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तारीके शेरशाही अब किसी को क्यों याद नहीं …..

मात्र पांच साल के शासन में शेरशाह ने जो काम किए वह बताते है कि वह कितना महान शासक था। ये हिंदुस्तान का दुर्भाग्य है कि शेरशाह इतने कम समय तक ही शासन कर सका।

मात्र पांच साल के शासन में शेरशाह ने जो काम किए वह बताते है कि वह कितना महान शासक था। ये हिंदुस्तान का दुर्भाग्य है कि शेरशाह इतने कम समय तक ही शासन कर सका।

लड़कपन के दिनों में जब मन पढ़ाई नाम को सुनकर ही भूत हो जाया करता था, पांचवी क्लास में इतिहास के किताब में फरीद नाम के एक लड़के की कहानी पढ़ी जिसने एक बार शेर से लड़ाई की और शेर को मार गिराया और उसका नाम “शेर शाह” पड़ा। बाद में अपनी सौतली मां से परेशान होकर अपनी जागीरदारी छोड़ दी और बाद में वह “शेरशाह सूरी” बना। जिसने मुग़ल बादशाह ने हूंमायू को भारत से खदेड़ दिया। अपने शासन में उसने ग्रैंडट्रंक रोड बनवाए यह सवाल बार-बार पूछा जाता तो याद कर रखा था। बात यही आई गई हो गई, उसके बाद शेरशाह से कभी पाला नहीं पड़ा।

कालेज की पढ़ाई खत्म करके जब दिल्ली हाईयर एडुकेशन के लिए रूख किया। एक दिन दोस्तों के साथ दिल्ली का पुराना किला देखने का मौका लगा। उस किले की नींव ने मुझे मज़बूर किया मैं “शेरशाह” के बारे में फिर से पढ़ूं। जब पढ़ना शुरू किया तब यह एहसास हुआ कि शेरशाह की किस्मत थोड़ा और साथ देती तो हिंदुस्तान का इतिहास ही कुछ और होता। इस बात का दुख भी हुआ कि इस अजीमोशान शहंशाह के बारे में खुद उसके मादरेवतन बिहार के लोग भी स्कूली बच्चों को कुछ भी नहीं बताते, जो बताते है वह बस परीक्षा में पास करने की जानकारी भर होता है जो उस बच्चे को अपने गौरवशाली इतिहास से तो नहीं ही जोड़ता है।

शेरशाह का संबंध अफगानों की सूरी जाति से और सूरी जाति के सरदार इब्राहिम सूर से बताया जाता है जिनके बेटे हसन सूर को बिहार के सासाराम की जागीदारी मिली हुई थी। सौतेली मां से हुई अनबन के बाद अपनी किस्मत का सितारा बुलंद करने के लिए मनसबदारों के यहां नौकरी करता रहा। मनसबदार भी अनबन हुई और बाबर के सेना में भर्ती हो गया कुछ समय सेना की धूल फांकने के बाद वापस मनसबदार के पास पहुंचा और उसके बेटे का सलाहकार बन गया, जिसका नाम जलाल खान था, पर फरीद जितना ताकतवर और बहादुर था जल्द ही मौका मिलते ही जलाल खान को रास्ते से हटाकर बिहार को अपने कब्जे में लिया और बाबर का मनसबदार बनकर ही हिंदुस्तान के गद्दी के सपने देखने लगा।

इतिहासकार बताते है कि बाबर को इस बात का इल्म हो चुका था कि फरीद खां हिंदुस्तान के तख्त पर अपना कब्जा करना चाहता है पर इससे पहले वह कुछ कर पाते फरीद खां उनकी पहुंच से निकल कर वहां पहुंच गया जहां उसका कुछ किया नहीं जा सकता था, उसका घर सासाराम। अब फरीद खा वक्त का इंतजार करते हुए खुद को मजबूत करने लगा। बाबर की मौत हुई और सूर के पठान फरीद शाह से खुद को शेर शाह सूरी कहलवाना शुरू कर दिया।

