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अब इंसानियत का पाठ पढ़ाने सब आएंगे लेकिन…हम भी अलग कहाँ!

तकलीफ इस बात की नहीं कि हम अपने आप को सर्वोपरि मानते हैं बल्कि यह मानते मानते हमने अपना वजूद, अपनी इंसानियत, खो बैठे हैं।

तकलीफ इस बात की नहीं कि हम अपने आप को सर्वोपरि मानते हैं बल्कि यह मानते-मानते हमने अपना वजूद, अपनी इंसानियत, खो बैठे हैं।

कभी कभी ऐसा लगता है की साल 2020 हमे बहुत सारे सबक याद कराने और साथ ही साथ इम्तिहान लेने आया है। वो फ्लाइंग स्क़ॉड होता था न कुछ वैसा ही। अभी पांच महीने गुज़रे हैं और 7 महीने बाकी है।

दबे पांव आया एक अनदेखा वाइरस। जो कुछ दिनों में आपके फेफड़ों को जकड़ लेता है और आपका दम घुटने लगता है। आप संक्रमित हैं इसलिए अपने परिवार से नहीं मिल सकते। अगर आप मर गए तो आपको पॉलिथीन के बैग में डाल कर कहीं जला दिया जाता है या बहुत गहरे दफना देते हैं।

ये वाइरस हम इंसानों के लालच और प्रभुत्त्व के नशे से उतपन्न हुआ है या हमारी अनैसर्गिक खान पान के तरीकों से इस पर बहस जारी है किन्तु नतीजा सामने है।

तीन महीनों का लॉकडाउन

भूख और गरीबी का दिल दहला देने वाला मंज़र।

मीलों मील चलते वो परिवार जिन्होंने देश के शहरीकरण की नींव रखी।
जिन्होंने ईंट पत्थर जोड़ हमारे लिए घर बनाया और फिर दर बदर की ठोकर खाने पर मजबूर हो गए।

हम तीसरी दुनिया के देश हैं और गरीबी और भुखमरी में निचले पायदान पर हैं।
दुनिया का सबसे ताक़तवर देश घुटने के बल आ गया जब प्रकृति ने विकृत रूप लिया।

विकसित देशों का परचम लहराते अमरीका में चमड़ी के रंग के भेद पर किसी की जान ले ली जाती है।

सारा संसार हतप्रभ है।

सारी मानवजाति स्तब्ध है।

ये कौन सी दुनिया है?

हम परेशान हैं

चिंतित हैं, किन्तु हम उस जान लेने वाले पुलिस कर्मी से अलग नहीं हैं।
हम जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर, लड़ते ही हैं, फिर कहाँ अलग हैं हम?
इन दिनों कुछ दिल को झकझोर देने वाली तस्वीरें सामने आयी।

मरते दम तक शायद वो तस्वीरें ज़हन का हिस्सा बनेंगी। सोशल मीडिया पर बहुत वायरल हुईं, नहीं मालूम कि उन्हें सिर्फ वायरल तस्वीरों की कैटेगरी में रखकर साल दर साल याद किया जाएगा या उनसे कोई सबक भी लिया जाएगा।

सोशल मीडिया पर ये तसवीरें बहुत वायरल हुईं

हालिया एक तस्वीर जहां करीब साल या दो साल का बच्चा अपनी मां के आंचल से खेल रहा है।
कंक्रीट के बने रेलवे स्टेशन के फर्श पर मां का जिस्म बेजान निढाल पड़ा है और बच्चा वहीं, इस क्रूर तथ्य से बेखबर, मासूमियत से मां के आंचल से से खेल रहा है। मृत्यु का ऐसा रूप शायद ही कहीं देखने को मिला है या शायद हम अब तक बचे हुए थे। सालों से जंग झेल रहे सीरिया जैसे देशों में ऐसे तमाम बच्चे हैं जिन्होंने माता-पिता के बेजान जिस्म के साथ घंटे और दिन बिताएं हैं। सोचती हूं अगर इनमें से किसी को वह मंजर याद रह जाए तो बड़े होकर मनःस्तिथि क्या होगी?

कितना दर्द, कितनी बेबसी, कितनी हताशा, कितनी बेचारगी और कितना गुस्सा!

