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समाज के कीचड़ में सनकर भी कितना महकती है औरत।
समाज के कीचड़ में सनकर भी कितना महकती है औरत…
उन्माद सी पनपती है औरत रह कर बंदिशों में भी कितना खनकती है औरत भविष्य को मांजती भूत को दफ़नाकर वर्तमान में कैसे चहकती है औरत जला कर ख़्वाब चूल्हों में कैसे जुगनू सा चमकती है औरत समाज के कीचड़ में सनकर भी कितना महकती है औरत।
मूल चित्र : Pexels
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