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मनुष्य की ज़िंदगी में सब कुछ छिन सकता है, मगर आत्मसम्मान की बात जब आती है तो इसका दृढ़ होना अति आवश्यक है…
जो तेरे भीतर दबा रहा, मैं वो उठता ख्वाब हूं, मैं कोई चांद की चांदनी नहीं, सूरज की जलती आग हूं।
मैं कोई तेरी चूड़ी की खनक नहीं, न ही पायल की झंकार हूं, मैं तेरे माथे की बिंदिया भी नहीं, न तेेेरे सोने का हार हूं।
मैं तो बस तुझमेें जलती आग हूं, तेरे भीतर छिपा आत्मसम्मान हूं, तू चल मैं तेरे साथ हूं, हां मैं तेरा आत्मसम्मान हूं।
मैं तेरे पैरों में बंधी बेड़ियाँ नहीं, न तेेेरे आंखों की लाज हूं, सीने पे चुभते उन शब्दों से, उठता बस एक ज्वार हूं।
मैं तेेरी आंखों का काजल नहीं, आत्मविश्वास का श्रृंगार हूं, मैं किसी अबला की मूरत नहीं, इक सबला का सम्मान हूं।
हां मैं तेरा आत्मसम्मान हूं! मैं तेेरा लड़खड़ाता कदम भी नहीं, विश्वास से बढ़ता हाथ हूं, मैं तेरे होठों की चुप्पी नहीं, तेरे हाथों की तलवार हूं।
मैं तेरे यौवन की कामुकता भी नहीं, तेरे भीतर शक्ति का भंडार हूं, मैं कोई शांत कुआँ नहीं, नदिया की तेज धार हूं।
तू चल मैं तेरे साथ हूं, हां मैं तेरा आत्मसम्मान हूं, हां मैं आत्मसम्मान हूं! तेरा आत्मसम्मान हूं!
मूल चित्र : Pexels
Student, Book lover and a dreamer.
खुद को नई सी लगने लगी हूँ…हाँ, अब मैं बदल गई हूं!
यहां इक तू है, तो इक मैं भी तो हूं…
मैं कविता हूँ
आज़ादी आधी आबादी की
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