प्रभुत्व के नशे में चूर मानव

फिर तस्वीर नजर आई जहां प्रभुत्व के नशे में चूर एक गोरी चमड़ी वाले ने काली चमड़ी वाले को जान से मार दिया। उसका कुसूर पता नहीं तमाम रिपोर्टों और तमाम लेखों पर नहीं जाती। कुसूर रहा भी हो तो क्या इतना बड़ा की किसी इंसान की जान ले ली जाए?

कत्ल के पीछे कत्ल करने वाले की मंशा सिर्फ और सिर्फ एक, काली चमड़ी वाले को सजा देना था।
उसका कसूर था या नहीं था यह अलाहिदा बात है यहां उसकी ‘चमड़ी का रंग’ उसका कसूर था।

ढेरों रंगों में हमें पैदा किया है प्रकृति ने मगर शायद अब हम अपने आप को प्रकृति की संतान नहीं मानते हम समझते हैं यह धरती, यह प्रकृति हमारे लिए हैं और हम इसके स्वामी।

हम यानी मानव प्रजाति

हमारा हक, हमारी जरूरत, सब कुछ हम पर शुरू होता है और हम पर ही खत्म होता है और इस ‘हम’ में कभी-कभी ‘हम’ भी अलग-थलग हो जाते रह जाता है सिर्फ मैं और यह ‘मैं’ तमाम बर्बादियों का कारण बनता है।

हम कब यह समझेंगे की प्रकृति ने पहले जानवरों को बनाया था, मानव सबसे आखिर में आया और अपनी बुद्धि से अपने आप को सबसे सर्वोपरि कर लिया। किंतु जिस दिन प्रकृति का गुस्सा मानव जाति के ऊपर अपने पूरे उफान पर उठेगा उस दिन संभालना मुश्किल नहीं नामुमकिन होगा।

हम अपना वजूद, अपनी इंसानियत, खो बैठे हैं

तकलीफ इस बात की नहीं कि हम अपने आप को सर्वोपरि मानते हैं बल्कि यह मानते मानते हम अपना वजूद, अपनी इंसानियत, खो बैठे हैं।

एक गर्भवती मां को भी मारने से पहले नहीं सोचा की एक मां हैं।
एक जीवन अपने भीतर रख तुमसे अपनी क्षुधा शांत करने के लिए किसी उम्मीद में थी।
पढ़े लिखे सबसे साक्षर राज्य की घटना सुन्न कर देती है। आपको डर लगता है अपने आस पास रहने वालों से। लगना भी चाहिए क्योंकि आप मानव नहीं, उस जैसे दिखने वाले किस अलग प्रजाति में रह रहे हो जो सोचती समझती नहीं। न ही किसी का दर्द, न भूख, न बेबसी।

घृणा शब्द छोटा है

खुद से कुछ ऐसा महसूस हो रहा है जैसे किसी के खून से रंगे है हमारे हाथ।
चाहे वो उस बेनाम माँ का बेजान शरीर हो, चाहे ‘जॉर्ज फ्लॉएड’ की ‘मैं साँस नहीं ले पा रहा हूँ’, ये शब्द ,चाहे पानी में सर झुका कर दर्द जलन और भीतर पल रही जान के मरने का इंतज़ार करती एक माँ। एक हथिनी जिसे अनानास में पटाखे रख कर खिला दिया गया!

क्या एक बार उन लोगों के हाथों पर सुतली बम के हज़ार लड़ी बांध कर जलाई जा सकती है?

या उनके घरवालों के हाथ पर पटाखे रख कर फोड़े नहीं जा सकते?

क्या एक बार किसी गोरी चमड़ी वाले को यूँ सज़ा नहीं दी जा सकती?

या सम्पन्न समाज को एक बार भूख का एहसास नहीं कराया जा सकता?

हाँ, अब इंसानियत का पाठ पढ़ने और पढ़ाने सब आएंगे लेकिन खुद में झांको, शायद इन तीनों के खून हमारे सर हैं।

और अब इंतज़ार करो कब, कैसे, कहाँ समय इसकी सज़ा देगा।

जो भोग रहे हो वो भी सज़ा है।

जो भोगेंगे वो इससे बढ़कर होगी।

२० सेकंड साबुन से हाथ धो कर कोरोना से बच सकते हो किन्तु अमानवीयता का वाइरस घर कर गया है भीतर, उसका इलाज है?

मूल चित्र : Canva

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Sarita Nirjhra

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