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इस लेख में मैंने छोटे-छोटे कस्बों और शहरों में केवल LGBTIQ कम्यूनिटी के T को पेश आती मुश्किलों के बारे में बात की है। बाकि आप 'सामान्य लोग' खुद सोचें...
इस लेख में मैंने छोटे-छोटे कस्बों और शहरों में केवल LGBTIQ कम्यूनिटी के T को पेश आती मुश्किलों के बारे में बात की है। बाकि आप ‘सामान्य लोग’ खुद सोचें…
दसवीं के बाद हमारे कस्बे की अधिकतर लड़कियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जालंधर ही जाती थीं। तो मेरे लिए भी विचार-विमर्श, सभाएं घर में चल रही थीं कि बिटिया को कहाँ भेजा जाए!
कॉलेज तो बहुत अच्छे थे पर मैं सोचती अधिक और बोलती कम थी। घर वालों ने प्यार से मेरा नाम पत्थर रखा था। उनके अनुसार मैं सबसे जल्दी हिल-मिल नहीं पाती थी। पर हमारा स्वभाव था कि हम दूसरों को गहनता से परखते रहते थे कि इसे बुलाया जाए कि ना!
कुछ भी किसी के व्यक्तित्व में नकारात्मक सा लगे तो उसमें मेरी रुचि खत्म। ऐसे भी नहीं था कि मैं सर्वगुण सम्पन्न थी, बस भावनाहीन, नकारात्मक और बहुत अधिक व्यवहारिक लोग हमें पसंद नहीं थे। पर जो हमारी सहेलियां थीं, उनके लिए मुझ से बढ़कर कोई नहीं। पक्की, दिलदार, सच्चे मन की सहेलियाँ!
यही सोच कॉलेज के बारे में फैसला लेने की मैंने सोची। और सारे कॉलेज के परोस्पैक्टस अध्ययन कर अंत में जालंधर कैंट में बी.डी. आर्या कॉलेज मुझे पसंद आया। आर्मी एरिया, शांत, हरा-भरा माहौल। कॉलेज की बस लेकर जाएगी और छोड़ने भी आएगी। बहुत बड़ा कॉलेज नहीं था तो गुम होने का डर नहीं लगा।
पहले दिन समय पर स्टॉप पर पहुंच गए। कॉलेज बस सामने से आती दिखी बहुत रोमांच का अनुभव हो रहा था। मेरे साथ ही अचानक एक लड़की और ये क्या एक लड़का भी बस में चढ़ गया! ड्राइवर और उसका साथी अटैंडेट कुछ भी नहीं बोले। बस चल पड़ी!
मैं घूरती जाऊँ कि लड़कियों का कॉलेज, लड़कियों की बस! यार ये लड़का क्यों? डील-डौल, पैंट-शर्ट डाले मिलन सिंह जैसा वो लड़का बहुत सुंदर और आकर्षक था। मेरी एक सीनियर ने जब मुझे उस लड़कों को प्रश्नों भरी निगाह से लगातार घूरते देखा तो जैसे उन्होंने मुझे आँखों से डाँट दिया। और हमारी नजरें उसके अध्ययन को बीच में छोड़ बाहर आईं। पर प्रश्न तो वैसे ही थे!
कॉलेज में भी देखते तो उठते-बैठते लड़की लगती पर उनकी हल्की सी मुस्कान और विश्वस्त कदमों भरी चाल।फिर मुझे भ्रम में डाल देती। पर मैं चुपके-चुपके देखती थी। ग्राउंड में जब बैठते तो उनके साथ दो लड़कियाँ ही होती थी बहुत जमावड़ा नहीं। और अध्यापकों, बाकी विद्यार्थियों की आँखें मेरी ही तरह नजरों से उन्हें बहुत से प्रश्न पूछतीं। परन्तु वह बेपरवाह, बहादुर!
उनकी अगले साल बी.ए पूरी होने वाली थी। अगर उनकी जगह मैं होती तो घर में ही रह जाती। पर वो सचमुच बहादुर थीं। जब भी मैं अपनी उत्सुकता भरे प्रश्न बाहर या घर में पूछना चाहती तो या डाँट खाती या नजरअंदाज! पर इतना पता लगा कि वे अपनी पढ़ाई पूरी कर फिर अच्छी नौकरी पर लग गई थीं। और आजकल विदेश में सेट हैं।
और आज जब उनके बारे में सोचती हूँ तो महसूस होता है कि इतनी घूरती नजरों के बीच अपने अस्तित्व की डोर मज़बूती से अपने हाथों में पकड़े रखना कोई आसान काम नहीं। सामान्य कहलाने वाले भी ये काम नहीं कर सकते। पर ऐसी विश्वास की डोर काटने सबसे पहले समाज के सामान्य लोग ही आगे आते हैं। और साथ देने वाले कोई नहीं या इक्का-दुक्का!