उसके बाद हूंमायू की बंगाल जीतने की चाहत और शेरशाह का हिंदुस्तान का बादशाह बनने की चाहत की जंग के लिए उत्तरप्रदेश के चौसा के मैदान दोनों आमने-सामने हुए पर जंग हुई नहीं। दोनों ने सुलह का रास्ता चुना और मुगलिया परचम के नीचे शेरशाह सूरी को बिहार और बंगाल दोनों की जागीरदारी मिल गई। असल में शेरशाह सूरी अपनी पकड़ मजबूत बनाने के लिए बंगाल को अपने कब्जे में रखना चाहता था। अगली बार फिर दोनों एक-दूसरे के सामने कन्नौज में भिड़े, इस बार हुमायूं को अपनी जान बचानी पड़ी।

हूमायूं के हाथों से हिंदुस्तान का तख्त फिसल चुका था। उसके बाद शेरशाह और हूमायू का पीछा सरहिंद तक किया। उसके बाद दोनों के बीच सुलह हुआ कि हिदुस्तान का शासन शेरशाह सूरी के हाथों रहेगा और हूमायू के हाथ लहौर भी नहीं काबुल रहेगा, वह वही रहे।

इसके बाद शेरशाह ने कई लड़ाई लड़ी सुमेल की लड़ाई राजपूतों के साथ, जोधपुर के राठौर मालदेव के साथ टक्कर की लड़ाई हुई। राणा सांगा के बाद मालदेव अपनी सीमा में बीकानेर, मेड़ता जैतारण, टोंक, नागौर और अजमेर को मिलाते हुए झज्जर तक पहुंच चुका था। राजस्थान में दोनों में जंग हुई जिसमें शेरशाह हार चुका था पर मालदेच अपनी ही लोगों पर विश्वास नहीं कर सके और रात के अंधेरे में लड़ाई के मैदान से निकल गए।

कलिंजर के किले में जंग के दौरान शेरशाह की मौत हुई। मात्र पांच साल के शासन में शेरशाह ने जो काम किए वह बताते है कि वह कितना महान शासक था। ये हिंदुस्तान का दुर्भाग्य है कि शेरशाह इतने कम समय तक ही शासन कर सका।

उनके काम केवल सड़क, सराए और सड़कों के दोनों तरफ पेड़ लगवाने भर के नहीं थे। वैस ग्रैंडट्रंक रोड की लड़ाई और 1700 सराय बनाना भी कोई मामूली काम नहीं है। शेर शाह ने मुद्रा के लिए चांदी के सिक्के का निर्धारण भी किया। पहली बार किसी शासन में कैबिनेट जैसे विभाग देखने को मिले जिससे राज्यों के शासन पर भी नियंत्रण होता था दीवान-ए-वज़ारत,दीवान-ए-आरिज़, दीवान-ए-रिसालत और दीवान-ए-इंशा जैसे विभाग इतिहास में पहली बार पढ़ने-सुनने को मिले। मनसबदारी में लगान तय करना और मनसबदारों को सीमित संख्या में सैनिक रखने की छूट थी उनके लिए वेतन भी तय थे।

किसानी से शेरशाह को बहुत लगाव था इसलिए किसानो पर लगान उसने सहूलियत के हिसाब से तय किया। किसानों को फसल उगाने की छूट दी गई और तयशुदा राशि से अधिक लगान गुनाह कायम कर दिया गया। यह शेरशाह की कामयाबी ही थी कि शेरशाह के मरने के बाद जब अकबर ने शासन अपने हाथ में लिया तो शेरशाह का अनुसरण किया। सारगढ़ का लाल दरवाजा, रोहतक का काबुल गेट, सासाराम में शेरशाह का मकबरा, पुराना किला सूरी रियासत की कहानी आज भी बयां करती है।

(नोट: लेख लिखने के लिए “तारीके शेरशाही” किताब से मदद ली गई है जिसक लेखक अब्बास खान सरवानी है।)

मूल चित्र : Wikipedia

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