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…और मैंने सोच लिया कि अपने लिए मैं ही काफ़ी हूँ : एक सच्ची घटना

अवश्य ही एक ये कदम सब लड़कों की मानसिकता ना बदल पाए या समाज में कोई बहुत बड़ा बदलाव ना ला पाए लेकिन कुछ लड़कियों में हिम्मत ज़रूर भर देगा।

अवश्य ही एक ये कदम सब लड़कों की मानसिकता ना बदल पाए या समाज में कोई बहुत बड़ा बदलाव ना ला पाए लेकिन कुछ लड़कियों में हिम्मत ज़रूर भर देगा।

“लेकिन तूने कुछ कहा क्यूँ नहीं?” माँ ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।

“क्या कहती माँ, वहाँ बहुत लोग थे, सब मुझे जानते हैं। और जैसे ही उसने मुझे पीठ पर छुआ मैं हक्की-बक्की रह गयी। मुझे कुछ सूझा ही नहीं मैं क्या करूँ”, अविका ने लगभग सुबकते हुए कहा।

“तो किसी प्रोफेसर से शिकायत करनी चाहिए थी”, माँ ने फटकार में भी प्यार मिलाकर कहा।

“वो डीन का बेटा है माँ। उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। सारे प्रोफेसर जानते हैं, लेकिन कोई कुछ नहीं कहता। एक बार तो खुद एक टीचर की लड़की के साथ उसने बद्तमीज़ी की थी, लेकिन कोई कार्यवाही नहीं की गयी। यहाँ तक की उसने माफ़ी भी नहीं मांगी”, एक सांस में बोल गयी अविका।

“ऐसे भ्रष्ट प्रशासन की इतनी वाहवाही! सच है ऊंची दुकान फीके पकवान। पूरे प्रदेश में टॉप करने वाले बच्चे एडमिशन लेते हैं वहां और इतना बड़ा मुंह खोलकर पैसे मांगते हैं। अन्दर झांककर देखो तो, थोथा चना बजे घना वाला हाल है। आधुनिकता के नाम पर घुड़सवारी और स्विमिंग पूल दे सकते हैं लेकिन लड़कों को औरतों की इज्ज़त करवाना नहीं सिखा सकते”, कहीं ना कहीं अपने द्वारा सहे गए उत्पीड़न को आज बेटी के साथ भी होते देख झंझोड़ उठी ‘एक औरत’ ने कहा।

“सच है माँ, मुझे यहाँ आना ही नहीं चाहिए था। वहीं किसी छोटे-मोटे कॉलेज में दाखिला ले लेना चाहिए था, कम से कम ये सब प्रपंच तो नहीं होता वहाँ”, पछताते हुए अविका बोली।

“नहीं बेटा ,ऐसा नहीं है। औरत तो हर जगह अपनी आबरू दाव पर लगाती आई है। जगह कब इस शोषण को रोक सकी है? कभी पैसों की चमक उन आंसुओं के पुंज को प्रकाशमान नहीं होने देती, तो कभी अपने बच्चों का सहारा खो देने का डर उन्हें वो नरक भोगने को भी मजबूर कर देता है। उम्र तक के मोहताज नहीं होते ये भक्षक, नन्ही गुलाबी फ्रॉक से सफ़ेद ओढ़नी तक अपनी हवस में उन्हें लाल कर जाते हैं ये दरिन्दे। कभी  किसी असहाय की मजबूरी तो कभी प्रतिकार, कभी जिद्द तो कभी वासना, तो कभी मात्र मन को बहलाने के लिए विध्वंस कर लेते हैं ऐसे नामर्द”, कांपते हुए माँ ने कहा।

अविका अचंभित थी माँ की बातें सुनकर। कितना रोष कितना दर्द कितनी करुणा थी माँ के स्वर में। बंद पहाड़ में तपती गर्मी से एक दिन लावा फूट ही आता है, अपने पूरे सामर्थ्य के साथ, अंगार से भरपूर, ठीक वैसे ही आज माँ के शब्द जान पड़ रहे थे।

“अविका! अविका! आवाज़ आ रही है ना बेटा?” माँ की आवाज़ से अविका का ध्यान टूटा।

“हाँ माँ! आ रही है। अच्छा अब बहुत देर हो गई है। लेट हुई तो हॉस्टल मेस में खाना नहीं मिलेगा। मैं आपसे कल बात करती हूँ।” ठंडी आंह भरकर अविका ने फ़ोन रख दिया।

अगले दिन अविका कॉलेज पहुंची। कैंटीन की तरफ़ गुज़रते हुए उसने डीन के बेटे को उससे मिलने का इशारा किया। वो ठीक ऐसे ही अविका की तरफ लपका जैसे केले की तरफ बन्दर। अविका कैंटीन के पीछे बने बॉटनी डिपार्टमेंट की खँडहर हुई प्रयोगशाला में उसे ले गयी।