परन्तु उन मिलन सिंह फेम दीदी को अपने पिता का पूरा साथ ऐसा मिला कि उनकी डोर मांझा लगी डोर से भी मजबूत हो गई। जिसके कारण हमें वो जैसी हैं हमेशा वैसी ही दिखाई दीं, बिना किसी लुकाव-छिपाव व बनावट के। तो परिवार का साथ हो तो सब सामान्य ही रहता है परन्तु अगर परिवार ही प्रश्न के रूप में खड़ा हो जाए तो सब असामान्य।
एक और लड़की थी हमारे कॉलेज में, वह जालंधर कैंट की ही रहने वाली थी। चार बहनें, पिता बहुत समर्थ नहीं। अब उसका नाम आप सोच के बताओ! क्या हो सकता है? नहीं आपके लिए मुश्किल है। वहां तक पहुँच ही नहीं पाओगे! मैं ही बता देती हूँ, उसका नाम था ‘तन्हा’। वह अपने परिवार की सबसे बड़ी लड़की थी।और शायद उसका नाम बताता था कि माता-पिता जिन अतिथियों से ‘तन्हा’ को तन्हा रखना चाहते थे वह फिर भी उसकी तीन बहनों के रूप में आ ही गईं। उसके माता-पिता भी न रोक पाए।
परन्तु लड़का न होने की कसक, उसी तीव्र इच्छा के कारण शायद तन्हा लड़कों जैसी शारीरिक बनावट से चलते, मुड़ते, घूमते मेल खा ही जाती थी। डालती वो सूट ही थी पर पैंट-शर्ट अधिक जंच सकती थी उसे। वो पिरियड लगा कर हमेशा अमरूद के पेड़ के चबूतरे पर ही बैठती थी। बहुत बार वहीं देखा था। खाना भी अकेले। उसकी गली की लड़कियाँ बस हैलो करने की हिम्मत दिखा पाती। वह चुप, शाँत, चेहरे पर कोई हाव-भाव नहीं।
एक दिन कक्षा में हमसे फॉर्म भरवा रहे थे। फोटो चिपकाने के लिए कॉलेज वालों ने जो गोंद दी वो शायद पानी मिली थी। तो फोटो पक्की चिपकाने के लिए हम अपनी फोटो को डेस्क पर रख थप-थप पीट रहे थे। और मैम कब हमारे सिर पर गए मुझे तब पता चला जब मेरा हाथ पकड़ उन्होंने मुझे कक्षा से बाहर खड़ा कर दिया। बहुत बेइज्ज़ती हुई। पर हम ढीठ सामने बैठ गए आँखें साफ की तो हम अकेले नहीं हमारे साथ तन्हा थी।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसी उक्ति के नाते हमने एक मुस्कान, फिर नाम, शहर, विषय, पिरियड, घर की बात तक पहुंच गए। और मैम की डांट के बाद हमदर्दी मिली तो तन्हा से नई-नई हुई इस आत्मीयता के संबंध का इतना जोश चढ़ा कि उसके “नाम के इतिहास” जैसे जख्म को बेदर्दी से छील दिया। परन्तु वह भरी पड़ी थी और सारा इतिहास कह सुनाया। और अब मुझे उसके चेहरे पर सेफ्टी के प्रयोग की खरोंच नजर आई। पर फिर भी वो मुझे बहुत अच्छी लगी। और जब कोई अच्छा लगता है तो फिर उसमें कुछ बुरा नहीं दिखाई देता। तो मुझे तो उसके कोई दोष दिखाई न देते पर मेरे कस्बे की सहेलियां ये सब पसंद नहीं करती थीं ।
तन्हा, तन्हा थी क्योंकि उसे जो गुण जन्म से मिले थे घर वाले उसे लिबास में दबाना नहीं दफ़न करना चाहते थे।जिससे वो तन्हा अपनी हंसी, पढ़ाई की इच्छा, आत्मविश्वास, मुस्कान, मूल मानव जीवन तक को दफन कर चुकी थी। उसके पिता साइकिल पर रोज़ लेकर आते और उसे ले जाने भी। उसके पिता का चेहरा बिलकुल तन्हा जैसा ही भाव हीन।
