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जली थी मैं भी कहीं-कहीं उस आग में, जो सब ने तुम पर बरसाई थी, उस आग की झुलस से काश मैं उन्हें भी जला पाती, और लिपटा कर तुम्हें खुद से, तुम्हें छुपा पाती...
जली थी मैं भी कहीं-कहीं उस आग में, जो सब ने तुम पर बरसाई थी, उस आग की झुलस से काश मैं उन्हें भी जला पाती, और लिपटा कर तुम्हें खुद से, तुम्हें छुपा पाती…
मैं हूं वह जमीन जो तुम्हारे साथ थी, पर मैं शर्मिंदा हूं।
धकेला था जब उन्होंने तुम्हें मुझ पर, तब मैं तुम्हें थाम न पाई, गिरी थीं जब तुम मुझ पर, क्यों मैं तुम्हें उठा ना पाई।
तुम पर किया हर वार मैंने भी महसूस किया था, जब तुम्हारी मुट्ठी से मेरा हर एक कतरा फिसला था। काश कि उन कतरों का बवंडर मैं ला पाती, और तुम्हारे जिस्म को कहीं दूर उड़ा के ले जाती।
तुम्हारी चीख़ों से मुझ में दरारें तो बहुत पड़ीं, पर कैसे वह किसी और के कानों ने ना सुनी? तब जी चाहा था कि मैं फट जाती, और वैदेही की तरह तुम्हें भी खुद में समा पाती।
तुम्हारी हर एक कराह गूंजती है मुझ में हर वक़्त कहीं, पर उस वहशी हंसी का हिसाब कौन लेगा? वो एड़ी की हर रगड़ मुझ पर छपी है अभी भी, पर उन छुपे चेहरों को बेनकाब कौन करेगा?
जली थी मैं भी कहीं-कहीं उस आग में, जो सब ने तुम पर बरसाई थी। उस आग की झुलस से काश मैं उन्हें भी जला पाती, और लिपटा कर तुम्हें खुद से मैं, तुम्हें छुपा पाती।
उस आखिरी आह में, मैं कुछ तो उड़ी थी, पर थम गई थी बस वहीं, जब सांस तुम्हारी टूटी थी।
बिखरा तब मेरा वजूद था, जब उस मां को मैंने टूटते देखा था, हाथों में जिसके बस राख तुम्हारी आई थी। रह गई बस बनकर बस गूंगी चश्मदीद, क्यों मैं कुछ और कह ना पाई।
तुम्हारी ‘मिट्टी’ में मेरा कुछ हिस्सा साथ गया था, बस इतना ही साथ तुम्हारा मैं दे पाई, मैं शर्मिंदा हूं, कि कुछ कर ना पाई।
मूल चित्र : Screenshot Kasauti Zindagi ke
Smithing words, in forge of thoughts. read more...
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