने के लिए। आज के समय में बहुत ज़रूरत है ऐसी ही कहानी बनाने वाले निर्माता और निर्देशकों की, और अनुष्का और अन्विता ने ये साबित कर दिया है कि महिलाएं ये काम बखूबी कर सकती हैं।
मूल चित्र : Screenshot, Bulbul Film Trailer, YouTube
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