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बचपन की यादें

जब दुनिया के बोझ तले थक, मन खोजता है सहारा। तब खोलती हूँ धीरे से, बचपन की यादों का पिटारा। तब मन था सरल, सच्चा और लगता था, सब कुछ अच्छा...

जब दुनिया के बोझ तले थक, मन खोजता है सहारा। तब खोलती हूँ धीरे से, बचपन की यादों का पिटारा। तब मन था सरल, सच्चा और लगता था, सब कुछ अच्छा…

यादें बचपन की हैं, सबसे मीठी यादें।

क़द था, तब छोटा! पर बुलंद थे इरादे।

ना फ़िक्र थी, ना था दिन-रात का हिसाब।

ना कोई पूछता था, सवाल और ना देने होते थे, जवाब।

खिलौने थे, और थी, दादी-नानी की कहानियाँ।

कैसे भूल जायें बचपन का, वो भोलापन और नादानियाँ।

कूद करना और दौड़ना घर में नंगे पाँव।

भीगना बारिश में और वो छोटी सी काग़ज़ की नाव।

जब दुनिया के बोझ तले थक, मन खोजता है सहारा।

तब खोलती हूँ धीरे से, बचपन की यादों का पिटारा।

दिखती है फिर से वो छोटी सी, खिलौनों की दुनिया।

वो बिना बात हँसना, रोना और ढेरों शैतानियाँ।

तब मन था सरल, सच्चा और लगता था, सब कुछ अच्छा।

क्या दिन थे, वो जब एक ज़िद पर पूरी होती थी, हर इच्छा।

खेल-खिलौनों, हँसी-मज़ाक़ में बसती थी, हमारी जान।

तब कोमल मन था, दुनिया की भागदौड़ से, एकदम अनजान।

अच्छा होता! अगर हम लौट सकते, अल्हड़ बचपन में।

कह सकते ज़िंदगी से, कि ले चल हमें उस, नादान लड़कपन में।

फिर देखती हूँ, अपने बच्चों को ख़िलौनों से खेलता, हँसता और रोता।

और अहसास होता है की, ये तो है बचपन, फिर से मेरे सामने गिरता और संभलता।

मूल चित्र: Canva

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Abha Mondal

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