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आज भी माँ के हाथ से बने खाने का लुत्फ़ कुछ और ही है…

हम कितने भी बड़े क्यों न हो जाएँ, चाहे खुद भी माँ बन जाएँ, फिर भी अपनी माँ को, माँ के हाथ से बने खाने के स्वाद को कभी नहीं भूल सकते।

हम कितने भी बड़े क्यों न हो जाएँ, चाहे खुद भी माँ बन जाएँ, फिर भी अपनी माँ को, माँ के हाथ से बने खाने के स्वाद को कभी नहीं भूल सकते।

माँ और बेटी का रिश्ता बहुत सुंदर है। इस रिश्ते में प्यार कूट कूट कर भरा होता है। बेटी अपनी माँ की परछाई होती है। माँ अपनी बेटी के मन की बात बिना कहे भी जान जाती है। उसे आगामी जीवन के लिए भी तैयार करती है।

मैं भी अपनी माँ को दिलोजान से चाहती हूँ, बचपन से माँ के साथ ही रही उनके प्यार की कमी तब लगी जब B. ed करने मुझे अपनी माँ को छोड़कर राजगढ़ जाना पड़ा वहां जाकर पता चला कि माँ के बिना कितना मुश्किल है.. वहाँ जाकर रूम लेके रहना, अपने लिए खाना बनाना क्योंकि वहाँ लोग पेईंग गेस्ट नहीं रखते थे, तो मुझे बहुत परेशानी हुई। मेरी माँ चाहकर भी मेरे साथ नही रह सकती थी क्योंकि घर मे पापा और दोनों भाइयों को दिक्कत हो जाती।

मैं अपने घर में रसोई का कोई काम नहीं करती थी, पता था कि कैसे होता है। क्योंकि माँ थी खाना बनाने के लिए। उनके हाथों का ही पसंद था। माँ कुछ भी बना दे, बिना ना नुकर किये हम चारों भाई बहिन खा लेते थे। कभी कभी तो हमारी लड़ाई भी ही जाया करती थी।

मेरी मुसीबत तो तब शुरू हुई जब मेरी क्लासेस शुरू हुई, अब सुबह की चाय बेड पर पीने वाली को चाय तो दूर दूर तक नसीब नहीं थी और शाही नाश्ता अब डबलरोटी पर आ गया था दोपहर 3 बजे आती तब अपने लिए कुछ बनाती और तब मुझे माँ की बहुत याद आती।

कैसे माँ मेरे कॉलेज से आने के बाद गर्मागर्म रोटी बनाती थी और माँ के हाथ के बने नमकीन चावल, सरसों का साग, मक्की की रोटी, सिंपल घीया टिंडे की सब्जी, पंचभेल की सब्जी और आलू टमाटर की सब्जी, सब भूल गयी। अब तो ये आलम है कि जो भी बन जाता बस खा लेती और कुछ न बना पाती, तो माँ से फोन पर पूछ कर बना लेती।

लेकिन वो एक साल मुझे भुलाय नही भूलता कैसे मैंने बिताया था माँ के हाथ के बने खाने के बिना।

शायद इसके पीछे भी सबक था कि मैं आगे आने वाले समय की लिए तैयार हो गयी और अपने ससुराल में बिना कोई परेशानी के एड्जस्ट हो गई।

लेकिन जब से ससुराल आयी हूँ यहां सास, ससुर, देवर, पति सब हैं। अब तो मैं खुद दो बच्चों की माँ हूँ, फिर भी आज भी जब मै खाना बनाती हूँ, सब तारीफ़ भी करतें है। फिर भी मन मे एक मलाल रह जाता कि माँ के हाथों से बना होता तो कैसा होता। अब सबको खिलाने के बाद खाती हूँ। किसी को कोई परवाह नही होती कि मैंने क्या खाया, औऱ क्या नहीं।

अब अपने बच्चों को बताती हूँ कि तुम्हारी नानी हमारे लिए क्या क्या बनाती थी, हम भाई बहिन कैसे लड़ते थे, मिल-बांट कर खाते भी थे।

आज जब कभी मायके जाना होता है। मेरी माँ सुबह से ही रसोई में कुछ न कुछ बनाना शुरू कर देती है। जितने भी दिन वहाँ रहूं, मैं अपनी माँ के हाथों से बने खाने का स्वाद ही लेती हूँ। और मेरे शरारती बच्चे भी अपनी नानी से सूजी का हलवा बनवा ही लेतें है।

हम कितने भी बड़े क्यों न हो जाएँ फिर भी अपनी माँ को, माँ के हाथ से बने खाने के स्वाद को कभी नहीं भूल सकते।

मूल चित्र : Canva

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