बिगड़े नवाब अपने ख्वाब सच होने की महत्वकांक्षा से सरपट पीछे पीछे चल दिए। जैसे ही दरवाज़े के अन्दर गए और ज़मीन के बल नीचे गिर पड़े। हवस पर पड़े परदे से उन्हें वो बीच में पड़ा मटमैला बोरा दिखाई ना दिया। इससे पहले की वो हाथ का सहारा लेकर ऊपर उठता, हवा में उठी हॉकी स्टिक उसके हाथ पर पड़ गयी।  करहाते हुए उसने एक गाली निकाली और ये टांगों के ठीक बीच में दूसरा वार तैयार था। देखते ही देखते टेबल के पीछे छुपी तीन लड़कियां भी बाहर आ गयीं और वहाँ पड़े एक पुराने लकड़ी के डंडे से उसे मारने लगीं।

“यही गंदे हाथ हमें आते जाते छुआ करते हैं ना?” कहकर अविका ने स्टिक से उसके हाथों पर वार किया।

बहुत पिटने के बाद वो हाथ जोड़ कर माफ़ी मांगने लगा और उसे जाने देने की फ़रियाद करने लगा। लड़कियों ने एक दूसरे की तरफ़ देखा और उसे जाने देने में सहमति जताई।

लड़कियों ने पीछे से झांककर देखा तो वो लड़का बाहर निकला और जेब में से रुमाल निकाल कर पहले अपने कपड़ों पर लगी मिट्टी को साफ़ करने लगा और फिर उसी रुमाल को अपने हाथ पर बाँध दिया। उसके मन का डर उसके चेहरे पर साफ़ नज़र आ रहा था। पौरुष पर लगी चोट को थरथराई मुस्कान के पीछे छुपा रहा था। दोस्तों में इन चोटों को बताने के लिए कोई विकल्प कथा बुन रहा था। और देखते ही देखते वो कैंटीन की तरफ़ ओझल हो गया।

अविका आज खुद को बेड़ियों से मुक्त महसूस कर रही थी। वो लड़कियां खुश थी कि उस अनवांछित स्पर्श करने वाले हाथों को सबक सिखाने में कामयाब हुई। एक और बलात्कारी के निर्माण में बाधा बनने में सफल हुईं। अविका के शब्दों ने उनमे एक नयी उर्जा का संचार किया था। किसी भी लड़की को हाथ लगाने से पहले वो सौ बार इस वृतांत को स्मरण करेगा। और इसे वे अगले दिन साक्षात्कार कर चुकी थी, जब वो लडकियां कॉलेज के गेट पर खड़ी थी और वो लड़का नज़रें बचा कर वहाँ से निकल गया।

“नहीं माँ, अब कोई परेशानी नहीं है, सब सॉर्ट आउट हो गया है। आप टेंशन मत लो। सो जाओ!” अविका ने खिलखिलाते हुए फ़ोन रख दिया।

माँ जानती थी उसकी बेटी को, उसने कुछ ना कुछ समाधान निकाल ही लिया होगा। संतुष्ट थी आज वो कि उनकी बेटी ने अपनी समस्याओं का समाधान खुद ढूँढना शुरू कर दिया। वो तैयार कर रहीं थी उसे उसके लिए काफ़ी होने के लिए। उनके माँ होने के फ़र्ज़ को पूरा होते हुए देख रहीं थीं। आखिर क्यूँ अपने सम्मान का भार वो किसी और के कंधे पर डालें? वो भी खुलकर सामना कर सके और कह सके मैं ही काफ़ी हूँ उन सबसे  लड़ने के लिए,जो उसकी अस्मिता पर ऊँगली उठाएंगे। अपना अस्तित्व सुरक्षित रखने के लिए, उसे किसी के सामने गिड़गिड़ाने की ज़रूरत नहीं है। काफ़ी है वो अपना मान बचाने के लिए। और उन्होंने हमेशा के लिए एक सबक दे दिया, खुद के लिए आवाज़ उठाने का, बिना कुछ किये।

विचार पुष्प : ये सच्ची घटना है जो हॉस्टल में रह रही मेरी एक जूनियर ने मुझे बताई। एक बार के लिए मुझे विश्वास नहीं हुआ उसकी हिम्मत पर लेकिन उसका दृढ विश्वास और साहस देखकर उसके लिए सम्मान और बढ़ गया। हां ,अवश्य ही उसका ये कदम सब लड़कों की मानसिकता ना बदल पाए या समाज में कोई बहुत बड़ा बदलाव ना ला पाए लेकिन कुछ लड़कियों में हिम्मत ज़रूर भर देगा। अपने लिए आवाज़ उठाने की हिम्मत , अपनी क्षमताओं को पहचानने की हिम्मत,गलत के खिलाफ़ लड़ने की हिम्मत। गर्व है मुझे ऐसी उन सभी महिलाओं पर जो अपने ऊपर अन्याय को होने देने की बजाय उसका समाधान निकाल लेती हैं। गर्व है जो रोने के लिए कन्धा ढूंढने की वनिस्पत अपने कंधे को ही मजबूत कर लेती हैं। 

मूल चित्र : Screenshot from movie Pink

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Shweta Vyas

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