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जीवन का संघर्ष और सुरक्षा मनुष्य के हाथ में हैं

मनुष्य अपने विकास के वर्षो से अब तक सिर्फ - पृथ्वी, यहां के अन्य जीवों और पर्यावरण के लिए नुकसानदायक, हानिकारक ही सिद्ध होता आया है।

मनुष्य अपने विकास के वर्षो से अब तक सिर्फ – पृथ्वी, यहां के अन्य जीवों और पर्यावरण के लिए नुकसानदायक, हानिकारक ही सिद्ध होता आया है।

आज के संदर्भ मे बात की जाये तो मानव जीवन पृथ्वी के हर हिस्से पर कठोर और अति कठिनतम होता जा रहा है खासकर हम मानवो के लिये, हो भी क्यों ना अब तक हमने प्रकृति और पर्यावरण को बस अपना दास ही समझा है, मनुष्य अपने विकास के वर्षो से अब तक सिर्फ – पृथ्वी, यहां के अन्य जीवों और पर्यावरण के लिए नुकसानदायक, हानिकारक ही सिध्द होता आया है।

मानव सभ्यता के लिये सबसे अनुकूल अपने इस ग्रह को हमने लगातर इसका अतिउपभोग अतिदोहन कर अपने ही जीवन और अस्तित्त्व की प्रतिकूलता का कारण बना लिया है, इससे मित्रता रखनी थी लेकिन इसे आज हमने अपना शत्रु बना लिया है, हालाँकि हमारी खामियों भूलों को सुधारने की कुछ आंशिक ही सही परंतु सम्भावनाएँ अभी भी बची है, जिनको समझ कर और अपनी गलतियों को सुधारकर हम अपना अस्तित्त्व अब भी बचाए रख सकते है, और वैसे भी यदि हम मनुष्य ये भ्रम पाले रखे की इस धरती पर हम इममॉर्टल, अमर, शाश्‍वत अनश्‍वर है तो ये हमारी सबसे बड़ी मूर्खता होगी।

आज जब डार्विन का ये नियम याद आया तो लगा मानो, मानव जीवन का अस्तित्व और विज्ञान दोनो आपस मे जुड़े हुए है, मानव जीवन और हमारा विज्ञान दोनो ही आज भी चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत पर टिके प्रतीत होते है, चार्ल्स डार्विन का मत था कि प्रकृति क्रमिक परिवर्तन द्वारा अपना विकास करती है और विकासवाद कहलाने वाला यही सिद्धांत उस समय आधुनिक जीवविज्ञान की नींव भी बना।

डार्विन को मानव इतिहास का सबसे बड़ा वैज्ञानिक माना जाता है, चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन 12 फ़रवरी 1809 दि माउंट, श्र्यूस्बरी, श्रोपशायर, इंग्लैण्ड मे जन्मे थे, उनका मत था की ‘केवल स्वस्थतम जीवधारियों का ही प्रभुत्व रहेगा ‘  वाकई लगता है ये केवल उनका मत नही था बल्कि उन्होने हमारे मानव अस्तित्त्व को बचाए रखने के गूढ़ रहस्य को जैसे हमे उपहार मे दिया हो, हम इसे बचपन से पढ़ रहे है काश हमने अपनी शिक्षा प्राप्त करने के समय, कुछ पाठ, कुछ सबक सिर्फ रटे ना होते बल्कि उनके सार को महत्व को अपने जीवन मे अपनाया भी होता।

स्वस्थतम की उत्तरजीविता (सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट)’ एक वाक्यांश है जिसका इस्तेमाल आम तौर पर इसके प्रथम दो प्रस्तावकों : ब्रिटिश बहुश्रुत दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर (जिन्होंने इस शब्द को गढ़ा था) और चार्ल्स डार्विन, द्वारा इस्तेमाल किए गए सन्दर्भ के अलावा अन्य सन्दर्भों में भी किया जाता है। संस्कृत में इसी को दूसरे प्रकार से यों कहा गया है- दैवो दुर्बलघातकः‘ (भगवान भी दुर्बल को ही मारते हैं।)केवल स्वस्थतम जीवधारियों का ही प्रभुत्व रहेगा’ और केवल ‘शारीरिक रूप से स्वस्थतम’ ही अपनी प्रजातियों की उत्तरिजीविता में भी योगदान करेगा।

आज की दशा दिशा, आवश्यकता और आज के समय की गम्भीरता भी यही कहती है, स्वस्थ्य रहिये सुरक्षित रहिये, अपनी गलतियाँ बार बार दोहरा कर, धरती से विलुप्त हो चुकी प्रजातियों की श्रेणी में मत पहुँच जाईये  खुद को अपने परिवार को कुछ दिनो के लिए सुरक्षित रखिये, अपने घरों मे रहिये।

मूल चित्र : Unsplash

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