चलो बी.ए फाइनल में हम आ चुके थे। तन्हा के संग बैठते तो नहीं थे पर दूर से मुस्कान का आदान प्रदान अवश्य होता था। परन्तु एक-दो हफ्ते जब तन्हा नहीं दिखी तो मुझे भी इस बात का अहसास हुआ। फिर एक हफ्ता झिझकते हुए पूछने की हिम्मत करने में निकाल दिया पर जब पूछा तो उसकी गली की लड़कियों तक को भी कुछ नहीं पता था।
दो-तीन दिनों बाद सुबह की सभा में प्रार्थना के बाद 2 मिनट का मौन, तन्हा के लिए रखा गया। और पता नहीं मैं किस जमीन के टुकड़े पर खड़ी थी, राष्ट्रीय गान कब निकल गया और मैं कब सहेलियों संग कक्षा के कमरे में चली गई कुछ पता न चला।
पर फिर पिरियड न लगा सकी। बहुत पूछने की कोशिश की। चुपके-चुपके रोई भी। पर तन्हा की प्रश्न भरी आँखें आज भी तरल मुस्काती हैं कोई शिकायत नहीं करती। क्योंकि उन्हें बोलना ही न आता था। और जिसकी जुबान होकर भी बोल न हों, तो वो कोई तो दुनिया ढूंढेगा जहाँ उसे बोलने की आजादी हो।
तभी तो कहते हैं परिवार केवल परिवार नहीं संस्था है। यह स्कूल, समाज, जीवन, मृत्यु सब है। परिवार अपने बच्चों के जीवन रूपी पतंग को हवा में उड़ने लायक बना भी सकते हैं और काट कर लूटने लायक भी बना सकते हैं।
रूढ़िवादी समाज तो टिड्डी दल है। एक टिड्डी के पीछे अंधाधुंध, विचारों की भेड़चाल में बस एक ओर ही धावा बोलना है। अपना दिमाग तो है ही नहीं। कहते हैं कि पहले सब जंगलों में रहते थे। परन्तु ऐसे टिड्डी दल वाला समाज भी तो जंगल ही है। हाँ! सभ्य जंगल। जंगल इसलिए कि वही तमाशबीनों वाली सोच।
टिड्डी दल का एक और उदाहरण कि कुछ दिन बाद हमारे पड़ोस में चाची के लड़का हुआ और घर में रौनकें लगाने के लिए, तालियों की अनोखी मधुर सुर-ताल के बीच आशीर्वाद के उद्घोष से मन संतुष्ट और भविष्य विश्वस्त करने के लिए खुद जाकर न्योता दिया गया, कस्बे के पार की बस्ती में रहने वाले किन्नर बाबों को। हमें बाबे ही कहना सिखाया गया था।
एक बच्चे को आशीष देते-देते पूरे मोहल्ले की कुंवारी लडकियों, नव विवाहिता को भर-भर आशीर्वाद मिल जाता था। वो बाबे भी बेचारे इस अवसर पर अपना दिल खोल देते और मुहल्ले वाले भी। सब सामान्य लगते, बाबे भी और आम लोग भी।
पर जैसे ही कार्यक्रम के अंत में धान-चावल की आंगन, छत पर बरसात होती, गोद भरी जाती जिसमें वो बाबे खुद अपने पल्ले में से पैसे निकाल कर शगुन भी देते और फेरे भी। और प्यार की लोरी। सब भावुक जैसे अंतरात्मा उस रस से भीग जाती और बड़े बुजुर्गो की आँखें तक भर आतीं।
पर कुछ देर बाद ही दोबारा दिखने पर जैसे वही पार बस्ती के लोग! पर मेरे मन में उनके लिए भाव इतनी जल्दी खत्म नहीं हो सकता था क्योंकि उस उम्र में अभी मुझ पर समाज का रंग नहीं चढ़ा था तो उनमें से कोई भी मुझे मिलता तो मैं नमस्ते में सिर झुका देती। परन्तु एक दिन शायद जिसको मैंने सिर झुका कर नमस्ते की थी वो मुझे देख बुड़बुड़ाने लगी। घर दादा जी को बताया। बोले, ” बेटा! वो और कहीं से खीझ गया होगा। पर जब घर आएं तो ही नमस्ते किया करो।”
और फिर मुझे पुन्नू अंकल की याद आ गई। जो हमारी दुकान की कोने की खिड़की के बाहर सुबह से शाम तक पगड़ी रंगने, कलफ लगाने का काम करते थे। लंबा ऊँचा कद, घुंघराले काँधे को छूते बाल, लंबा पायजामा कुर्ता पर एक साफा गले में ओढ़े। हम छोटे-छोटे भाई-बहन जब भी शाम को दुकान की तरफ जाते तो सिर पर हाथ रखकर उनका प्यार अच्छा लगता पर हाथ बड़े कठोर थे उनके। और वो सामने हलवाई की दुकान पर आवाज़ लगाते कि बच्चे आए हैं, सेवियाँ, बदाना का कुल्हड़ भेजो। चाहे पैसे हमारे दादा जी देते थे। पर हम उनकी तरफ से पार्टी समझते।
पर कई बार इस व्यवहार के विपरीत उन्हें लड़कों से उलझते, लड़ते, झगड़ते देखा था। क्योंकि वो मसखरे लड़के हमारे पुन्नू अंकल को कहते कि,”क्या पगड़ियाँ रंगता है नाच के दिखा। और जाति वाचक शब्द धड़ल्ले से बोलते।” और पुन्नू अंकल उस समय शिव तांडव करते नजर आते और खीझते, नाचते, बड़ी-बड़ी गालियाँ निकालते। बिलकुल आपे से बाहर! क्योंकि असमान्य, बेकार लोग उनके अस्तित्व को ललकार नहीं बल्कि गाली दे रहे थे। तो बताओ कोई सामान्य सामान्य व्यवहार कर सकता है? नहीं, बिलकुल नहीं ।
हमारे पुन्नू अंकल उन लड़कों से श्रेष्ठ, जो मेहनत कर अपना और अपनी माँ का पेट पाल रहे थे। बुढ़ापे तक काम करते रहे परन्तु गैरत से जीवनयापन करने पर भी वो गिनी-चुनी शामें थीं जब वो मुस्कुराते घर गए हों। और अब जब कभी उनकी याद आती तो सोचती हूँ कि फिर क्या हुआ होगा!
अभी तो इस लेख में हमने छोटे-छोटे कस्बों और शहरों में केवल LGBTIQ कम्यूनिटी के T को पेश आती मुश्किलों के बारे में बात की है। L. G. B. के बारे में आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि वे बड़े शहरों में क्यों चले जाते हैं। ताकि वे उस भीड़ का हिस्सा बन, गुम पर, शांत रहें।
तो सामान्य लोग, हम, काश सामान्य होते तो समाज के किसी भी जाति के व्यक्ति के साथ असमान्य व्यवहार नहीं करते। सबसे बड़ी विडंबना यही है कि हम सामान्य लोग स्वयं असमान्य व्यवहार करते हैं और दोष उन पर लगा कह देते हैं, कि वो सामान्य नहीं। अरे! वाह तकलीफ भी दो और कोई विरोध भी न करे? और समाज में तो शायद जाति सूचक शब्द बोलने की सज़ा है ना!
तो ग़लत LGBTQ कम्यूनिटी के लोग नहीं शायद माता-पिता के DNA में गलती से गड़बड़ हो गई जिसका भांडा वो बच्चों पर फोड़ते हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे कुछ परिवारों में लड़की के पैदा होने पर। परन्तु जब ऐसा हो तो उनको कौन समझाए कि ये गड़बड़ नहीं उनकी पहचान, शक्ति भी हो सकती है। पर तभी अगर परिवार, समाज, दोस्त सामान्य रह कर उनका साथ दें तो कोई वकील, जज, सरकारी अफसर, अध्यापक, प्रिंसिपल, मंत्री की सीट पर सुशोभित नजर आएगा नहीं तो तन्हा हार के मौत को गले लगा सकता है। या फिर बिलकुल आप और हम, सामान्य लोग, जैसे, गलत रास्ते पर जाकर स्वयं और समाज का विनाश भी कर सकता है।
तो आएं समाज की ‘विभिन्नता में एकता’ के मार्ग पर चलते हुए। सबको सम्मान दें और बदले में सम्मान लें। और सिद्ध करें कि हम बहुसंख्यक हर हाल में सामान्य हैं! प्रकृति को न आप बदल सकते हैं न कोई और। तो जिएं और जीने दें ।
मूल चित्र : YouTube
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